मुगल साम्राज्य – बाबर एवं हुमायूं के प्रमुख युद्ध/Major battles of Mughal Empire- Babur and Humayun

मुगल साम्राज्य – बाबर एवं हुमायूं के प्रमुख युद्ध/Major battles of Mughal Empire- Babur and Humayun

प्रस्तावना (Introduction)

मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 ई. को तुर्किस्तान के फरगना नामक स्थान पर हुआ था। उसका पिता उम्र शेख मिर्जा तैमूर का वंशज था और उसकी माता चंगेज खां की वंशज थी। जब बाबर मात्र 11 वर्ष और कुछ महीने का था तब 1494 ई. में वह फरगना का शासक बन गया था। इसके बाद वह संघर्षों से जूझते हुए काबुल पर

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अधिकार कर लिया । इसके बाद वह खोए हुए प्रदेशों को पाने के लिए अनेक प्रयास किए, परंतु भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया। हर बार उसे असफलता ही हाथ लगी। विजय लालसा के लिए उसने भारत की ओर अपने कदम बढ़ाए। परिणायस्वरूप उसने 1519 से 1524 ई के दौरान 4 बार सिंध पार करके पंजाब पर आक्रमण किया, परंतु लाहौर से आगे बढ़ने में सफल नहीं हो सका। नवंबर 1525 ई. में बाबर भारत पर आक्रमण के लिए पूरी तरह तैयार हुआ।  

 बाबर के आक्रमण एवं युद्ध से पूर्व भारत की राजनैतिक स्थिति-

              जिस समय बाबर ने भारत पर आक्रमण करने की योजना बनाई उस दौरान भारत अस्थिरता एवं अराजकता के वातावरण से गुजर रहा था। आपसी मतभेदों एवं क्षणिक स्वार्थों ने दिल्ली शासन की जड़ों को खोखला कर दिया था। 1451 ई.में बहलोल खां लोदी दिल्ली का सुल्तान बना। उसकी मृत्यु के पश्चात 1489 ई. में उसके पुत्र सिकंदर लोदी ने दिल्ली की बागडोर संभाली। नवंबर 1517 ई. में सुल्तान की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र इब्राहीम खां लोदी दिल्ली की सिंहासन पर बैठा। बाबर को दौलत खां लोदी और आलं खां ने भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया । 1526 ई -1530 ई के बीच उसने प्रमुख चार युद्ध किए, सर्वप्रमुख था पानीपत का प्रथम युद्ध। इस यद्ध के परिणाम ने भारत के इतिहास की दिशा व दशा दोनों बदल दी। विद्यार्थियों ! इससे पूर्व के व्याख्यान में आपने दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत लोदी वंश का अध्ययन किया है। प्रस्तुत व्याख्यान में आज हम मुगल शासकों के अंतर्गत बाबर एवं हुमायूँ के द्वारा लड़े गए प्रमुख युद्धों एवं भारतीय राजनैतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करेंगे ।

पानीपत का प्रथम युद्ध – 1526 ई.  : (बाबर और इब्राहीम खां लोदी)-

तुलनात्मक सैन्य शक्ति –

         बाबर 12,000 बहादुर, प्रशिक्षित और अनुशासित सैनिकों की फौज लेकर इब्राहीम लोदी का मुकाबला करने के लिए दिल्ली की तरफ बढ़ा। इब्राहीम के पास 1,00,000 सैनिक थे, परंतु अनुभव व प्रशिक्षण की कमी थी। दोनों सेनाओं के बीच 21 अप्रैल, 1526 ई. को पानीपत के मैदान में युद्ध हुआ। बाबर ने तुलगमा रणनीति अपनाई। बाबर ने प्रथम बार भारत में तोपों का प्रयोग किया। उसके प्रमुख तोपची उस्ताद अली और मुस्तफा थे।  डा. ए. एल. श्रीवास्तव के अनुसार, “बाबर की सेना में 25 हजार से कम सैनिक नहीं हो सकते क्योंकि 12 हजार सैनिक उसके काबुल से आए थे। इसके बाद उसने गजनी, लाहौर, बदख्खां की सेनाएं भी आकार मिल गईं। इब्राहिम के पास अधिकतम प्रभावशील सैनिक 50 हजार से अधिक नहीं हो सकते थे, क्योंकि तुलगमा में 10,000 सैनिकों से एक लाख सैनिकों से नहीं घेरा जा सकता था। ”   

वास्तविक संघर्ष-

        बाबर यह जानता था कि उसको अपने से कई गुना अधिक सैन्य -शक्ति वाली सेना के साथ लड़ना होगा, जिसको सीधे आक्रमण के द्वारा पराजित करना संभव नहीं होगा। 21 अप्रैल को प्रात: लोदी की सेना लगभग 4 मील की दूरी 3 घंटे में तय करके बाबर की सेना के निकट पहुँच गई, परंतु बाबर की सेना के आगे बैलगाड़ियों से बनी मोरचेबन्दी को देख लोदी की सेना अचानक रुक गई, जिससे आगे बढ़ती हुई सेना का संगठन एक भीड़ के रूप में परिवर्तित होकर बाबर की सेना के दाहिने पार्श्व में एकत्रित हो गया।

उसी समय बाबर ने सुल्तान की सेना पर “ तुलगमा पद्धति” के द्वारा दोनों पार्श्वो पर आक्रमण कर दिया। व्यापक टर्नींग मूवमेंट अपनाकर बाबर की सेना ने लोदी की सेना को दबाते हुए पीछे से भयंकर बाण वर्षा शुरू करदी। इस दौरान लोदी की सेना यह निश्चित नहीं कर पाई कि ऐसी स्थिति में आगे की ओर आक्रमण करना चाहिए अथवा पीछे की तरफ हट जाना चाहिए। और वे बाबर की सेना से घिर गए। इसी दौरान बाबर ने तोपों के द्वारा तेजी से फायर आरंभ कर दिया जिससे हस्ती व अश्व सेना पैदल सेना को रौंदते हुए पीछे की ओर मुड़कर अपनी ही सेना को कुचलने लगी।

कमजोर पड़ती हुई सेना को देखकर लोदी ने दाएं पार्श्व पर 5,000 सेना के साथ  बाबर की सेना पर जोरदार हमला किया, परंतु अंत में बाबर ने मध्य भाग से लोदी की सेना के मध्य भाग पर आक्रमण करने का आदेश दिया, भीषण संघर्ष के बाद बाद बाबर विजयी हुआ। लोदी की सेना बुरी तरह से नष्ट हो गई।

इस विषय में प्रो. एस. एम. जाफ़र ने लिखा है कि –“ इस युद्ध से भारतीय इतिहास में नए युग का आरंभ हो गया। लोदी वंश के स्थान पर मुगल वंश की स्थापना हुई। ”

खानवा का युद्ध –(1527 ई.) – बाबर तथा राणा सांगा (संग्रामसिंह):

खानवा युद्ध की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि –

खानवा का युद्ध भारतीय इतिहास में काफी महत्वपूर्ण है। इस युद्ध के विषय में राजस्थान के ऐतिहासिक काव्य संग्रह “वीर विनोद”  तथा “मेवाड़ का संक्षिप्त इतिहास”  पांडुलिपि  में राणा सांगा और बाबर के इस युद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है। खानवा नामक स्थान राजस्थान में भरतपुर के निकट एक ग्राम है, जो फतेहपुर सीकरी से 10 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है।

खानवा का युद्ध 17 मार्च, 1527 ई. में राजपूत नरेश राणा सांगा (संग्रामसिंह) और मुगल वंश के संस्थापक बाबर के मध्य लड़ा गया। राणा सांगा दो मुस्लिमों -इब्राहिम लोदी और बाबर के युद्ध में तटस्थता की नीति अपनाई। सांगा का विचार था कि लुटेरा बाबर लूट-मार करके वापस चला जाएगा, तब कमजोर हुए लोदी साम्राज्य को हटाकर दिल्ली में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना वे कर सकेगा। परंतु जब सांगा ने देखा कि बाबर लोदी को हराकर मुगल साम्राज्य की नीव रख चुका है तब बाबर से युध्द के लिए तैयारी करने लगा और बाबर को मार भगाने का निश्चय किया। उसने गौगरीन से सेना बुलाकर इकट्ठा कीं। उसने राजपूतों का एक संघ तैयार किया किया। अनेक अफ़गान जैसे महमूद लोदी, हसन खां मेवाती और सिलाहदी ने राणा का साथ दिया। राणा सांगा राजस्थान का विख्यात एवं शक्तिशाली एक कुशल वीर, साहसी योद्धा के साथ ही एक कुशल राजनीतिज्ञ भी था, जिनकी रगों में मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की  शक्ति थी। वह पूर्व में अनेक युद्धों का विजेता रहा था। जिसके कारण आसपास के मुस्लिम शासक भी उसके शौर्य से भयभीत थे।

उधर बाबर को भी ज्ञात था कि राणा सांगा के रहते हुए भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना कर पाना संभव नहीं। अत: उसने भी राणा सांगा से युध्द करने का निश्चय किया। जब बाबर के सैनिकों को राणा सांगा की वीरता व शक्तियों का पता चला तो उनके हौसले पस्त हो गए और वे बाबर से काबुल लौट जाने के लिए कहा। क्योंकि उस समय मोहम्मद शरीफ नामक ज्योतषी ने बाबर की हार का की भविष्यवाणी की थी, तो क्रोधित होकर बाबर ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया और शराब न पीने की प्रतिज्ञा ली। उसने अपने सैनिकों से कहा – “अगर तुम वापस लौटे तो कायर कहलाओगे, और अगर युद्ध किया तो हर हाल में तुम्हें प्रशंसा मिलेगी। अगर जीते तो राज्य मिलेगा और अगर मृत्यु को प्राप्त हुए तो जन्नत। ”  इस प्रकार बाबर ने  कुरान की शपथ दिलाकर उसे जिहाद का नाम दिया, और अपने सैनिकों के अंदर जोश भरा। 

वास्तविक संघर्ष –

17 मार्च, 1527 ई. क राजपूत सेना द्वारा प्रात: साढ़े नौ बजे आक्रमण आरंभ हो गया, जिसमें राजपूत अश्वारोही सेना ने मुगल सेना पर आक्रमण किया। जैसे ही जोर-शोर के साथ विशाल राजपूत सेना आगे बढ़ी, बाबर की सेना ने अपनी तोपों के द्वारा जोरदार फायर किया, जिससे निकलने वाला बिजली सा प्रकाश राजपूत सेना ने पहली बार देखा। इस प्रकाश के साथ ही विशाल पत्थर का गरम गोला विनाश करते हुए तेजी से गिरा। जिसका परिणाम यह हुआ कि राजपूत सैनिक आश्चर्यचकित तथा भयभीत हो गए कि इस गोले ने एक बार में ही अनेक सैनिक शहीद कर गए। राजपूतों की हाथी सेना में इन गोलों का बुरी तरह आतंक छा गया। फिर भी सैनिक अपनी गौरवमयी परंपरा के साथ अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते रहे तथा बाबर की सेना के दोनों पार्श्वो पर अपना आक्रमण अभियान तेजी के साथ जारी रखा।

जब मुगलों की सेना में दोनों ओर से दबाव बढ़ने लगा तब बाबर ने दोनों ओर नए सैनिकों को लगाया, परंतु राजपूत सेना बड़ी बहादुरी के साथ उनका मुकाबला कर रही थी। इसी दौरान बाबर ने मुस्तफा अली के नेतृत्व में अपने तोपखाने द्वारा राजपूत सेना पर फायर करने का आदेश दिया, जिससे युद्ध और भी भयंकर हो गया। बाबर ने स्वयं अपने अधीन सैनिकों सहित राजपूत सेना पर तेजी के साथ धावा बोल दिया तथा अपनी सेना की तोपों तथा दस्ती बंदूकों को भी आगे  बढ़कर सामना करने के लिए लगाया। दूसरी ओर बाबर का सामना करने के लिए स्वयं राणा सांगा तेजी के साथ आगे बढ़े। तभी गोली की भांति एक तीर (तीर-ए-तुफ़ंग) राजपूत सेनानायक राणा जी को घायल कर गया, जिससे वे वहीं मूर्छित हो गए। राजपूत सैनिकों ने धैर्य एवं साहस का सही परिचय दिया तथा राणा सांगा को युद्ध क्षेत्र से हटा लिया, ताकि उनका उपचार किया जा सके। तब राजपूत सेना की बागडोर सरदार झाला के हाथों आ गई, सुनकर राजपूत सैनिक हतोत्साहित हो गए। परंतु वीरता पूर्वक सामना करते रहे।

अंत में बाबर की सेना ने आगे बढ़कर राजपूत सैनिकों पर अपना प्रहार तीव्र कर दिया, जिससे राजपूत सैनिक पीछे हटने के लिए मजबूर हो गए। बाबर की सेना ने बयाना, अलवर तथा मेवाड़ तक राजपूत सैनिकों का पीछा किया तथा 5 किमी दूर स्थित राणा सांगा के कैंप पर अपना अधिकार जमा लिया। बाबर की इस सफलता के साथ ही यह युद्ध निर्णयात्मक हो गया।  इस युद्ध के कारण बाबर की गतिविधियों का केंद्र काबुल के स्थान पर भारत बन गया। इसी के साथ अपने नए राज्य को सुदृढ़ करने के प्रयास आरंभ हो गए। और राजपूत सैन्य शक्ति का ह्रास हो गया।

3. चँदेरी का युद्ध –1528 ई.  – (बाबर तथा मेदिनीराय) :

खानवा का युध्द जीतने के पश्चात बाबर मालवा की तरफ बढ़ा। चँदेरी मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड (भोपाल के पास) में स्थित राजपूतों का एक गढ़ था। उस समय चँदेरी पर राणा का एक सशक्त सामंत मेदिनीराय शासन कर रहा था। सर्वप्रथम बाबर ने मेदिनीराय के पास अधीनता स्वीकार करने के लिए संधि प्रस्थाव भेजा, चँदेरी के बदले शमशाबाद का दुर्ग देने का वचन दिया लेकिन मेदिनीराय ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तत्पश्चात 10 जनवरी, 1528 ई.  को बाबर ने चँदेरी पर आक्रमण कर दिया और दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। राजपूतों ने तीव्रगति  से मुगल सेना पर भयंकर प्रहार किया और मारकाट मचा दी लेकिन पराजय  का सामना करना पड़ा। उसे विवश होकर जौहर का रास्ता अपनाना पड़ा। स्त्रियाँ चिता में जलकर भस्म हो गईं। दुर्ग पर बाबर का अधिकार हो गया।

4. घाघरा का युद्ध – 1529 ई.- (बाबर तथा महमूद लोदी(अफ़गान) :

राजपूतों से निपटने के बाद बाबर ने बंगाल और बिहार के अफगानों का दमन करने का निश्चय किया खानवा के युद्ध में इब्राहीम लोदी का भाई, महमूद लोदी बच गया था। उसने बिहार तथा अवध पर अधिकार करके अपनी शक्ति को दृढ़ बना लिया था। उसने कन्नौज से शाही दुर्ग रक्षकों को मार भगाया था। महमूद लोदी बाबर की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए प्रयत्नशील था। महमूदशाह को बंगाल का शासक नुसरतशाह सहायता दे रहा था। बाबर ने नुसरतशाह को संधि प्रस्ताव भेजा परंतु उसने ध्यान नहीं दिया। परिणामस्वरूप बाबर का महमूद लोदी और नुसरत शाह से 6 मई, 1529 ई. को घाघरा के तट पर युद्ध हुआ। जिसमें उसने अफ़गान शक्ति को कुचल कर रख दिया और मुगल राज्य स्थापित किया। घाघरा का युद्ध उत्तरप्रदेश के गोरखपुर के निकट घाघरा नदी के तट पर लड़ा गया था। घाघरा का युद्ध बाबर द्वारा लड़ा गया अंतिम युद्ध एवं मध्यकालीन इतिहास का प्रथम युद्ध था जिसे जल और थल दोनों जगह लड़ा गया।

इस प्रकार बाबर पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार, काबुल, कंधार और बदख्खां जैसे बड़े क्षेत्र का शासक बन गया, परंतु बाबर राज सुख न भोग सका। 26 दिसंबर, 1530 ई को बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गई, जिसे पहले आराम बाग में दफनाया गया बाद में उसे काबुल ले जाया गया।

हुमायूँ द्वारा लड़े गए प्रमुख युद्ध :

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि –बाबर के 4 पुत्रों (हुमायूँ, कामरान, अस्करी और हिंदाल) में हुमायूँ सबसे बड़ा था।  हुमायूँ का जन्म 1508 ई में काबुल में हुआ था। बादशाह बनने से पूर्व वहबदख्खांका सूबेदार रह चुका था और उसनेअनेक युद्धों में बाबर की सहायता की थी।  बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ 1530 ई में बादशाह बना । हुमायूँ जिस समय बादशाह बना उसके समक्ष अनेक समस्याएं थीं। राजनीतिक अस्थिरता थी। महमूद लोदी, नुसरत शाह और शेरशाह अपना-अपना प्रभुत्व बढ़ाने में लगे हुए थे और शक्तिशाली हो गए थे। राजपूत शक्तियां भी संगठित हो रही थीं। हुमायूँ जैसे ही शासक बना सर्वप्रथम उसने 1531 ई में कालिंजर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया और संधि कर ली परंतु यह हुमायूँ की भूल थी। इसके पश्चात उसने 1533 ई में अफगानों के विरुद्ध देवरा के युद्ध 1532 ई में उन्हे परास्त किया आगे उसने शेरशाह के विरुद्ध चुनारगढ़ का घेराव डाला। शेरशाह ने समर्पण का बहाना किया और हुमायूँ ने सैनिक घेराव उठा लिया जो कि हुमायूँ की दूसरी भयंकर भूल थी।  हुमायूँ अभी अफगानों की गतिविधियों में उलझा हुआ था और वह ध्यान हटाकर आगरा के लिए रवाना हुआ।  उसी समय गुजरात में बहादुर शाह उसके विरुद्ध आक्रामक नीति बना रहा था।

दूसरी तरफ शेरशाह ने बंगाल पर अधिकार कर लिया और गौर पर डेरा डाल दिया। इस समय हुमायूँ ने चुनारगढ़ पर पुन: अधिकार कर लिया साथ ही बंगाल पर अभी अधिकार कर लिया। इस दौरान शेरशाह अपने परिवार और खजाने सहित रोहतास गढ़ में आ गया। हुमायूँ बंगाल में भी अपना समय बर्बाद किया। बरसात में सैनिकों को मलेरिया हो गया और वे मरने लग गए। हुमायूँ पुन: आगरा प्रस्थान कर लिया।

चौसा का युद्ध – (26 जून, 1539 ई ) – हुमायूँ तथा शेरशाह सूरी :

लौटते हुए हुमायूँ को शेरशाह ने चौसा तक आगे बढ़ने दिया और यहाँ रोककर युद्ध की तैयारी करने लगा। दोनों सेनाएं तीन माह तक आमने-सामने डटी रहीं लेकिन हुमायूँ के पास कहीं से कोई मदद नहीं पहुँच सकी। दूसरी तरफ शेरशाह ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली। बरसात होते ही हुमायूँ की लश्कर में पानी भर गया। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए 26 जून, 1539 ई में गंगा पार की और हुमायूँ पर आक्रमण कर दी। हुमायूँ ने निजाम नामक भिश्ती की सहायता से अपनी जान बचाया और आगरा पहुंचा। इस युद्ध में हमायूं की सम्पूर्ण सेना नष्ट हो गई।  चौसा में विजय के साथ ही शेरशाह बंगाल और बिहार का स्वामी बन गया। 

बिलग्रिम (कन्नौज) का युद्ध – (17 मई, 1540 ई. )- हुमायूँ तथा शेरशाह सूरी :

इस युद्ध में हुमायूँ ने अफगानों का जमकर मुकाबला  किया। हुमायूँ के दोनों भाई, हिंदाल और अस्करी बहुत बहादुरी से लड़े, परंतु मुगलों के हिस्से में पराजय ही आई। हुमायूँ अपने निर्वासन काल में हिंदाल के आध्यात्मिक गुरु मीर अली की पुत्री हमीदा बानो से विवाह किया । कालांतर में इसी से अकबर का जन्म हुआ। 23 जुलाई, 1555 ई में हुमायूँ एक बार फिर से दिल्ली के तख्त पर बैठा। किन्तु वह बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सका। एक दिन हुमायूँ दीनपनाह भवन में स्थित पुस्तकालय (शेर-ए-मण्डल) की सीढ़ियों से उतरते हुए गिर गया और जनवरी 1556 ई हुमायूँ की मृत्यु हो गई। इस संदर्भ में लेनपुल ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि “ हुमायूँ जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाते हुए अपनी जान दे दी।

भारतीय राजनैतिक व्यवस्थाएं-  

 राजत्व सिद्धांत– भारत में मुगल कालीन राजत्व सिद्धांत शरीयत (कुरान और हदीस का सम्मिलित नाम) के आधार पर था। बाबर ने राज व्यवस्था संबंधी विचार प्रकट करते हुए कहा है कि बादशाही से बढ़कर कोई बंधन नहीं है। बादशाह के लिए एकांतवास या आलसी जीवन उचित नहीं है। बाबर ने “बादशाह” की उपाधि धारण करके मुग़ल बादशाहों को खलीफा के नाममात्र के आधिपत्य से मुक्त कर दिया। अब वे किसी विदेशी सत्ता अथवा व्यक्ति के अधीन नहीं रह गए।

आगे हम देखते हैं कि हुमायूँ बादशाह को “पृथ्वी पर खुदा का प्रतिनिधि” मानता था। उसके अनुसार सम्राट अपनी प्रजा की उसी प्रकार रक्षा करता है जिस प्रकार खुदा (ईश्वर) पृथ्वी के समस्त प्राणियों की रक्षा करता है।

इसी प्रकार आईं-ए-अकबरी में अकबर के राजत्व सिद्धांत की विवेचना की गई है उसके अनुसार अकबर ने स्वयं को इस्लामी कानून के बारे में अंतिम निर्णायक घोषित करके बादशाह की स्थिति को और श्रेष्ठ बना दिया। अकबर राजतन्त्र को धर्म एवं सम्प्रदाय के ऊपर मानता था और उसने रूढ़िवादी इस्लामी सिद्धांत के स्थान पर  “सुलह-कुल” की नीति अपनायी। जबकि औरंगजेब ने राजतन्त्र को इस्लाम का अनुचर बना दिया।

 तत्कालीन भारतीय राजनैतिक व्यवस्था नौकरशाही पद्धति पर आधारित थी। राजनैतिक व्यवस्था के अंतर्गत प्रशासन को केन्द्रीय व प्रांतीय व्यवस्था में बाँटा गया था। विद्यार्थियों! आइए केन्द्रीय प्रशासन के अंतर्गत नियुक्त पद एवं पदाधिकारियों का अध्ययन करते हैं-

मुगलकालीन उच्च अधिकारी : 

1. दीवान-ए-वजारत- लगान, अर्थव्यवस्था,  राज्य की आय-व्यय, मंत्रियों के कार्यों की  देखरेख 

2. दीवान-ए-आरिज- सेना की भर्ती, रसद, शिक्षा, संगठन की देखरेख 

3. दीवान- ए- इंशा – बादशाह के आदेशों को लिखना, डाक संबंधी कार्य 

4. दीवान-ए-बरीद – गुप्तचर विभाग 

5. दीवान-ए-कजा – न्याय विभाग (काजी -उल- कुजात)

6. दीवान-ए-रिसालत – विदेश विभाग 

उपरोक्त नियुक्त अधिकारियों के द्वारा तत्कालीन भारतीय राजनैतिक व्यवस्थाओं को सुचारु रूप से संचालित करने में सहायता ली जाती थी। साम्राज्य के सुदृढीकरण के लिए समय-समय पर अनेक कार्य किए गए।

सारांश-

 Summary / सारांश

सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि मध्य एशिया के अन्य असंख्य आक्रमणकारियों की तरह बाबर भी भारत की समृद्धि की ख्याति सुनकर आकर्षित हुआ। इसी के मध्येनजर उसने महत्वपूर्ण क्रमश: 4 युद्ध पानीपत का प्रथम युद्ध, खानवा, चँदेरी तथा घाघरा का युद्ध बाबर के द्वारा लड़े गए जिसमें उसे अपार सफलता मिली और यहाँ की राजनैतिक परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए मुगल साम्राज्य की नीव रख दिया। आगे उसका उत्तराधिकारी हुमायूँ के द्वारा भी अनेक आक्रमण किए गए जिनमें महत्वपूर्ण चौसा तथा बिलग्रीम का युद्ध, शामिल हैं । हालांकि इन दोनों युद्धों में उसे हार का सामना करना पड़ा परिणामस्वरूप द्वितीय अफ़गान शासक के रूप में दिल्ली की गद्दी पर शेरशाह सूरी लगभग 5 वर्ष तक शासन की बागडोर संम्भाली।  

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

     
 

 

        

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 Summary / सारांश
 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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