13वीं और 14वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत ने मंगोल समस्या से कैसे निपटा?
How did the Delhi Sultanate deal with the Mongol problem in the the 13 and 14 cent?
मंगोल आक्रमण
13वीं और 14वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत ने मंगोल समस्या से कैसे निपटा?
How did the Delhi Sultanate deal with the Mongol problem in the the 13 and 14 cent?
मंगोल आक्रमण
प्रस्तावना – मंगोल जाति मंगोलिया की बहादुर लड़ाकू जाती थी। उन्होंने मध्य एशिया में आतंक मचा रखा था। मंगोलों ने ख़्वारिज़्म साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया। मंगोलों ने मध्य एशिया के मुस्लिम राज्यों को भी छिन्न -भिन्न कर दिया और अफगानिस्तान, गजनी, पेशावर सहित उनकी भूमि पर अधिकार कर लिया। इसके परिणामस्वरूप दिल्ली में सुरक्षित नहीं रहे पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की समस्या पैदा हो गई दिल्ली सल्तनत काल में मंगोलों ने भारत पर आक्रमण किए जिसका दिल्ली सल्तनत की पश्चिमी सीमाएं सुरक्षित नहीं रही। दिल्ली सुल्तानों के सामने पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की विकट समस्या पैदा हो गई। दिल्ली सल्तनत काल में मंगोलों ने भारत पर अनेक बार आक्रमण किए जिसका दिल्ली सल्तनत पर गंभीर प्रभाव पड़ा। विशेष रुप से 13वीं और 14वीं शताब्दी में मंगोलों की समस्या से दिल्ली सल्तनत किस प्रकार छुटकारा पाया इसका विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है।
मंगोलों की समस्या से छुटकारा पाने के लिए दिल्ली सल्तनत के विभिन्न सुल्तानों ने अलग-अलग रणनीतियां बनाई जिसमें प्रमुख रूप से निम्नलिखित हैं।
1. इल्तुतमिश के काल में
2. बलबन के काल में
3. अलाउद्दीन ख़िलजी के काल में
4. मोहम्मद तुगलक के काल में
मुख्य रूप से सुल्तानों ने मंगोलों के आक्रमण के लिए रणनीतियां बनाई जो निम्न हैं-
इल्तुतमिश तथा मंगोल संबंध – 1220 ईस्वी तक अपने महान नेता चंगेज खां के नेतृत्व में मंगोलों ने ख़्वारिज़्म की साम्राज्य का पूर्णतः नाश कर दिया और उसके शासक अलाउद्दीन महमूद को कैस्पियन सागर की ओर खदेड़ दिया जहां उसकी मृत्यु हो गई। अलाउद्दीन का उत्तराधिकारी जलालुद्दीन अकबर ने भी भय के कारण खुरासान से गजनी को भाग गया। चंगेज खान ने तालकन में उसका पीछा किया इसलिए वह गजनी छोड़कर हमारे देश की सीमाओं की ओर भाग आया। सिंधु के तट पर मंगोलों ने उसे घेर लिया इसलिए वह गजनी छोड़कर हमारे देश की सीमाओं की ओर भाग गया दंगों ने उसे घेर लिया पीछे मुड़कर उसे युद्ध करना पड़ा किंतु पराजित होकर उसने अपने परिवार के लोगों को एक नाव में भेज दिया किंतु वे सिंधु में डूब गए। घोड़े को लेकर एक नदी में कूद पड़ा और पार करके पश्चिमी किनारे पर जा पहुंचा और वहां से भागकर सिंधु सागर दोआब में शरण ली। चंगेज खान 3 महीने तक नदी के दाएं किनारे पर ठहरा किंतु यह भाग्य की बात थी कि उसने उसे पार करके भगोड़े राजकुमार का पीछा नहीं किया और ना ही दिल्ली सल्तनत की स्वाधीनता का ही उल्लंघन किया।
यदि उसने ऐसा करने का विचार किया होता तो मध्य एशिया के शक्तिशाली तथा पुराने मुस्लिम राज्यों की भांति भारत की नव स्थापित तुर्की सल्तनत भी मंगोलों के एक ही प्रहार से चकनाचूर हो गई होती , किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इल्तुतमिश ने मंगोल नेता से किसी प्रकार का समझौता कर लिया था और संभवत भगोड़े मंगबर्नी को शरण ना देने का वचन दे दिया था। कुछ भी कारण रहा हो उस समय ख़्वारिज़्म के राजकुमार को दूर रखने की बुद्धिमतापूर्ण नीति का अनुसरण किया जिससे कि मंगोलों को किसी प्रकार भी उत्तेजना ना मिले। सुल्तान के मित्रता पूर्ण आचरण के कारण हो चंगेज खान ने भारत में होकर काराकोरम को लौटने के अपने इरादे को, जिस के संबंध में उसने इल्तुतमिश से आज्ञा मांगी थी, उसे त्याग दिया और इस प्रकार दिल्ली सल्तनत एक महान संकट से बच गई। चंगेज खान 1222 ईसवी के शीतकाल में हिंदूकुश होकर अपने देश को लौट गया।
बलबन की सीमा नीति- बलबन के शासन काल के प्रारंभिक दिनों में तथा मुल्तान के प्रांतों पर दिल्ली का अधिकार पुनः स्थापित हो गया था, किंतु उत्तर पश्चिम पंजाब से मंगोलों को नहीं हटाया जा सका लाहौर को अवश्य उनके चंगुल से मुक्त करके मुल्तान और देपालपुर के सीमांत प्रदेश में सम्मिलित कर लिया गया। अपने शासन के प्रारंभ में बलबन ने भटिंडा, देपालपुर तथा लाहौर को मिलाकर एक सैनिक प्रांत बना दिया। और शेर खान को उसका सूबेदार नियुक्त किया । शेर खान की मृत्यु के उपरांत मुल्तान, सिंधु तथा देपालपुर सुल्तान के सबसे बड़े पुत्र शहजादा मोहम्मद और शेष भाग जिसमें सूनम तथा समाना सम्मिलित दूसरे पुत्र गुगरा खा के सुपुर्द कर दिए गए। इस प्रकार बलबन ने समस्त उत्तर पश्चिमी सीमा प्रदेश की रक्षा और प्रबंध का भार अपने पुत्रों को ही सौंपा समाना और सुनम के सूबेदार को सुल्तान तथा सिंध के सूबेदार के अधीन कार्य करना पड़ा था।
बलबन ने उत्तर पश्चिमी सीमा पर एक दुर्ग श्रृंखला का निर्माण किया और अनुभवी पठान सैनिकों को उसकी रक्षा के लिए नियुक्त किया। सीमा रक्षा के लिए 17 -18 हजार की एक अलग सेना रखी गई और इस प्रदेश में नियुक्त किया गया । सल्तनत की शेष सेना भी सदैव संकट का मुकाबला करने के लिए तैयार रहती थी। इस प्रशंसनीय प्रबंध के कारण सीमाएं इतनी सबल हो गई कि यद्यपि बलबन के राज्य काल में मंगोलो ने अनेक जोरदार आक्रमण किए किंतु आगे बढ़ने में उन्हें सफलता नहीं मिली। 1279 ई में मंगोलों ने अपने आक्रमण पुनः प्रारंभ कर दिए और सुनम तक के प्रदेश को रौंद डाला । मुल्तान से शहजादा मोहम्मद, समाना से बुगरा खान और दिल्ली से मुबारक बख्तियार की फौजों ने मिलकर शत्रु को संपूर्ण पराजित कर दिया और पश्चिमी पंजाब के बाहर खदेड़ दिया । मंगोलो का भय जाता रहा किंतु यह थोड़ी ही समय के लिए था। 1285 में तैमूर खान के नेतृत्व में उन्होंने पुनः लाहौर और देपालपुर पर हमला किया। शहजादा मोहम्मद उनका मुकाबला करने के लिए आगे बढ़ा किंतु फरवरी 1286 ई में युद्ध करते हुए मारा गया। इस भयंकर विपत्ति के बावजूद बलबन का प्रबंध इतना सफल सिद्ध हुआ कि मंगोल और आगे ना बढ़ सके और पीछे लौटने पर बाध्य हुए । मंगोलों के आक्रमणों के भय का बलबन की गृह तथा बाह्य नीति पर गंभीर प्रभाव पड़ा । उसे अत्यधिक भारी खर्च पर एक विशाल सेना ही नहीं रखनी पड़ी बल्कि देश के स्वतंत्र शासकों की भूमि को विजय करने का विचार भी उसे त्यागना पड़ा।
कैकुबाद के समय में मुल्तान तथा निचले पंजाब पर मंगोलों के दो आक्रमण हुए दूसरे हमले के दौरान में आक्रमणकारियों ने मुल्तान से लाहौर तक के प्रदेश को रौंद डाला। किंतु वे आगे न बढ़ सके और दोनों बार उन्हें भारी क्षति उठा कर पीछे लौटना पड़ा। बलबन ने सल्तनत की सीमाओं की रक्षा का ठोस प्रबंध कर रखा था । उसकी वजह से अथवा इसलिए कि मंगोलों और दिल्ली सल्तनत के बीच राजनीतिक समझौता चला आ रहा था अथवा इन दोनों ही कारणों से मंगोलों ने गुलाम वंश के अंत तक दिल्ली पर कभी आक्रमण नहीं किया। फिर भी उनके सिहासन आरूढ़ होने के समय में उन्होंने अपनी नीति बदल दी। पहले उनका उद्देश्य केवल लूटमार करना था अधिक से अधिक मुल्तान, सिंध अथवा पंजाब को जीतना चाहते थे। किंतु अब वे दिल्ली को जीतने का प्रयत्न करने लगे पंजाब को आधार बनाकर उन्होंने सल्तनत की राजधानी पर लगातार आक्रमण आरंभ कर दिए।
अलाउद्दीन खिलजी के समय में मंगोलों के आक्रमण-
अलाउद्दीन खिलजी को अपने शासनकाल के प्रारंभ में ही मंगोलों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। आक्रमणकारी दिल्ली तक आ पहुंचे उसने बड़ी योग्यता और दूरदर्शिता का परिचय दिया । सर्वप्रथम उसने अपने साम्राज्य की पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की व्यवस्था की । उसने अनेक दुर्गों का निर्माण कराया और पुराने दुर्गों का जीर्णोद्धार कराया उन पर अनुभवी और साहसी सैनिकों को नियुक्त कर दिया राजधानी की सुरक्षा की भी विशेष व्यवस्था की। सीरी में एक नया दुर्ग बनवाया और दिल्ली के दुर्ग की भी मरम्मत करवाई वहां पर सुरक्षा के लिए सुयोग्य सेना नियुक्त कर दी थी । उसने सुरक्षा के लिए खाईयां खुदवाई , लकड़ी की दीवारें बनवाई और पूरे राज्य में गुप्तचरों का जाल बिछा दिया। अलाउद्दीन को अनेक भयंकर आक्रमणों का सामना करना पड़ा किंतु उसने उनका दृढ़ता से प्रतिरोध किया और उन्हें पीछे धकेल दिया। उसने एक दर्जन से अधिक आक्रमण को विफल कर दिया। उसके काल में प्रमुख मंगोल आक्रमण को निम्नवत वर्णन किया जा रहा है।
1. अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में मंगोलों का पहला आक्रमण 1296 में हुआ अलाउद्दीन ने इस आक्रमण का मुकाबला करने के लिए अपने मित्र जफरखां को भेजा उसने जालंधर के पास मंगोलों का मुकाबला किया और उनको मार भगाया दिया।
2. हम्मीर दाऊद खां का आक्रमण मंगोलों का दूसरा आक्रमण 1297 ट्रांस-आक्सियान के शासक अमीर दाऊद खा ने किया। उत्तर पश्चिमी सीमा की सुरक्षा का भार अलाउद्दीन के सेनापति जफर खान पर था सुल्तान के प्रसिद्ध सेनानायक उलुग खान तथा जफर खान दोनों ने मिलकर आक्रमणकारियों का बड़ी वीरता के सामना किया और उनको पराजित किया। मंगोलों के नेता तथा उनके 1700 अनुयायियों को बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिया।
3. कुतलुग ख्वाजा का आक्रमण- मंगोलों का तीसरा अक्टूबर 1299 से में कुतुलुग ख्वाजा के नेतृत्व में हुआ। उसके अधीन दो लाख सेना थी इस बार मंगोलों का उद्देश्य लूटमार करना नहीं बल्कि भारत विजय करना था ।उसने दिल्ली के निकट आकर घेरा डाल दिया सुल्तान के सामने यह घोर संकट था। उसने अपनी सेना को आक्रमणकारियों पर तुरंत आक्रमण करने का आदेश दिया सुल्तान की सेनाओं का नेतृत्व उपस्थित सेनानायक जफर खाने किया उसने आक्रमणकारी सेनाओं को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया यद्यपि मंगोलों ने जफर खां को युद्ध में मार डाला किंतु फिर भी आक्रमणकारी भयभीत होकर अपने देश को भाग गए । जफर खां की वीरता का मंगोल सैनिकों पर गंभीर प्रभाव पड़ा । कहा जाता है कि वह अपने घोड़ों को पानी पिलाते समय कहा करते थे कि क्या तुमने जफर खान को देख लिया है जो प्यास बुझाने में डरते हो । जफर खान की मौत पर अलाउद्दीन ने कोई शोक नहीं मनाया क्योंकि वह जफर खां को अधिक महत्वकांक्षी तथा खतरनाक समझता था।
4. तारगी का आक्रमण- मंगोलों का चौथा आक्रमण अपने नेता तारगी के नेतृत्व में 1303 में हुआ। उस समय अलाउद्दीन चित्तौड़ का घेरा डाले हुए था तारगी 12000 सैनिकों को लेकर दिल्ली के निकट आ धमका ।वह इतनी तीव्र गति से आया कि प्रांतीय सूबेदार भी अपनी सेनाएं लेकर दिल्ली नहीं पहुंच सके। अलाउद्दीन को भी सीरी के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी और वह महीनों तक वही घिरा रहा। मंगोलों ने आसपास के प्रदेश को लूटा और दिल्ली शहर के अंदर तक घुस गए। किंतु 3 महीने तक संघर्ष करने के उपरांत तारगी अपने देश को लौट गया। वह दिल्ली पर अधिकार नहीं कर सका। वास्तविकता यह भी कि नगर का घेरा डालकर उस पर अधिकार करने की कला का उसे अनुभव नहीं था। इसी कारण वह असफल रहा अलाउद्दीन ने दिल्ली पहुंचकर मंगोलों के भावी आक्रमणों से दिल्ली की रक्षा करने के लिए किलेबंदी की और उसकी रक्षा करने के लिए शक्तिशाली सेनाए रखी।
5. अली बेग का आक्रमण – मंगोलों का पांचवा आक्रमण चंगेज खां के एक वंशज अली बेग के नेतृत्व में हुआ उसने सीमा रक्षकों से बचते हुए अमरोहा तक पहुंचने में सफलता प्राप्त कर ली। अलाउद्दीन ने मलिक काफूर तथा गाजी मलिक को आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए भेजा। दोनों सेनापतियों ने मंगोलों को घेर लिया जबकि वे लूट का धन लिए हुए वापस जा रहे थे। मंगोलों की पराजय हुई और उनकी नेता बंदी बना लिए गए उनके दो प्रमुख नेताओं को सुल्तान की सेनाओं ने मार डाला उनके अन्य बंदी नेताओं को भी मार कर उसकी लाशों को सीरी के दुर्ग की दीवारों में चुनवा दी गईं। इस सफलता के बाद अलाउद्दीन ने 1305 ई में गाजी मलिक को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया।
6. कूबक का आक्रमण- मंगोलों का छठा आक्रमण कूबक के नेतृत्व में 1306 में किया गया। गाजी मलिक ने आक्रमणकारियों को पराजित कर कूबक सहित 50 हजार सैनिकों को बंदी बना लिया उनका वध कर दिया गया और उसके स्त्री पुरुषों को गुलाम बना लिया।
7. इकबाल मंद का आक्रमण – मंगोलों का अंतिम आक्रमण 1307 से 08 ईसवी में हुआ । उनकी सेना का नेता इकबाल मंद नामक व्यक्ति था। किंतु सिंधु नदी के पास सुल्तान की सेना ने उसे घेर लिया और मार डाला। बहुत बड़ी तादाद में आक्रमणकारी बंदी बनाकर दिल्ली भेज दिए गए जहां उनका वध कर दिया गया। इस आक्रमण के बाद अलाउद्दीन के शासनकाल में फिर कभी मंगोलों का आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ।
मोहम्मद तुगलक के काल में मंगोल आक्रमण-
मोहम्मद तुगलक के समय में मंगोल नेता तर्माशरी एक विशाल सेना लेकर भारत में घुस आया । तर्माशरी के आक्रमण के समय में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है कुछ विद्वानों का यह मत है कि तर्माशरी भारत के सेनापति अमीर हसन से पराजित होकर भारत की ओर भाग गया था। उसका उद्देश्य यह था कि भारत की सुन्नी शासक की सहायता लेकर शिया विजेताओं को पराजित करता । मोहम्मद ने उसका बड़ा स्वागत किया और उसे धन देकर वापस कर दिया। वह सुल्तान के व्यवहार से बहुत खुश हुआ और वह सदैव सुल्तान का मित्र बना रहा। किंतु कुछ इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं उनका कहना है कि तर्माशरी ने भारत पर आक्रमण किया और लाहौर से लेकर दिल्ली तक के प्रदेश को लूटा। सुल्तान अपनी योजनाओं की अपनी योजनाओं की असफलता के कारण जर्जर हो गया था इसलिए वह आक्रमणकारी का सामना करने के लिए सक्षम नहीं था सुने सीमाओं को रक्षा की रक्षा का भी प्रबंध नहीं किया था अतः उसने मंगोल नेता को धन दौलत देकर लौटा दिया यह उसकी दुर्बलता थी।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भीषण मंगोल आक्रमण अलाउद्दीन के शासनकाल में हुए थे। और वे दो बार दिल्ली तक पहुंच गए थे, लेकिन अलाउद्दीन से उनका सामना हुआ जिससे दृढ़तापूर्वक उनका सामना किया गया। अलाउद्दीन की साधन संपन्नता, दृढ़ता व सैनिक शक्ति से ही मंगोल संकट हल हुआ और मंगोलों को असफल होना पड़ा। सौभाग्य से जफर खान और गाजी मलिक जैसे सेनापतियों की सेवाएं अलाउद्दीन को प्राप्त हुई जिनसे मंगोल भयभीत हो गए थे। बलबन की नीति के अनुसार अलाउद्दीन ने दुर्ग श्रृंखला का निर्माण किया और एक पृथक सीमा सेना का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त मंगोलों के प्रति सुल्तान ने आक्रमक नीति भी अपनाई। प्रतिवर्ष मंगोल क्षेत्रों पर गाजी मलिक आक्रमण करके उन्हें आतंकित रहता था। इस नीति का परिणाम यह हुआ कि मंगोलों ने 1307 ई के बाद आक्रमण नहीं किया।