प्राचीन भारत में चिकित्सा विज्ञान / pracheen bharat mein chikitsa vigyaan

प्राचीन भारत में चिकित्सा विज्ञान

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प्रस्तावना –

यद्यपि प्राचीन भारत में मानव माध्यमिक ज्ञान पर अधिक जोर देते थे परंतु वे सांसारिक जीवन में व्यावहारिक ज्ञान को अनदेखा नहीं करते थे इसी के मध्येनजर उन्होंने विज्ञान जगत के अनेक पहलुओं जैसे- नक्षत्र विज्ञान, गणित, रसायन, भौतिक विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया। मुनाका उपनिषद में उल्लेखित है कि वैदिक कालीन विद्वानों का मानना था कि आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए पहले सांसारिक विद्या प्राप्त करना आवश्यक है। जिसके लिए वे विज्ञान सीखने में रुचि बढ़ाने लगे।

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 यूं तो वैदिक काल से ही भारतीय चिकित्सा पध्दती अपनाई गई थी परंतु उसका वास्तविक विकास चरक एवं सुश्रुत के द्वारा संभव हुआ। उन्होंने चिकित्सा विज्ञान पर महत्वपूर्ण दो ग्रंथ लिखीं। पहला चरक संहिता तथा दूसरा सुश्रुत संहिता। ये ग्रंथ अथर्ववेद के 1000 वर्ष बाद रची गई। चरक संहिता बौद्धकाल से भी पूर्व की है। चरक संहिता के महत्व को दर्शाते हुए पी. सी. राय ने कहा है कि – “ चरक की पुस्तकें पढ़ने से ऐसा लगता है कि वह संसार के चिकित्सा विज्ञान विशेषज्ञों की सभा में बैठे हों जो हिमालय क्षेत्र में की जा रही हो क्योंकि जो कृति उन्होंने लिखी हैं वो इस प्रकार की है कि जैसे चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञों की कोई सभा चल रही हो।’  

समय के अनुरूप चिकित्सा विज्ञान का भी अत्यधिक विकास हुआ। आयुर्वेद चिकित्सा की स्वदेशी प्रणाली है जिसे प्राचीन भारत में विकसित किया गया था। आयुर्वेद शब्द का शाब्दिक अर्थ है अच्छे स्वास्थ्य और जीवन की लंबी उम्र का विज्ञान। यह प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति न केवल रोगों के उपचार में बल्कि रोगों के कारणों और लक्षणों का पता लगाने में भी मदद करती है। यह स्वस्थ के साथ-साथ बीमारों के लिए भी एक मार्गदर्शक है। यह स्वास्थ्य को तीन दोषों में संतुलन के रूप में परिभाषित करता है, और रोगों को इन तीन दोषों में गड़बड़ी के रूप में परिभाषित करता है। जड़ी-बूटियों की मदद से किसी बीमारी का इलाज करते हुए, इसका उद्देश्य जड़ों पर प्रहार करके बीमारी के कारण को दूर करना है। आयुर्वेद का मुख्य उद्देश्य स्वास्थ्य और दीर्घायु रहा है। यह हमारे ग्रह की सबसे पुरानी चिकित्सा प्रणाली है।

आयुर्वेद पर एक ग्रंथ, आत्रेय संहिता, दुनिया की सबसे पुरानी चिकित्सा पुस्तक है।

चरक संहिता  –

चरक को आयुर्वेदिक चिकित्सा का जनक और सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है। सुश्रुत, चरक, माधव, वाग्भट्ट और जीवक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक चिकित्सक थे।

 क्या आप जानते हैं कि आयुर्वेद हाल ही में पश्चिमी दुनिया में बहुत लोकप्रिय हो गया है? यह एलोपैथी नामक आधुनिक चिकित्सा प्रणाली पर इसके कई लाभों के कारण है, जो पश्चिमी मूल की है।

चरक को प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान का जनक माना जाता है। वह कनिष्क के दरबार में राज वैद्य (शाही चिकित्सक) थे। उनकी चरक संहिता चिकित्सा पर एक उल्लेखनीय पुस्तक है।

इसमें बड़ी संख्या में बीमारियों का वर्णन है और उनके कारणों की पहचान करने के तरीके के साथ-साथ उनके उपचार की विधि भी बताती है। उन्होंने सबसे पहले पाचन, चयापचय और प्रतिरक्षा के बारे में बात की, जो स्वास्थ्य और इसलिए चिकित्सा विज्ञान के लिए महत्वपूर्ण है। चरक संहिता में बीमारी का इलाज करने के बजाय बीमारी के कारण को दूर करने पर अधिक जोर दिया गया है। चरक आनुवंशिकी के मूल सिद्धांतों को भी जानते थे। क्या आपको यह दिलचस्प नहीं लगता कि हजारों साल पहले भारत में चिकित्सा विज्ञान इतनी उन्नत अवस्था में था।

सुश्रुत संहिता –

चरक संहिता की अपेक्षा अधिक नियमबद्ध और वैज्ञानिक है। इसे आधुनिक माना जाता है। चरक संहिता ने दवाओं के विषय में ज्ञान दिया गया है। जबकि सुश्रुत संहिता में शल्य क्रिया के विषय में जानकारी दी गई है। आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त और कफ जैसे विकारों पर केंद्रित उपचार बताया गया है।

शल्य क्रिया की जानकारी प्राचीन भारत में प्रचलित थी। वे लोग हाथ-पैर काटना, पेट की चीर-फाड़ करके आंतों की परेशानी देखना, पथरी निकालना और खोपड़ी के विषय में उल्लेख मिलते हैं । जब जवान लड़की बकिसपाला की एक टांग नहीं होने पर चिकित्सकों ने उसकी लोहे की टाँग लगाई। सुश्रुत और बंगभट्ट एक बहुत अच्छा चीरफाड़ करने के नियम प्रस्तुत करते हैं। जिसमें इसके उपयोग के लिए मुख्य रूप से चाकू, सुई,कैंची, चिमटी, सीरिन्ज आदि थे।

सुश्रुत शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में अग्रणी थीं। उन्होंने सर्जरी को “उपचार कला का उच्चतम विभाजन और कम से कम भ्रम के लिए उत्तरदायी” माना।उन्होंने एक मृत शरीर की मदद से मानव शरीर रचना का अध्ययन किया। सुश्रुत संहिता में छब्बीस प्रकार के ज्वर, आठ प्रकार के पीलिया तथा बीस प्रकार के मूत्र रोग सहित 1100 से अधिक रोगों का उल्लेख है। 760 से अधिक पौधों का वर्णन किया गया है। सभी भागों, जड़, छाल, रस, राल, फूल आदि का प्रयोग किया जाता था। दालचीनी, तिल, मिर्च, इलायची, अदरक आज भी घरेलू उपचार हैं।

 सुश्रुत संहिता में विस्तृत अध्ययन के उद्देश्य से शव के चयन एवं संरक्षण की विधि का भी वर्णन किया गया है। एक बूढ़े व्यक्ति या एक गंभीर बीमारी से मरने वाले व्यक्ति के मृत शरीर को आमतौर पर अध्ययन के लिए नहीं माना जाता था। शरीर को पूरी तरह से साफ करने और फिर एक पेड़ की छाल में संरक्षित करने की जरूरत थी। फिर इसे एक पिंजरे में रखा गया और नदी के एक स्थान पर सावधानी से छिपा दिया गया। वहां नदी की धारा ने उसे नरम कर दिया। सात दिनों के बाद इसे नदी से हटा दिया गया। फिर इसे घास की जड़ों, बालों और बांस से बने ब्रश से साफ किया गया। जब यह किया जाता था, तो शरीर के प्रत्येक आंतरिक या बाहरी भाग को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था।

सुश्रुत का सबसे बड़ा योगदान राइनोप्लास्टी (प्लास्टिक सर्जरी) और नेत्र शल्य चिकित्सा (मोतियाबिंद को हटाने) के क्षेत्र में था। उन दिनों नाक और/या कान काटना एक आम सजा थी। इन या युद्धों में खोए हुए अंगों की बहाली एक महान आशीर्वाद था। सुश्रुत संहिता में इन क्रियाओं का बहुत ही सटीक चरण-दर-चरण वर्णन है। हैरानी की बात यह है कि सुश्रुत द्वारा अपनाए गए कदम आश्चर्यजनक रूप से प्लास्टिक सर्जरी करते समय आधुनिक सर्जनों के समान हैं।

प्राचीन भारतीय शल्य क्रिया के उपचार यंत्र :

सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा में प्रयुक्त 101 यंत्रों का भी वर्णन मिलता है। कुछ गंभीर ऑपरेशन किए गए जिनमें गर्भ से भ्रूण को निकालना, क्षतिग्रस्त मलाशय की मरम्मत करना, मूत्राशय से पथरी निकालना आदि शामिल हैं।

शरीर में रक्त संचार की जानकारी भारतीय चिकित्सक प्राचीन काल से ही जानते थे, जबकि यूरोपीय विलियम हार्ले ने 17 वीं शताब्दी में इसकी खोज की थी। मनुष्य के बुखार, चेचक, क्षयरोग आदि के विषय में जानकारी व उपचार भारत में पूर्व से ही परिचित थे।

बौद्ध वैज्ञानिक नागार्जुन प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने शीशे से कज्जली में दवाई तैयार की। चीनी यात्री हवेनसांग ने अपनी यात्रा के दौरान नागार्जुन की औषधियों के विषय में प्रशंसा की है। और कहा है कि नागार्जुन बौद्ध ऐसे औषध विज्ञानी हैं जिनकी बनाई एक गोली खाकर मनुष्य सैकड़ों वर्ष तक जीवित रहा और न तो उसके मस्तिष्क का कुछ हुआ और न ही उसके चेहरे पर कोई परिवर्तन दिखाई दिया।

योग एवं ध्यान-

 और पतंजलि योग का विज्ञान प्राचीन भारत में आयुर्वेद के एक संबद्ध विज्ञान के रूप में विकसित किया गया था ताकि शारीरिक और मानसिक स्तर पर बिना दवा के उपचार किया जा सके। योग शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की कृति ‘योगत्र’ से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है “इंद्रियों के बाहरी विषयों से अलग करके मन को आंतरिक स्व से जोड़ना”।अन्य सभी विज्ञानों की तरह इसकी जड़ें वेदों में हैं। यह चित्त को परिभाषित करता है अर्थात किसी व्यक्ति की चेतना के विचारों, भावनाओं और इच्छाओं को भंग करना और संतुलन की स्थिति प्राप्त करना। यह उस शक्ति को गति प्रदान करता है जो चेतना को दिव्य बोध के लिए शुद्ध और उत्थान करती है। योग शारीरिक भी है और मानसिक भी। शारीरिक योग को हठयोग कहा जाता है। आम तौर पर, इसका उद्देश्य एक बीमारी को दूर करना और शरीर को स्वस्थ स्थिति बहाल करना है। राजयोग मानसिक योग है। इसका लक्ष्य शारीरिक मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक संतुलन प्राप्त करके आत्म-साक्षात्कार और बंधन से मुक्ति है। एक ऋषि से दूसरे ऋषि को मुख द्वारा योग का संचार किया गया। इस महान विज्ञान को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का श्रेय पतंजलि को जाता है। पतंजलि के योग सूत्र में ओम् को ईश्वर का प्रतीक बताया गया है। वह ओम् को एक ब्रह्मांडीय ध्वनि के रूप में संदर्भित करता है, जो लगातार ईथर के माध्यम से बहती है, पूरी तरह से केवल प्रबुद्ध के लिए जानी जाती है। योग सूत्रों के अलावा, पतंजलि ने चिकित्सा पर एक काम भी लिखा और पाणिनी के व्याकरण पर काम किया जिसे महाभाष्य कहा जाता है।

प्राचीन भारत नें बीमार व्यक्ति की सेवा निस्वार्थ भाव से की जाने की सलाह इन चिकित्सा संहिताओं में उल्लेखित किया गया है। इसके साथ-साथ वैद्य लोग पशुओं की भी चिकित्सा में पारंगत थे। रोगी व बूढ़े पशुओं की उचित देखभाल का प्रावधान भी चिकित्सा शास्त्रों में वर्णन किया गया है।

सारांश- औषधि शास्त्र का सैद्धांतिक पक्ष तो गुप्त काल में प्रबल हुआ परंतु औषधि ज्ञान में अधिक वास्तविक प्रगति नहीं हुई। 6 वीं शता। में वाग्भट्ट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अस्ताङ हृदय की रचना की। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में आयुर्वेद का विद्वान चिकित्सक धन्वंतरि था। नवनीतकम नामक आयुर्वेद ग्रंथ की रचना भी इसी काल में हुई। पालकप्या नामक पशु चिकित्सक ने हसत्यार्युवेद नामक ग्रंथ की रचना की जो कि हाथियों से संबंधित रोगोपचार से संबंधित था। प्राचीन भारत नें बीमार व्यक्ति की सेवा निस्वार्थ भाव से की जाने की सलाह इन चिकित्सा संहिताओं में उल्लेखित किया गया है। इसके साथ-साथ वैद्य लोग पशुओं की भी चिकित्सा में पारंगत थे। रोगी व बूढ़े पशुओं की उचित देखभाल का प्रावधान भी चिकित्सा शास्त्रों में वर्णन किया गया है।

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