कठपुतली और मुखौटा प्रदर्शन परम्पराएं और उनके रूप

कठपुतली और मुखौटा प्रदर्शन परम्पराएं और उनके रूप

परिचय– कठपुतली कला मनोरंजन के प्राचीन रूपों में से एक है। कलाकार द्वारा नियंत्रित कठपुतली का विचारोत्तेजक तत्व मनोरम अनुभव प्रदान करता है, जबकि प्रदर्शन का एनीमेशन और निर्माण की कम लागत इसे स्वतंत्र कलाकारों के बंग लोकप्रिय बनाती है। इसका प्रारूप कलाकार को रूप, डिजाइन, रंग और गतिशीलता के मामले में अवाधित स्वतंत्रत प्रदान करता है और इसे मानव जाति के सबसे सरल आविष्कारों में से एक बनाता है।

कठपुतली कला की उत्पत्ति एवं विकास –

'; } else { echo "Sorry! You are Blocked from seeing the Ads"; } ?>

पुतली कला दीर्घकाल से मनोरंजन और भौतिक उद्देश्य मिली है, जिससे कवियरत रही है। कठपुतली करका उत्खनन स्थलों से सॉकेट युक्त कठपुतलियाँ दिनी 500 इसा पूर्वक को एक रूप में की मोहनजोदड़ो को पता चलता है। कठपुतली रंगमंच के कुछ संदर्भ ९०० ईसा पूर्व के आसपास की अवधि में मिले। कठपुतली का लिखित संदर्भ प्रथम और द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास रचित तमिल ग्रंथ शिलप्पारिक तथा महाभारत में भी मिलता है।

कला के रूप के अतिरिक्त कठपुतली का भारतीय संस्कृति में दार्शनिक महत्त्व रहा है। भगवत् गीता में ईश्वर को का रज और तम रूपी तीन सूत्रों से ब्रह्मांड का नियंत्रण करने वाले कठपुतली के सूत्रधार के रूप में वर्णित किया गया। इसी प्रकार, भारतीय रंगमंच में, कथावाचक को सूत्रधार या ‘सूत्रों का धारक’ कहा जाता था।

सम्पूर्ण भारत के विभिन्न भागों में नाना प्रकार की कठपुतली परंपराओं का विकास हुआ। प्रत्येक कठपुतलियों का आग अलग रूप था। पौराणिक कथाओं, लोक कथाओं और स्थानीय किंवदंतियों के अनुसार कहानियों को अपनाया गया कठपुतली कला ने चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य और नाटक के तत्वों को आत्मसात् किया और कलात्मक अभियांति के अनूठे अवसरों का निर्माण किया। हालाँकि, समर्पित दर्शकों और वित्तीय सुरक्षा के अभाव ने आधुनिक कार रे कला के इस रूप के निरंतर पतन के मार्ग को प्रशस्त किया है।

पुतली मानव या पशुओं से मिलती-जुलती आकृतियाँ होती हैं जिन्हें पुतली कलाकार, डोरी, तार या छड़ के जरिए नियंत्रित करते हैं।

भारत की पुतली कला देश की संस्कृति का अभिन्न अंग है। पुतली कला के जरिए पुतलियों, लाइव संगीत, संकेतों और कथाओं का उपयोग करके विभिन्न कहानियों को अभिव्यक्त किया जाता है। पुतलियां आमतौर पर देवताओं और प्रसिद्ध हस्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनके योगदान को काव्य, नाटक और कहानी के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। इनका उपयोग शैक्षिक और मनोरंजन उद्देश्यों के लिए भी किया जाता है।

भारत में कठपुतली कला को व्यापक रूप से चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ प्रमुख उदाहरणों में साथ प्रत्येक की संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार दी गयी है:

  1. धागा कठपुतलियाँ
  2. छाया कठपुतलियाँ
  3. दस्ताना कठपुतलियाँ
  4. छड़ कठपुतलियाँ

 

  1. धागा कठपुतली

भामा कठपुतलियों या मैरियोनेट का भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं में प्रमुख स्थान है। धागा कठपुतलियों की विशेषताएँ इस प्रकार हैं: कठपुतलियाँ लकड़ी से तराशी गयीं सामान्यतः 8-9 इंच की लघु मूर्तियाँ होती हैं। प्रारम्भ में लकड़ी को रंगने और आँख, होंठ, नाक आदि जैसी अन्य मुखाकृतिक विशेषताओं का संयोजन करने के लिए ऑयल पेंट का प्रयोग किया जाता है। अंग बनाने के लिए शरीर के साथ लकड़ी के छोटे-छोटे पाइप लगाये जाते हैं। इसके बाद शरीर को रंगीन लघु पोशाक से बँका और सिला जाता है। यथार्थवादी अनुभूति देने के लिए लघु आभूषण और अन्य सामग्रियाँ संलग्न की जाती हैं।

धागा हाथ, सिर और शरीर की पीठ में छोटे छेद से जुड़ा होता हैं। इसके बाद इसे कठपुतली कलाकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है। भारत में धागा कठपुतली के कुछ लोकप्रिय उदाहरण हैं:

 

  • कठपुतली (राजस्थान)-

राजस्थान की परंपरागत सूत्र (string) कठपुतलियों को कठपुतली के रूप में जाना जाता है। इसका नाम ‘कठ’ यानी ‘लकड़ी’ और ‘पुतली’ यानी ‘गुड़िया’ से निकला है। कठपुतलियों को पारंपरिक उज्ज्वल राजस्थानी पोशाक पहनाई जाती है। इनका प्रदर्शन नाटकीय लोक संगीत के साथ होता है। कठपुतलियों की एक अनूठी विशेषता पाँवों का अभाव है। धागा कठपुतली कलाकार की उंगली से जुड़ा होता है।

ब. कंढेई (ओडिशा)-

ओडिशा की सूत्र कठपुतलियों को कंढेई के रूप में जाना जाता है। इन्हें हलकी लकड़ी से बनाया जाता हैं और लंबी स्कर्ट पहनाई जाती है। इन कठपुतलियों में अपेक्षाकृत अधिक जोड़ होते हैं, इस प्रकार कठपुतली कलाकार को अधिक लचीलापन मिलता है। धागे त्रिकोणीय आधार से जुड़े होते हैं। कढेई कठपुतली प्रदर्शन पर ओडिसी नृत्य का उल्लेखनीय प्रभाव है।

स. गोम्बेयाटा (कर्नाटक)-

यह कर्नाटक का पारंपरिक कठपुतली प्रदर्शन है। इन्हें यक्षगान रंगमंच के विभिन्न पात्रों के अनुसार तैयार और डिजाइन किया जाता है। इस कठपुतली कला की एक अनूठी विशेषता यह है कि इसमें कठपुतली को नचाने के लिए एक से अधिक कठपुतली कलाकारों की सहायता ली जाती है।

द. बोम्पालाट्टम (तमिलनाडु)-

बोम्पालाटम तमिलनाडु के क्षेत्र की स्वदेशी कठपुतली है। इसमें छड़ और धागा कठपुतली की विशेषताओं का संयोजन होता है। धागे कठपुतली नचाने वाले द्वारा सिर पर पहने जाने वाले लोहे के छल्ले से जुड़े होते हैं। बोम्मालाट्टम कठपुतलियाँ भारत में पायी जाने वाली सबसे बड़ी और भारी कठपुतलियाँ होती हैं. इनमें से कुछ की ऊंचाई 4.5 फुट जितनी बड़ी और वज़न 10 किलोग्राम का होता है। बोम्मालाट्टम रंगमंच के चार विशिष्ट चरण हैं- विनायक पूजा, कोमली, अमानट्टम और पुसेनकनट्टम।

  1. छाया कठपुतलियाँ-

 

भारत में छाया कठपुतली की समृद्ध परंपरा रही है, जो कि अब तक चल रही है। छाया कठपुतली की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

  • छाया कठपुतलियाँ चमड़े से काट कर बनायी गयीं समतल आकृतियाँ होती हैं।
  • चमड़े के दोनों ओर आकृतियों को एक समान चित्रित किया जाता है।
  • कठपुतलियाँ श्वेत स्क्रीन पर रखी जाती हैं। इसके पीछे से प्रकाश
  • डाला जाता है, जिससे स्क्रीन पर छाया बन जाती है।
  • आकृतियों को इस प्रकार चलाया जाता है कि खाली स्क्रीन पर बनने वाला छायाचित्र कहानी कहने वाली छवि बनाता है।

छाया कठपुतली के कुछ लोकप्रिय उदाहरण इस प्रकार हैं:

  • तोलपावा कुथु (केरल)- इसका प्रदर्शन चमड़े की कठपुतलियों का उपयोग कर किया जाता है और मुख्य रूप से इसका प्रदर्शन केरल के भद्रकाली मंदिरों में कुथुमाडम नामक एक विशेष मंच पर किया जाता है। यह रात भर चलने वाला चमड़े की कठपुतली का नृत्य है, जहाँ आमतौर पर कम्ब रामायण को प्रदर्शित किया जाता है। मंच के पीछे जलाये गये तेल के दीपक छाया बनाने में मदद करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति प्रवीं या 10वीं शताब्दी ईस्वी में हुई थी। कठपुतली क इस रूप से मुख्य रूप से नायर समुदाय जुड़ा हुआ है
  • चमाड्याचा बाहुल्य (महाराष्ट्र)- यह एक चमड़े की कठपुतली का रूप है, जहाँ रामायण के साथ-साथ पंचवटी (द्रौपदी की कहानी) के दृश्य मुख्य रूप से प्रदर्शित किये जाते हैं। इस कठपुतली प्रदर्शन से मुख्य रूप से महाराष्ट्र की ठाकर आदिवासी के य जुड़ा हुआ है।

स. तोगालु गोम्बेयाट्टा (कर्नाटक)- यह कर्नाटक का लोकप्रिय छाया रंगमंच है। तोगालु गोम्बेयाट्टा कठपुतलियों की एक अनूठी विशेषता सामाजिक स्थिति के आधार पर कठपुतली के आकार में भिन्नता है। यानी राजाओं और धार्मिक आकृतियों की विशेषतः बड़ी कठपुतलियाँ होती हैं, जबकि आम लोगों और नौकर-चाकरों को छोटी कठपुतलियों द्वारा दिखाया जाता है। इसका प्रदर्शन मुख्य रूप से किल्लेकयता समुदाय द्वारा किया जाता है।

द. रावणछाया (ओडिशा)- यह छाया कठपुतली में सबसे नाटकीय है और ओडिशा में मनोरंजन का लोकप्रिय रूप है। ये कठपुतलियाँ हिरण की त्वचा से बनी होती हैं और निर्भीक, नाटकीय मुद्राओं को दर्शाती हैं। इनमें कोई जोड़ नहीं होता है। लिहाजा यह अधिक जटिल कला बन जाती है। साथ ही वृक्षों और जानवरों के रूप में भी कठपुतलियों का प्रयोग होता है। इस प्रकार रावणछाया कलाकार (मुख्य रूप से भट समुदाय के लोग) गीतात्मक और संवेदनशील नाटकीय कथा का सृजन करते हुए अपनी कला में अत्यंत प्रशिक्षित होते हैं।

ई. थोलू बोम्पालाटा (आंध्र प्रदेश)-

यह आंध्र प्रदेश का छाया रंगमंच है। इसमें प्रदर्शन के साथ शास्त्रीय संगीत की पृष्ठभूमि होती है और यह महाकाव्यों और पुराणों की पौराणिक और भक्तिमय कथाओं के इर्द-गिर्द घूमता है। यह कठपुतलियाँ आकार में बड़ी होती हैं और दोनों ओर रँगी होती हैं।

  1. दस्ताना कठपुतलियाँ-

दस्ताना कठपुतलियों को आस्तीन, हाथ या हथेली की कठपुतलियों के रूप में भी जाना जाता है। ये पोशाक के रूप में लंबी, उड़ने वाली स्कर्ट पहने सिर और हाथों वाली छोटी आकृतियाँ होती हैं। यह कठपुतलियाँ सामान्यतः कपड़े या लकड़ी की बनी होती हैं, लेकिन काग़ज़ की कठपुतलियों के भी कुछ रूपांतर दिखाई देते हैं। कठपुतली नचाने वाला दस्ताने के रूप में कठपुतली पहनता है और अपनी तर्जनी से सिर को नचाता है। अंगूठे और बीच की उँगली का उपयोग करके दोनों हाथ चलाये जाते हैं जिसमे मूल रूप से निर्जीव कठपुतली को जीवन और अभिव्यक्ति मिलती है। सामन्यात: ड्रम या ढोलक की लयबद्ध ताल के साथ प्रदर्शन वाली दस्ताना कठपुतलियाँ सम्पूर्ण भारतवर्ष में लोकि है। भारत में रस्ताना कठपुतलियों का लोकप्रिय उदाहरण इस प्रकार हैं।

  • पावाकुथु (केरल)- यह केरल का पारंपरिक दस्ताना कठपुतली प्रदर्शन है। इसकी उत्पत्ति 18वीं सदी ईस्वी के आसपास हुई। इन कठपुतलियों को रंगीन दुप‌ट्टों, पत्रों और चेहरे के रंगों से सजाया जाता है। यह कथकली नृत्य शैली से आयधिक प्रभावित है। इसमें नाटक रामायण और महाभारत की कथाओं पर आधारित होते हैं।
  1. छड़ कठपुतलियाँ

छड़ कठपुतलियाँ दस्ताना कठपुतलियों के अपेक्षाकृत बड़ा रूपांतर हैं और स्क्रीन के पीछे से कठपुतली कलाकार छड़ी से इन्हें नियंत्रित करता है। यह मुख्य रूप से पूर्वी भारत में लोकप्रिय है। कुछ लोकप्रिय उदाहरण इस प्रकार हैं:

  • यमपुरी (बिहार)- यह बिहार की पारंपरिक छड़ कठपुतली है। कठपुतलियाँ सामान्यतः लकड़ी की बनी होती हैं और इनमें कोई भी जोड़ नहीं होता है। इन्हें लकड़ी के एक टुकड़े से तराशा जाता है और उसके बाद चमकदार रंगों से रंगा और सजाया जाता है।

ब. पुतुल नाच- यह बंगाल-ओडिशा-असम क्षेत्र का पारंपरिक छड़ कठपुतली नृत्य है। इसमें आकृतियाँ सामान्यतः 3-4 फुट लम्बी होती हैं और जात्रा के पात्रों की भाँति कपड़े पहने होती हैं। इनमें सामान्यतः तीन जोड़ होते हैं- कमर पर, गर्दन पा और कंधों पर। प्रत्येक कठपुतली कलाकार ऊँचे पर्दे के पीछे होता है। ये सभी अपनी कमर से जुड़ी छड़ी के माध्यम से एक-एक कठपुतली नियंत्रित करते हैं। कठपुतली कलाकार पर्दे के पीछे के चारों ओर चलता है और इसी प्रकार की गति कठपुतलियों को भी प्रदान करता है। प्रदर्शन के साथ हारमोनियम, झाँझ और तबला बजाने वाले 3-4 संगीतकारों का संगीतमय दल संगत देता है।

आदिवासी कठपुतली कला –

चदर बदर या चादर बंधनी- चदर बदर, जिसे संथाल कठपुतली के रूप में भी जाना जाता है, मुख्य रूप से साकार पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार और असम में संथाल समुदाय में प्रचलित एक आदिवासी कला है। जटिल कारीगरी से बनी, कठपुतलियाँ बांसयाल कड़ी से बनाई जाती हैं और ये लाभा 8 से 9 इंच लंबी होती हैं। कठपुतलियों के हाथ-पैर जटिल लीवर द्वारा नियंत्रित होते हैं, जिन्हें खेल दिखाने का चलाते हैं।

पुतली कला को पुनर्जीवित करने के लिए किए गए उपाय-

  • बड़े पैमाने पर मेलों का आयोजनः पुष्कर मेले जैसे बड़े पैमाने पर आयोजित मेलों ने पुतली कला को नया जीवन दिया है। इसने देश भर से आगंतुकों को आकर्षित किया है और कलाकारों को आय अर्जित करने में सहायक हुआ है।
  • केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाएंः सरकार द्वारा प्रायोजित कठपुतली कार्यशालाएं। शैक्षिक कार्यक्रम, कठपुतली उत्सव और कुछ योजनाएं कठपुतली कला को बढ़ावा देती हैं। संस्कृति मंत्रालय के तहत संगीत नाटक अकादमी द्वारा एक अनूठी पहल में पुतली और कई अन्य पारंपरिक कला रूपों को अब विशेषज्ञों द्वारा ऑनलाइन पढ़ाया जा रहा है जैसे- “दीक्षा”, और “अंतरंग” वेबिनार।
  • राज्य सरकार द्वारा प्रयासः पुतली कला को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार द्वारा विभिन्न प्रयास किए गए हैं। उदाहरण के लिए, कर्नाटक सरकार लोक कला मेलों और सांस्कृतिक त्योहारों में अपनी पुतली परंपराओं का प्रदर्शन करती है, खासकर बेंगलुरु में।
  • आधुनिक कहानियों का वर्णनः कठपुतली कलाकार आधुनिक कहानियों को सुनाना सीख रहे हैं और दर्शकों को आकर्षित करने के लिए राजनीतिक या सामाजिक व्यंग्य से भरे नाटकों का अभिनय कर रहे हैं। समाज को बालिकाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य और स्वच्छता के महत्व जैसे सामाजिक संदेश भी दिए जाते हैं ताकि आधुनिक विषयों के साथ कदम से कदम मिलाकर चला जा सके।

 

Share with friends !

Leave a Reply

error: Content is protected !!