आचार्य कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित षाड्गुण्य नीति की वर्तमान परिपेक्ष्य में प्रासंगिकता

 

आचार्य कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित षाड्गुण्य नीति की वर्तमान परिपेक्ष्य में प्रासंगिकता

प्रस्तावना- एतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व तत्कालीन तक्षशिला विश्वविद्यालय के आचार्य कौटिल्य द्वारा क्रियांवित उत्तम राजव्यस्था, प्रशासनिक कार्यकुशलता एवं सुदृढ़ सैन्य विधान परवर्ती युगों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी। किसी भी राज्य की एकता, अखंडता, स्वतंत्रता एवं सम्प्रभुता के स्थायित्व के लिए दूरदर्शी व स्पष्ट नीतियों का निर्धारण अति आवश्यक है जिसके सफल क्रियान्वयन पर ही सम्बंधित राज्य का अस्तित्व टिका रहता है। देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार समस्याओं एवं चुनौतियों की प्रकृति एवं स्वभाव में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। आचार्य कौटिल्य ने सुरक्षागत सभी चुनौतियों के समाधान हेतु अनेक उपाय बताए हैं जो आज भी प्रासंगिक, प्रेरणादायी एवं व्यवहारिक हैं। कौटिल्य द्वारा विदेश नीति पर आधारित प्रसिध्द षाड्गुण्य नीति के माध्यम से राजा को अपनी शक्तियों के क्रियांवयन के बारे में दिशा-निर्देशित किया गया है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास के वर्तमान दौर में सुरक्षा खतरे एवं चुनौतियों में बदलाव आया है जो स्वाभाविक हैं। बावजूद इसके, वर्तमान समय में राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय पटल पर जो सुरक्षा विपत्ति या खतरे दिखाई दे रहे हैं उनका मूल स्वरूप ठीक वैसा ही है जैसा आचार्य कौटिल्य ने इंगित किया है। अर्थात आचार्य कौटिल्य ने जो नीतियां प्रतिपादित किये हैं वे राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सुदृढ़ीकरण व वर्तमान सुरक्षा के लिए व्यवहारिक हैं। जिनका तर्कसंगत मूल्यांकन करना आवश्यक है।

'; } else { echo "Sorry! You are Blocked from seeing the Ads"; } ?>

मुख्य वर्णन- किसी देश के परराष्ट्र नीति अथवा विदेश नीति में उस संबंधित राष्ट्र की सुरक्षा नीति समाहित होती है। सुरक्षा एक व्यापक एवं विस्तृत अवधारणा है जिसके अन्तर्गत दीर्घकालीन एवं स्थाई शांति एवं सुरक्षा स्थापना के लिए उस राष्ट्र के सभी प्रकार के प्रयास समाहित होते हैं। अर्थात एक राष्ट्र की उस क्षमता से है जिसके द्वारा वह आन्तरिक एवं बाहरी खतरों से अपने आन्तरिक मूल्यों तथा प्रतिष्ठा की रक्षा करने में समर्थ होता है। वाल्टर लिपमैन ने कहा है कि- कोई राष्ट्र केवल उस सीमा तक सुरक्षित है, जितनी दूर तक उसे, यदि वह युद्ध से बचना चाहता है तो अपने आधारभूत मूल्यों को कुर्बान करने के लिए मजबूर होने का खतरा नहीं है और यदि उसे चुनौती दी जाये तो जितनी दूर तक वह ऐसे युद्ध में विजय द्वारा उन्हें कायम करने में समर्थ है।

आचार्य कौटिल्य ने अन्तर्राष्ट्रीय एवं अन्तर्राज्य सम्बन्धों के संदर्भ में परराष्ट्र नीति अथवा सुरक्षा नीति के संचालन के लिए षाड्गुण्य नीति को आधार माना है।

एवंषड्भिर्गुणैरेतैः स्थितः प्रकृतिमण्डले।

पर्येषेत क्षयात स्थान, स्थानात् वृद्धिं च कर्मसु।।

अर्थात राजा अपने प्रकृतिमण्डल में स्थित षाड्गुण-नीति द्वारा क्षीणता से स्थिरता तथा स्थिरता से वृद्धि की अवस्था में जाने की चेष्टा करे। उन्होंने इस नीति के अन्तर्गत पुरातन छः सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, जो इस प्रकार हैं- सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय। उनके अनुसार देश, काल एवं परिस्थिति के अनुरुप षाड्गुण्य नीति में परिवर्तन कर लेना चाहिए। सभी नीतियों का मुख्य उद्देश्य शत्रु की तुलना में अपने आप को शक्तिशाली बनाकर राज्य का विस्तार करना चाहिए। आचार्य कौटिल्य के षाड्गुण्य नीति का सविस्तार वर्णन इस प्रकार है-

सन्धि-

प्रकृत्तचक्रेणाक्रान्तो, राज्ञा बलवतौबलः।

सन्धिपिदनमेत्तूर्णम् कोषदण्डात्मभूमिभिः।।

अर्थात यदि कोई निर्बल राजा किसी बलवान चक्रवर्ती राजा से घिर जाए तो तुरन्त कोष, दण्ड (सेना), भूमि और अपने आपको यथावश्यक समर्पित करके सन्धि कर ले।  आचार्य कौटिल्य के अनुसार किसी भी राजा के द्वारा सन्धि करने का उद्देष्य शत्रु राज्य की शक्ति को नष्ट करके स्वयं को शक्तिशाली बनाना होता था। उनके अनुसार ऐसे शत्रु जिस पर विजय प्राप्त करना सम्भव न हो, सन्धि करके स्वयं को सबल बनाने के लिए कुछ समय प्राप्त कर लेना चाहिए।

आचार्य कौटिल्य के अनुसार निम्नलिखित परिस्थितियों में सन्धि का आश्रय लेना चाहिए यदि विजिगीषु राजा सन्धि करने पर अपने बड़े-बड़े कार्य सम्पादित करने में तथा शत्रु के कार्यों में हानि पहुंचाने में समर्थ हो, अपने उत्तम कार्यों के साथ-साथ षत्रु के उत्तम कार्यों से भी लाभ उठा सकता हो। सन्धि के पष्चात शत्रु का विश्वासपात्र बनकर गुप्तचरों तथा विष-प्रयोगों से शत्रु का नाश कर सकता हो। शत्रु के मित्रों को अपना कृपापात्र बनाकर अपनी ओर आकृष्ट कर सकता हो। तो उसे सन्धि कर लेनी चाहिए।

सन्धि के प्रकार- आचार्य कौटिल्य ने अनेक प्रकार के सन्धियों का विस्तृत वर्णन किया है। हीनबल राजा अपने सबल शत्रु से सन्धि करता है, तो उसे हीनबल सन्धि कहते हैं। यह सन्धि तीन प्रकार की होती है-

(1) दण्डोपनत सन्धि  (2) कोषोपनत सन्धि (3) देवोपनत सन्धि।

(1) दण्डोपनत सन्धि- यह सन्धि भी तीन प्रकार की होती है-

(क) अमिष सन्धि- जब विजित राजा, विजयी राजा के कथनानुसार अपनी शक्ति भर सेना तथा धन देकर आत्मसमर्पण कर दे, तो उस सन्धि को अमिष सन्धि कहते हैं।

(ख) पुरुषान्तर सन्धि- सेनापति और राजकुमार को शत्रु की सेना में पेश करके जो सन्धि की जाती है, उसे पुरुषान्तर सन्धि कहते हैं। इसी को आत्मरक्षण सन्धि भी कहते हैं क्योंकि इसमें राजा शत्रु के दरबार में न जाने से आत्मरक्षा कर लेता है।

(ग) अदृष्ट पुरुष सन्धि- शत्रु के कार्य की सिद्धि के लिए अब मैं अकेला ही जाउंगा या मेरी सेना ही जायेगी, ऐसा कहकर सन्धि की जाती है, तब उसे अदृष्य पुरुष सन्धि कहते हैं। इस सन्धि को दण्डमुख्यात्मरक्षण सन्धि भी कहते हैं, क्योंकि इसमें मुख्य सैनिकों तथा राजा की रक्षा की जाती है।

(2) कोषोपनत सन्धि- इस सन्धि के निम्नलिखित चार भेद हैं-

(क) परिक्रय सन्धि- जिस सन्धि में बलवान शत्रु द्वारा युद्ध में गिरफ्तार किये गये अमात्य आदि प्रकृति जनों को धन देकर छुड़ाया जाये, उसे परिक्रय सन्धि कहते हैं।

(ख) सुवर्ण सन्धि- सुविधानुसार नियत समय में निमित्त धनराषि दे देने के कारण इसे सुवर्ण सन्धि या कन्यादान सन्धि कहा जाता है।

(ग) उपग्रह सन्धि- परिक्रय सन्धि जब सुविधानुसार किस्तवार धन अदा करने की शर्त पर की जाये तो उसे उपग्रह सन्धि कहा गया है। जब किस्तवार देय धन के लिए समय और स्थान निश्चित किये जाते हैं, तब इस उपग्रह सन्धि को प्रत्यक्ष सन्धि कहते हैं।

(घ) कपाल सन्धि- जिस सन्धि में सम्पूर्ण धनराशि तत्काल अदा करने की शर्त होती है, उसे कपाल सन्धि कहते हैं।

(3) देशोपनत सन्धि- देशोपनत सन्धि या भुम्युपनत सन्धि के भी चार भेद होते हैं-

(क) आदिष्ट सन्धि- राष्ट्र और प्रकृति की रक्षा के लिए भूमि का कुछ भाग देकर जो सन्धि की जाती है, उसे आदिष्ट सन्धि कहते हैं।

(ख) उच्छिन्न सन्धि- राजधानी और दुर्गों को छोड़कर सारहीन भूमि शत्रु को देकर जो सन्धि की जाती है, उसे उच्छिन्न सन्धि कहते हैं।

(ग) अपक्रय सन्धि- जिस सन्धि में भूमि की पैदावार को लेकर भूमि को छुड़ा लिया जाये, उसे अपक्रय सन्धि कहते हैं।

(घ) परदूषण सन्धि- जिस सन्धि में पैदावार के अतिरिक्त और भी कुछ देना पड़े, उसे परदूषण सन्धि कहते हैं।

उपर्युक्त सन्धियों के अतिरिक्त भी कौटिल्य ने कुछ और सन्धियों का भी उल्लेख किया है।

परिपणित देश सन्धि- तुम इस देश पर चढ़ाई करो मैं उस देश पर। इस प्रकार निश्चित देश का निर्देष कर जो सन्धि की जाती है, उसे परिपणित देश सन्धि कहते हैं।

परिपणित काल सन्धि- तुम इतने समय तक कार्य करते रहो, मैं इतने समय तक। इस प्रकार निश्चित समय का निर्देश करके जो सन्धि की जाती है, उसे परिपणित काल सन्धि कहते हैं।

परिपणित कार्य सन्धि- तुम इतना कार्य करो मैं इतना कार्य करुंगा। इस प्रकार निश्चित कार्य का निर्देश करके की गई सन्धि परिपणित काल सन्धि कहलाती है।

विग्रह या युद्ध का समय-

यदा वा पश्येत्- व्यसनी परः स्वचक्रपीडिताः विरक्ता

वास्य प्रकृतयः कर्शिता निरुत्साहाः परस्पराद् भिन्नाः

शक्याः लोभयितुम्, अग्न्युदकमरकदुर्भिक्षनिमित्तं क्षीणयुग्य-

पुरुषनिचयरक्षाविधानः परः, इति तदा विगृहृा यायात्।

अर्थात जब राजा देखे कि शत्रु विपत्ति में उलझ रहा है, उसकी प्रजाऐं सेना द्वारा पीड़ित हैं और राजा से विरक्त हो रही हैं, वे क्षीण हो चुकी हैं, निरुत्साहित हैं, आपस में लड़-झगड़ रही हैं और अब उन्हें लोभ द्वारा बस में किया जा सकता है, और जब वह देखे कि अग्नि, जल, व्याधि, महामारी आदि दैवी आपत्तियों द्वारा शत्रु के वीर पुरुष, वाहन आदि नष्ट हो चुके हैं और वह अपनी रक्षा करने में असमर्थ है- उसी समय राजा शत्रु से विग्रह करने के लिए निकल पड़े।

विग्रह का अभिप्राय है- युद्ध। आचार्य कौटिल्य के मतानुसार विग्रह नीति का प्रयोग तभी करना चाहिए, जब शत्रु राजा निर्बल हो तथा विजिगीषु राजा की युद्ध व्यवस्थाऐं पूर्ण हों और वह अपनी शक्ति के विषय में पूर्णतया आश्वस्त हो। विग्रह करने से पूर्व ही राजा को राज्य मण्डल के मित्र राज्यों की सहायता प्राप्त कर लेनी चाहिए। आचार्य कौटिल्य के शब्दों में विजिगीषु राजा यह समझे कि मेरे देष में आयुध जीवी क्षत्रिय और कृषक अधिक हैं। मेरे देष में पहाड़, जंगल, नदी तथा किले बहुत हैं। मेरे राज्य में आने-जाने के लिए एक ही मार्ग है। शत्रु के किसी भी आक्रमण का प्रतिकार मेरा देश करने में समर्थ है या राज्य की सीमा पर अति दुर्भेध दुर्ग का आश्रय लेकर शत्रु के कार्यों का विनाशकाल अब समीप आ पहुंचा है अथवा विग्रह करते हुए शत्रु के जनपद को मैं किसी दूसरे रास्ते से पार कर लूंगा, तो विग्रह कर दे। ऐसी अवस्था में विग्रह करके ही वह अपनी उन्नति करे। दूसरी तरफ आचार्य कौटिल्य ने यह भी कहा है कि यदि विजिगीषु राजा सन्धि तथा विग्रह में समान लाभ देखे तो सन्धि का ही अवलम्बन लें, क्यों कि विग्रह करने में प्रजा, धन-धान्य आदि की बहुत क्षति होती है।

आचार्य कौटिल्य ने विग्रह नीति का अनुसरण करने वाले राजा के लिए तीन शक्तियों से युक्त होना अनिवार्य माना है- उत्साहशक्ति, प्रभावशक्ति तथा मंत्र शक्ति। उत्साह शक्ति का अभिप्राय है- सफल युद्ध के लिए आवष्यक नैतिक बल, प्रभावशक्ति का अभिप्राय है- अस्त्र-शस्त्र आदि सामग्री तथा मंत्र शक्ति का अभिप्राय मंत्रणा तथा कूटनीति से है। उपर्युक्त तीनों शक्तियों में आचार्य कौटिल्य ने उत्साह शक्ति को प्रधानता दी है। उन्होंने युद्ध के लिए संगठित और शक्तिशाली सैन्यबल का होना भी आवश्यक माना है।

युद्ध की परिस्थितियां-  आचार्य कौटिल्य के अनुसार युद्ध से पूर्व विजिगीषु को निम्नलिखित परिस्थितियों पर अवश्य विचार कर लेना चाहिए-

राज्य की सभी प्रकृतियां स्वस्थ हों क्योंकि एक के भी व्यसन ग्रस्त होने से युद्ध में असफलता का सामना करना पड़ सकता है। युद्ध से पूर्व सैनिक शक्ति, भौतिक साधन, कूटनीति आदि सभी स्तरों पर शत्रु से श्रेष्ठ हों। युद्ध से पूर्व ही लाभ-हानि पर पूर्ण विचार-विमर्श कर लेना चाहिए तथा उसकी अनुपस्थिति में मंत्री, पुरोहित या युवराज द्वारा आन्तरिक विद्रोह करके राज्य को असुरक्षित न कर दिया जाये, इस विषय पर भी पूर्ण ध्यान देना चाहिए।

आचार्य कौटिल्य ने युद्ध के प्रबन्ध का विस्तार से विवेचन किया है, उनके शब्दों में- सैनिकों के स्वास्थ्य संरक्षण और मनोविनोद के लिए चिकित्सक, काटने के औजार, चिमनी, दवाई, घी, तेल, मरहम-पट्टी, सह-चिकित्सक, खाने-पीने की साम्रग्री और सैनिकों को प्रसन्न करने वाली स्त्रियां, इन सब को युद्धभूमि के लिए प्रस्थान करते समय सेना के पिछले हिस्से में रखा जाये। युद्ध के समय सेनापति सिपाही को उत्साहित करे। वह इस बात की घोषणा करे के जो सिपाही युद्ध में अपनी वीरता का परिचय देगा, उसे पुरस्कृत और सम्मानित किया जावेगा, उसको पदोन्नति दी जायेगी तथा उसका वेतन दोगुना कर दिया जायेगा।

युद्ध में प्राप्त भूमि पर विचार करते हुए आचार्य कौटिल्य ने लिखा है कि विजिगीषु जब शत्रु के राज्य को अपने अधीन कर ले तो उसे नये राज्य की प्रजा के लिए कल्याणकारी कार्य करने चाहिए। उसे प्रजा को ऋणदान और कर मुक्ति से प्रसन्न करना चाहिए। उसे अपने प्रजा जनों के समान ही शील, वेषभूषा और आचरण का व्यवहार करना चाहिए, प्रजा के विश्वासों की भांति, राष्ट्रदेवता, समाजोत्सव तथा विहारों में अपनी भक्ति भावना रखनी चाहिए।

यान अथवा युद्ध के लिए प्रस्थान-

अकार्याणां च करणैः कार्याणां च प्रणाशनैः।

अदण्डनैश्च दण्ड्यानामदण्ड्यानां च दण्डनै।

उपघातैः प्रधानानां मान्यानां चावमाननैः।

राज्ञः प्रमादालत्याभ्यां, योगक्षेमवधेन च।

प्रकृतीनां क्षयो लोभो, वैराग्य´चोपजायते।।

अर्थात इन कारणों से किसी अन्याय-वृत्ति राजा की प्रजाओं में क्षय, लोभ तथा वैराग्य (असंतोष) फैलता है, जब वह राजा न करने योग्य कार्यों को करता हो और करने योग्य कार्यों का नाश कर देता हो, जब वह दण्डनीयों को दण्ड न देता हो और अदण्डनीयों को दण्ड देता हो, जब वह प्रधान पुरुष पर दोष लगाता हो, और मान्यों का अपमान करता हो। संक्षेप में जब वह राजा प्रमाद, आलस्य और योग-क्षेम (कल्याण) की हानि द्वारा प्रजाओं को उत्तेजित करता हो। वही समय उचित अवसर है, जबकि उस राजा के विरुद्ध यान अथवा युद्ध के लिए प्रस्थान कर देना चाहिए।

यान का अभिप्राय है- वास्तविक आक्रमण। इस नीति को तभी अपनाना चाहिए जब विजिगीषु राजा अपनी स्थिति को सुदृढ़ देखे तथा उसे ऐसा प्रतीत हो कि आक्रमण के बिना शत्रु को वश में करना असम्भव हो।  विग्रह तथा यान में केवल स्तर का ही भेद है। आचार्य कौटिल्य के अनुसार- यदि समझें कि शत्रु के कार्यों का नाश यान से सम्भव है तथा मैने अपने कर्मों की रक्षा का पूरा प्रबन्ध कर लिया है तो यान का आश्रय लेकर अपनी उन्नति करें।

यान किस परिस्थिति में किया जाये इसका वर्णन करते हुए उन्होंने ने लिखा है कि- जब देखें कि शत्रु व्यसनों में फंसा हुआ है, उसका प्रकृति मण्डल के व्यसनों में उलझा है, अपनी सेनाओं से पीड़ित उसकी प्रजा उससे विरक्त हो गई है, राजा स्वयं उत्साह हीन है, प्रकृति मण्डल में परस्पर कलह है, उसको लोभ देकर फोड़ा जा सकता है, शत्रु अग्नि, जल, व्याधि, संक्रामक रोग के कारण वह अपने वाहन, कर्मचारी, कोष आदि की रक्षा करनें में असमर्थ है तो ऐसी दशा में विग्रह करके चढ़ाई कर दें।

आसन-

यदि व मन्येत्, न मे शक्तः परः कर्माण्युपहन्तुम। नाहं

तस्य कर्मोपघाती वा व्यसनमस्य श्ववरायोरिव  कलहे

वा स्वकर्मानुष्ठानपरो वा वर्धिष्ये इत्यासनेन वृद्धिमातिष्ठेत।

अर्थात जब राजा यह समझे कि मेरा शत्रु इतना समर्थ नहीं है कि मेरे कामों को हानि पहुंचा सके और न मैं उसके कामों को बिगाड़ सकता हूं, यद्यपि षत्रु राजा पर व्यसन है, परन्तु कलह में कुत्ते और शूकर की लड़ाई के तुल्य कोई फल न निकलेगा, अपना काम करते रहने पर मैं वृद्धि को प्राप्त करुंगा- तो इस परिस्थिति में राजा चुपचाप बैठा रहे और आसन नीति का अवलम्बन करे।

आसन का अभिप्राय है- तटस्थता। आचार्य कौटिल्य के अनुसार अपनी वृद्धि के लिए समय की प्रतीक्षा करते हुए चुपचाप बैठे रहना ही आसन नीति है। राजा आसन नीति तभी अपनाता है जब वह स्वयं को शत्रु का नाश करने में असमर्थ समझता है तथा शत्रु भी इतना प्रबल नहीं होता कि उसका नाश कर सके। आसन की नीति अपनाते हुए राजा के द्वारा शक्ति अर्जन की लगातार चेष्टा की जानी चाहिए। आचार्य कौटिल्य के अनुसार आसन के, स्थान तथा उपेक्षण दो नाम और भी हैं। चुपचाप बैठे रहना और किसी विषय में उपाय करते रहना स्थान है। अपनी वृद्धि के लिए चुपचाप बैठे रहना आसन कहलाता है। किसी उपाय का अवलम्बन न करना उपेक्षण कहलाता है।

आसन दो प्रकार के हैं- विग्रहय आसन तथा सन्धाय आसन। जब विजिगीषु और शत्रु दोनों ही सन्धि करने की इच्छा रखते हों तथा परस्पर एक-दूसरे को नष्ट करने की शक्ति न रखने के कारण कुछ समय तक युद्ध करके चुपचाप बैठ जाते हैं, तो उसे विग्रहय आसन कहते हैं।

संश्रय-

प्रियो यस्य भवेद् यो वा प्रियोस्य कतरस्तयोः।

प्रियो यस्य स तं गच्छेदित्याश्रयगतिः परा।।

अर्थात राजा का जो प्रिय हो अथवा दो में से जो अधिक प्रिय हो, राजा उसी का आश्रय ग्रहण करे। संश्रय का अर्थ है- बलवान राजा की शरण लेना। यदि किसी राजा में शत्रु को क्षति पहुंचाने की क्षमता का तो अभाव हो ही, अपनी रक्षा करने में भी असमर्थ हो तो, उसे बलवान राजा की शरण लेना चाहिए। लेकिन इस बात पर अवश्य विचार कर लेना चाहिए कि जिसके षरण ली जा रही है, वह शत्रु से अधिक शक्तिशाली हो। आचार्य कौटिल्य के मतानुसार अगर दूसरा शक्तिशाली राजा न मिले तो, शत्रु का ही आश्रय ले लेना चाहिए।

द्वैधीभाव-

आदौ बुध्यते पणितः पणमानश्च कारणम्।

ततो वितकर्याभयतो, यतः श्रेयस्ततो ब्रजेत।।

अर्थात सन्धि के लिए किसी राजा द्वारा कहे जाने पर अथवा स्वयं किसी राजा के साथ सन्धि करने के लिए उद्यत होने पर, विजयेच्छुक राजा प्रथम सन्धि के तथा विग्रह के लाभ- हानि पर विचार करे और जैसा भी श्रेयस्कर प्रतीत होता हो, उसके अनुसार आचरण करे।

द्वैधीभाव का अभिप्राय एक राजा से सन्धि तथा दूसरे से विग्रह करना है। जब कोई राजा किसी राजा से सन्धि करके उससे सेना तथा शस्त्रादि की सहायता लेकर शत्रु का नाश करता है, तो उसे द्वैधीभाव सन्धि कहते हैं। आचार्य कौटिल्य के मतानुसार द्वैधीभाव नीति के द्वारा शक्तिशाली राजा के साथ सन्धि व दुर्बल राजा के साथ विग्रह करना चाहिए। यदि संश्रय और द्वैधीभाव दोनों में समान लाभ हो तो द्वैधीभाव की नीति को ही अपनाना चाहिए, क्योंकि इससे राजा कार्यरत रहकर अपनी भलाई करता है।

सुरक्षा नीति को क्रियान्वित करने के उपाय-

आचार्य कौटिल्य ने परराष्ट्र नीति के सफल क्रियान्वयन के लिए साम, दाम, भेद और दण्ड, इन चतुवर्ग उपायों के प्रयोग का विधान किया है।

(1) साम- अपनी नीति को कार्यान्वित करने के लिए जब अन्य राजाओ के साथ बातचीत करके तथा समझा-बुझाकर उसे अपने अनुसार कार्य करने के लिए तैयार किया जाता है, तो वह तरीका साम नीति कहलाता है। यह साम दो प्रकार का होता है- सत्य और असत्य। सत्य साम का प्रयोग विश्वासपात्र राजा के प्रति तथा असत्य साम का प्रयोग धूर्त राजा (शत्रु) के प्रति किया जाता है।उन्होंने दुर्बल राजा के प्रति साम नीति के प्रयोग करने की सलाह दी है।

(2) दाम (दान)– जब बातचीत व अनुनय विनय से काम न चल सके, तो प्रलोभन का सहारा अर्थात धन या भूमि देकर अपनी विदेशनीति को कार्यान्वित करने की विधि को दाम कहते है। कौटिल्य ने इस उपाय का प्रयोग छोटे राजाओं को नियन्त्रित करने तथा अविश्वासी सामन्तों को सन्तुष्ट करने निमित्त परामर्श दिया है।

आचार्य कौटिल्य का मत है कि दाम सब उपायों में श्रेष्ठ है, ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जिसे धन देकर अपने वश में न किया जा सकता हो। दान से देवता भी वशीभूत हो जाते हैं। दानवान राजा शत्रुओं को शीघ्र ही जीत लेता है। परस्पर संघटित शत्रुओं में भी दान द्वारा ही भेद डाला जा सकता है। यद्यपि ऐसे राजा भी होते हैं जो निर्लोभ और गम्भीर होते हैं, उन्हें दान द्वारा वश में नहीं किया जा सकता, किन्तु उन्हें अपना बनाया जा सकता है।

(3) भेद- भेद का तात्पर्य है- किसी युक्ति से संघटित शत्रु में फूट डाल देना। इस उपाय का प्रयोग शत्रु को कमजोर करने के लिए किया जाता है। फूट डालो और शासन करो की नीति को भेद कहते हैं। भेद की नीति से शत्रु को थोड़ी सेना द्वारा ही परास्त किया जा सकता है। कौटिल्य का मत है कि विजिगीषु को चाहिए कि वह सामन्त, आटविक, शत्रु राजा का सम्बन्धी, नजरबन्द शत्रु राजा का पुत्र आदि, इनमें से किसी एक को अपने वश में करके उसके द्वारा कोष, सेना, भूमि और दायभाग की याचना करवाकर बलवान राजा एवं उसके सामन्त आदि के बीच भेद डाल देना चाहिए।

(4) दण्ड– दण्ड का अर्थ है- दमन करना। यदि शत्रु अन्य तीनों उपायों द्वारा वश में न आये तो दण्ड का प्रयोग करना चाहिए। आचार्य कौटिल्य ने दण्ड का प्रयोग शक्तिशाली राजा के विरुद्ध करने का परामर्श दिया है।  इतना ही नहीं कौटिल्य ने लिखा है कि प्रकाश युद्ध, कूटयुद्ध और तूष्णी युद्ध, इन तीन प्रकार के युद्धों द्वारा तथा दुर्गलंभोपाय प्रकरण में निर्दिष्ट विषदान उपायों द्वारा शत्रु को वश  में करना दण्ड व्यवहार है।

वर्तमान में प्रासंगिकता- अर्थशास्त्र से पता चलता है कि प्राचीन भारत में राष्ट्र की प्रतिरक्षा नीति एवं सुरक्षा नीति पर चिंतन की समृद्ध परम्परा थी। उपरोक्त तथ्य प्रायः पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा प्राचीन भारत की चिंतन विरासत पर लगाये जाने वाले इस आरोप को आधारहीन सिद्ध करते हैं कि राजनीतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक के अलावा प्रतिरक्षा एवं सुरक्षा जैसे राज्य के अस्तित्व से जुड़े गूढ़ विषयों पर भी चिंतन की परम्परा यहां विद्यमान थी।

आचार्य कौटिल्य वर्णित अर्थशास्त्र एक व्यवहारिक ग्रंथ है जिसमें विविध समस्याओं के समाधान हेतु शत्रु राज्य के विरुद्ध विजिगीषु राज्य को कई उपाय बताये हैं। आज विश्व की बड़ी महाशक्तियां जैसे अमेरिका, रुस, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस इत्यादि के राजनीतिक, आर्थिक एवं सामरिक व्यवहार का सिंहावलोकन करने पर पता चलता है कि षाड्गुण्य नीति एवं साम, दाम, भेद व दण्ड की नीति का ही पालन किया जा रहा है।

परिवर्तन संसार का नियम है। आज जो नवीन सभ्यता है एक दिन पुरानी हो जायेगी और फिर पुरानी सभ्यता के स्थान पर एक और नवीनतम सभ्यता का उदय। यह क्रम चलता रहेगा। इन सब के बीच एक चीज अटल है, वह है युद्ध और समाज का संबंध, जो सदियों से बना हुआ है। समाज के समक्ष संकट का उत्पन्न होना कोई नई घटना नहीं है। इतिहास के सूक्ष्म अध्ययन, मनन एवं विश्लेषण से सभी संकटों का समाधान पाया जा सकता है। मानव प्रवृति की सबसे बड़ी भूल होती है कि वह समझता है कि इतिहास की घटनाओं का वर्तमान की समस्याओं से कोई संबंध नहीं है जबकि यह कटु सत्य है कि इतिहास अपने आप को बार-बार दोहराता है। ऐसे में आचार्य कौटिल्य के सैन्य चिंतन की प्रासंगिकता को नकारना अथवा विस्मृत करना बड़ी भूल होगी।

Share with friends !

Leave a Reply

error: Content is protected !!