महिला सुरक्षा के संवैधानिक दृष्टिकोण/महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून

  महिला सुरक्षा के संवैधानिक दृष्टिकोण:

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शोध सारांश-

प्रारंभ से ही विश्व में महिलाएं समाज का एक अभिन्न अंग हैं । भारतीय मनीषियों ने स्त्री को विभिन्न रूपों में माँ,बहन,भार्या, देवी आदि नाम देकर सम्मान दिया है। परंतु फिर भी महिलाओं की स्थिति न केवल भारत में अपितु विश्व में भी प्रारम्भिक काल से ही दयनीय रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ तब धीरे-धीरे भारतीय नारियों की स्थिति में अनेक दार्शनिकों व  समाज सुधारकों के अथक प्रयासों से परिवर्तन दिखाई दिए। परंतु फिर आजादी के 76 वें साल के बाद भी अधिकांश महिलाएं अपने संवैधानिक सुरक्षा अधिकारों से अनभिज्ञ एवं वंचित हैं। जिसके चलते वे हर क्षेत्र में कहीं न कहीं शोषण का शिकार होती चली जाती हैं। आज समाज के अंतिम पंक्ति में खड़ी उन समस्त भारतीय महिलाओं को उनके अधिकारों के विषय में जागरूक करने की महती आवश्यकता है।  भारतीय संविधान में महिलाओं की सुरक्षा तथा सम्मान के लिए  अनेक प्रावधान दिए गए हैं। प्रस्तुत शोध पत्र में महिलाओं के सुरक्षा संबंधी संवैधानिक अधिकार एवं सुरक्षा दृष्टिकोण पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का विनम्र प्रयास किया गया है।

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शब्द कुंजी- महिला सुरक्षा, संविधान, सम्मेलन, संवैधानिक अधिकार, विधिक अनुच्छेद, संवैधानिक दृष्टिकोण।

प्रस्तावना –मानव सभ्यता के विकास के साथ ही महिलाओं के अधिकारों एवं सुरक्षा में कमी आती गई। सामाजिक व्यवस्थाएँ, परम्पराएं एवं कुरीतियों ने महिलाओं के अधिकारों का हनन कर स्त्री-पुरुष के बीच में एक अव्यवहारिक लकीर खींच दी। नारी निर्माण की इस प्रक्रिया ने न केवल समाज में महिलाओं की स्थिति असमानता, शोषण तथा उत्पीड़न को जन्म ही नहीं दिया बल्कि समग्र राष्ट्रीय विकास को भी अवरुध्द कर दिया।  वह भी ऐसे समय में एक ओर जब हम समानता, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता जैसे सशक्त मूल्यों की बात आधुनिक भारत व विश्व के संदर्भ में करते हैं वहीं दूसरी ओर समाज में व्यावहारिक रूप से जड़ें जमा चुकी लैंगिक असमानता जैसे गंभीर बीमारी की अवधारणा को बनाए रखना या उसे अमल में लाना सभ्य समाज पर कलंक लगाता है| स्त्री पुरुष के बीच जैविक असमानता को सामाजिक असमानता के रूप मे स्वीकार कर लेना लैंगिक असमानता को जन्म देता है| भारतीय मनीषियों (वैदिक काल) द्वारा कहा गया है कि स्त्री तथा पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जहां एक के अभाव में विकास की कल्पना नहीं की जा सकती| जिस समाज में अर्धनारीश्वर जैसी परंपराओं का पालन किया जाता रहा है | हालांकि बाद में (लगभग 500 ईसा पू.) स्मृति काल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आना प्रारंभ हो गई।  और मध्यकाल आते तक महिलाओं की स्वतंत्रता व अधिकार सीमित कर दिए गए।  आज 21 वीं शताब्दी में लैंगिक असमानता जैसे भाव समाज के विकास में बाधक व नकारात्मक भाव पैदा कर रहा है | लैंगिक असमानता न केवल बेटा और बेटियों में भेद पैदा करते हैं बल्कि उनके आने वाले भविष्य के विकास में गतिरोध उत्पन्न करते हैं| और यही विभेदीकरण ही मुख्य जड़ है जो महिलाओं को सामाजिक असुरक्षा की भावना से ग्रसित कर लेता है।

महिला सुरक्षा के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात वैश्विक स्तर पर महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए वैश्विक पटल पर अनेक प्रयास किए गए जिसमें सर्वप्रथम 1946 में “संयुक्त राष्ट्र महिला हैसियत आयोग” की स्थापना की गई। 10 दिसंबर 1948 को मानवाधिकार की अवधारणा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित की गई- जिसमें कहा गया कि सम्पूर्ण विश्व के समस्त राष्ट्रों के प्रत्येक नागरिक को सम्मान पूर्वक जीवनयापन करने का अधिकार है, की बात कही गई। महिला अधिकारों की जागरूकता हेतु विश्व स्तर पर प्रमुख निम्न प्रयास किए गए-

  1. प्रथम विश्व महिला सम्मेलन – मैक्सिको- 1975
  2. द्वितीय विश्व महिला सम्मेलन – कोपेनहेगन – 1980
  3. तृतीय विश्व महिला सम्मेलन  – नैरोबी – 1985
  4. चतुर्थ विश्व महिला सम्मेलन – बीजिंग – 1995

महिला सुरक्षा के भारतीय संवैधानिक प्रावधान –

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 के अनुसार ‘‘भारत राज्य क्षेत्र के किसी ब्यक्ति को विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। ” समानता का तात्पर्य यहां पर यह है कि स्त्री और पुरुष में किसी प्रकार का लिंग भेद नहीं है तथा यह अधिकार स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से प्राप्त है । असमानता के इसी दृष्टिकोण को बदलने के लिए भारतीय संविधान में महिलाओं की सुरक्षा व अधिकारों की बात कही गई। जिनके मुख्य बिंदुओं को निम्नवत उल्लेखित किया गया है-

अनुच्छेद 15 – इस अनुच्छेद के अनुसार ‘‘राज्य केवल धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के बीच कोई विभेद नहीं करेगा‘‘ भारतीय संविधान में स्पष्ट है कि पुरुष एवं महिला को समान अधिकार प्रदान किये गये हैं, इतना ही इसी अनुच्छेद के खंड 3 में स्त्रियों के लिए विशेष व्यवस्था भी की गई है क्योंकि महिलाओं की स्वाभाविक प्रकृति के कारण उन्हें विशेष संरक्षण की आवश्यकता होती है।

अनुच्छेद – 19- इस में महिलाओं को स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है, ताकि वह स्वतंत्र रूप से भारत के क्षेत्र में आवागमन, निवास एवं व्यवसाय कर सकती है । स्त्री लिंग होने के कारण किसी भी कार्य से उनको वंचित करना मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना गया है । तथा ऐसी स्थिति में कानून की सहायता हो सकेगी ।

अनुच्छेद 23-24 – इसके द्वारा महिलाओं के विरूद्ध होने वाले शोषण को नारी गरिमा के लिए उचित नहीं मानते हुए महिलाओं की खरीद-ब्रिकी वेश्यावृति  के लिए जबरदस्ती करना, भीख मंगवाना आदि को दंडनीय माना गया है । इसके लिए सन् 1956 में ‘विमेन एंड गर्ल्स एक्ट’ भी भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया ताकि महिलाओं के विरूद्ध होने वाले सभी प्रकार के शोषण को समाप्त किया जा सके ।

अनुच्छेद 39 (क) – इसके अंतर्गत आर्थिक न्याय प्रदान करने हेतु में स्त्री को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार एवं अनुच्छेद 39 (द) में समान कार्य के लिए समान वेतन का उपबंध है।

अनुच्छेद 42 – इसमें महिला को विशेष प्रसूति अवकाश प्रदान करने की बात कही गई है।

अनुच्छेद 46- अनुच्छेद 46  इस बातपर बल देता है कि राज्य दुर्बल वर्गो के शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक अन्याय एवं सब प्रकार के शोषण से संरक्षा करेगा ।

अनुच्छेद 51 (क) (डं.) संविधान के भाग 4 के में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हमारा दायित्व है कि हम हमारी संस्कृति की गौरवशाली परंपरा के महत्व को समझे तथा ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो कि स्त्रियों के सम्मान के खिलाफ हो ।

अनुच्छेद 243 (द) (3)-  इसमें प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे गये स्थानों की कुल संख्या के 1/3 स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित रहेगें और चक्रानुक्रम से पंचायत के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में आबंटित किये जाएगें ।

अनुच्छेद 325 – इसके अनुसार निर्वाचक नामावली में महिला एवं पुरुष दोनों को ही समान रूप से सम्मिलित होने का अधिकार प्रदान किया गया है, अनुच्छेद 325 द्वारा संविधान निर्माताओं ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि भारत में पुरुष और स्त्री को समान मतदान अधिकार दिये गये हैं ।

महिला सुरक्षा के विधिक उपबंध एवं सुरक्षा अधिकार –

महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों एवं अत्याचारों के निवारण के लिए राज्य द्वारा विभिन्न अधिनियम पारित किये गये हैं, ताकि महिलाओं को उनका अधिकार मिल सकें एवं सामाजिक भेदभाव से उनकी सुरक्षा हो सकें । भारतीय दंड संहिता 1860 के प्रावधानः- भा.द.सं. में भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचार एवं निर्दयता के विरूद्ध व्यवस्था की गई है ।

  1. धारा 292 से 294 तहत विशिष्टता और सदाचार को प्रभावित करने वाले मामलों पर रोक लगाई गयी है । इसके अनुसार अगर कोई स्त्रियों की नंगी तस्वीरें प्रदर्शित करता है अथवा क्रय-विक्रय करता है अथवा भौंडा प्रदर्शन करता है तो ऐसे व्यक्ति को दो वर्ष तक की सजा एवं 2 हजार रुपया तक जुर्माना अथवा दोनों ही सजाओं का प्रावधान है ।
  2. धारा 312 से 318 में गर्भपात कारित करना, अजन्में शिशुओं को नुकसान पहुंचाने, शिशुओं को अरक्षित छोड़ने और जन्म छिपाने के विषय में दंड का प्रावधान किया गया है ।
  3. धारा 354 के तहत अगर कोई व्यक्ति किसी स्त्री की लज्जा भंग करता है अथवा करने के उद्देश्य से आपराधिक बल प्रयोग करता है तो उसे 2 वर्ष की सजा अथवा जुर्माना अथवा दोनों से दंडित किये जानो का प्रावधान है ।
  4. धारा 361 के अनुसार यदि किसी महिला की आयु 18 वर्ष से कम है और उसे कोई व्यक्ति उसके विधिपूर्व संरक्षक की संरक्षकता से बिना सम्मति के या बहला अथवा फुसलाकर ले जाता है तो वह व्यक्ति व्यपहरण का दोषी होगा । तथा धारा 363 से 366 में दंड का प्रावधान किया गया है ।
  5. धारा 372 के तहत अगर किसी 18 वर्ष से कम आयु की महिला को किसी वेश्यावृति के प्रयोजन के लिए बेचा जाने पर दोषी व्यक्ति को 10 वर्ष तक की सजा व जुर्माना अथवा दोनों की सजा दी जा सकेगी ।
  6. धारा 375 में बलात्कार को परिभाषित किया गया है एवं धारा 376 में बलात्कार के लिए दंड का प्रावधान है ।
  7. धारा 498 (अ) में प्रावधानित किया गया है कि अगर कोई पति अथवा उसका कोई रिश्तेदार विवाहित पत्नी के साथ निर्दयतापूर्वक दुर्व्यवहार करता है अथवा दहेज को लेकर यातना देता है तो न्यायालय उसे 2 साल तक की सजा दे सकता है ।
  8. धारा 509 के तहत अगर कोई व्यक्ति स्त्री की लज्जा का अनादर करने के आशय से कोई शब्द कहता है कोई ध्वनि या कोई अंग विक्षेप करता हे या कोई वस्तु प्रदर्शित करता है अथवा कोई ऐसा कार्य करता है जिससे किसी स्त्री की एकान्तता पर अतिक्रमण होता हे तो ऐसा व्यक्ति एक वर्ष तक की सजा एवं जुर्माना अथवा दोनों से दंडित किया जायेगा ।

महिला सुरक्षा के लिए पारित किये गये विभिन्न अधिनियम-

हमारे देश में विभिन्न समयों में प्रचलित कुरीतियों एवं कुप्रथाओं को मुक्त कराने हेतु अनेक अधिनियम पारित किये गये है तथा महिलाओं को सुरक्षा एवं अधिकार देने हेतु भी अधिनियम पारित किये गये है, जो निम्नवत हैं –

  1. राज्य कर्मचारी बीमा अधिनियम 1948
  2. दि प्लांटेशनस लेबर अधिनियम 1951
  3. परिवार न्यायालय अधिनियम, 1954
  4. विशेष विवाह अधिनियम, 1954
  5. हिन्दु विवाह अधिनियम 1955
  6. हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (संशोधन 2005)
  7. अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम 1956
  8. प्रसूति प्रसूविधा अधिनियम 1961 (संशोधित 1995)
  9. दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961
  10. गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम 1971
  11. ठेका श्रमिक (रेग्युलेशन एण्ड एबोलिशन) अधिनियम 1976
  12. दि इक्वल रियुनरेशन अधिनियम 1976
  13. आपराधिक विधि (संशोधन) अधिनियम 1983
  14. कारखाना (संशोधन) अधिनियम 1986
  15. इन्डिकेंट रिप्रेसेन्टेशन आफ वुमेन एक्ट 1986
  16. कमीशन आफ सती (प्रिवेन्शन) एक्ट, 1987
  17. घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम 2005
  18. बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006

इसके अतिरिक्त महिलाओं की दशा सुधारने हेतु भारत सरकार द्वारा सन् 1985 में महिला एवं बाल विकास विभाग की स्थापना तथा 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई तथा देश में अतंर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाने लगा । भारत सरकार द्वारा वर्ष 2001 को महिला सशक्तीकरण वर्ष भी घोषित किया गया । इसी प्रकार विभिन्न योजनाओं एवं कार्यक्रमों का क्रियान्वयन भी सरकार द्वारा समय-समय पर किया गया है । जिनमें प्रमुख है – बालिका समृद्धि योजना, किशोरी शक्ति योजना, बालिका बचाओं योजना, इंदिरा महिला योजना, सरस्वती सायकल योजना, स्वयंसिद्धा योजना, महिला समाख्या  इत्यादि शामिल।

निष्कर्ष-

सारांश रूप में कहना यह उचित होगा कि सर्वप्रथम हमें अपने परिवार में भेदभाव जैसी इस गंभीर बीमारी से छुटकारे के लिए संस्कार पैदा करने होंगे| प्रत्येक परिवार में अविभावक अपने संतानों में भेवभाव की भावना का विकास न होने दें| उनके दिए गए संस्कार में समानता का भाव होना अत्यंत आवश्यक है, निश्चित ही परिवार में दी गई सीख व्यावहारिक रूप से समाज में भी लागू होता दिखाई देगा| तभी आगे चलकर समाज में हमारी महिलाएं सुरक्षित व सम्मान की दृष्टि से देखी जाएंगी। संविधान में इतने वृहद नियम व कानूनी प्रावधान दिए गए हैं, परंतु दुर्भाग्य का विषय यह है कि महिलाओं की सामाजिक स्थिति एवं समाज का नजरिया अथवा दृष्टिकोण अभी भी बदला नहीं है। और जितना बदला है वह स्वस्थ्य राष्ट्र की प्रगति के लिए पर्याप्त नहीं है। संवैधानिक सूची व उसके आधिकारिक प्रावधानों के साथ-साथ सभी प्रकार के भेदभाव या असमानताएं चलती रहेंगी लेकिन असल बदलाव तो तभी संभव हैं जब पुरुषों की सोच को बदला जाये। ये सोच जब बदलेगी, तब मानवता का एक हिस्सा स्त्री-पुरुष के साथ समानता का व्यवहार करना शुरु कर दें न कि उन्हें अपना अधीनस्थ समझे। यहाँ तक कि केवल पुरुषों को ही नहीं बल्कि महिलाओं को भी वर्तमान संस्कृति के अनुसार अपनी पुरानी परंपरागत सोच को बदलनी होगी और जानना होगा कि वो भी इस शोषणकारी एकाश्म सत्तात्मक व्यवस्था का एक अंग बन चुकी हैं और पुरुषों को खुद पर हावी होने में सहायता कर रहीं हैं। तभी एक समतामूलक स्वतंत्र समाज और राष्ट्र की कल्पना की जा सकेगी| स्वतंत्रता व समानता की स्थापना प्रजातन्त्र के निर्णायक तत्व हैं,  जो कि व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करते हैं, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष ! यही भाव मानव कल्याण में वृद्धि कर सकेगा| और तभी हमारी महिलाएं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सुरक्षित और समृद्ध हो सकेंगी।

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