विदेश में भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी-
आधुनिक प्रयोगशालाओं की स्थापना के सैकड़ों वर्ष पहले से भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सक्रिय रूप से योगदान कर रहा था। प्राचीन भारतियों द्वारा आविष्कृत बहुत से सिद्धांतों और तकनीक ने आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मूलभूत आधार सिद्धांत दिये और उन्हें सशक्त किया है।
भारतीय विज्ञानी भास्कराचार्य ने, खगोलज्ञ स्मार्ट से सैकड़ों वर्ष पहले, गणना करके विश्व को यह बता दिया था कि सूर्य की परिक्रमा करने में पृथ्वी को कितना समय लगता है। उनकी गणना थी सूर्य की परिक्रमा करने में पृथ्वी को 365.258756484 दिन लगते हैं।
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जॉन डाल्टन के जन्म से सैकड़ों वर्ष पहले, कणाव ने परमाणु सिद्धांत ढूँढ निकाला था। उन्होंने अणु, (परमाणु जैसे छोटे अविनाशी कणों) के अस्तित्व का अनुमान लगा लिया था।
ब्रिटिश आविष्कार से हज़ारों वर्ष पहले से भारतीयों को जस्ता (zinc) अयस्क से जस्ता निष्कर्षण की जानकारी थी। सम्राट अकबर के शासनकाल में अली कश्मीरी इब्न लुक्मान द्वारा कश्मीर में पहला समेकित खगोलीय ग्लोब बनाया गया था। वैश्विक दुनिया धातुकर्म के क्षेत्र में इस आविष्कार के प्रति आकर्षित हो गयी थी। प्राचीन भारतीयों ने बुद्ध इस्पात (‘इस्तपात’ शब्द संस्कृत के शब्द ‘असिपत्र’ से व्युत्पन्न है)। (Wootz Steel) का विकास किया, जिसका प्रयोग प्रसिद्ध प्राचीन दमिश्क तलवारों को बनाने में किया जाता था, जो रेशमी स्कार्फ हो या लकड़ी का एक खंड, दोनों को समान सहजता से चीर सकता था। इसे विभिन्न नामों जैसे उक्कू, हिंदवानी और सेरिक आयरन के नाम से जाना जाता था।
प्राचीन भारतीयों ने दुनिया को समय की सबसे छोटी और सबसे बड़ी माप इकाइयों की अवधारणा दी थी। सबसे छोटी इकाई एक सेकंड का 34,000वाँ हिस्सा (क्रति) है और सबसे बड़ा 4.32 अरब वर्ष (महायुग) है।
सर्वप्रथम भारतीयों ने ही बटनों का आविष्कार और उनका प्रयोग किया। 2000 ईसा पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यता में समुद्री सीप से बने सजावटी बटनों का उपयोग किया जाता था। कुछ बटनों को ज्यामितीय आकृतियों में बनाया जाता था और उनमें छेद किये जाते थे।
1780 के दशक में मैसूर के टीपू सुल्तान ने लोहे से बना रॉकेट विकसित किया था और एंग्लो-मैसूर युद्धों के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की बड़ी ताकतों के विरुद्ध इन रॉकेटों का सफल प्रयोग किया गया था।
शैंपू (Shampoo) का उद्भव 1762 में भारत में हुआ था। शैंपू शब्द हिंदी शब्द ‘चपी’ से बना है। शैंपू का जन्म मुगल साम्राज्य के पूर्वी क्षेत्रों में हुआ, जहाँ इसे सिर की मालिश के रूप में प्रस्तुत किया गया था, जो आमतौर पर क्षार, प्राकृतिक तेल और सुगंध से मिलकर बना होता था।
शैंपू को पहली बार 1814 में ब्रिटेन में बिहार के एक बंगाली उद्यमी शेख दीन महमूद द्वारा प्रस्तुत किया गया था। सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता है। लगभग 2600 साल पहले उन्होंने और उनके समय के स्वास्थ्य विज्ञानियों ने मिलकर सीजेरियन, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग, अस्थि-भंग, मूत्राशय की पथरी और यहाँ तक कि प्लास्टिक और मस्तिष्क शल्य चिकित्साएँ जैसी जटिल शल्य चिकित्साएँ भी की थी। संज्ञाहरण (Anaesthesia) का प्रयोग भी प्राचीन भारत में भली भाँति प्रचलित था।
कुष्ठ रोग का प्रथम उल्लेख भारतीय चिकित्सा ग्रंथ सुश्रुत संहिता में वर्णित है।
मोतियाबिंद सर्जरी का आविष्कार सर्वप्रथम प्राचीन भारत में हुआ था। भारत में, मोतियाबिंद की सर्जरी एक घुमावदार सुई के साथ की जाती थी, जिसकी सहायता से लेंस को ढीला कर मोतियाबिंद को दृष्टि क्षेत्र से बाहर निकाल दिया जाता था। बाद में इस तकनीक का प्रसार बाहर की दुनिया में भी हुआ।
आयुर्वेद मानव के लिए ज्ञात दवा का सबसे प्रारंभिक विद्यालय है। आयुर्वेद की अवधारणा, पूर्व वैदिक काल में भी प्रचलित थी। इस औषधि के जनक चरक ने 2,500 वर्ष पूर्व आयुर्वेद को समेकित किया था। आज आयुर्वेद को विश्व भर में अपना उचित स्थान तीव्रता से वापस प्राप्त हो रहा है। विदेशी यात्रियों ने तक्षशिला और काशी जैसे प्रमुख विश्वविद्यालयों में धर्म और दर्शन के साथ आयुर्वेद का भी अध्ययन किया था।
सिद्धाप्रणाली को भी भारतीयों द्वारा विश्व भर में प्रचलित किया गया। यह मूलतः आयुर्वेद का एक क्षेत्रीय संस्करण है, जो स्थानीय भारतीय तमिल संस्कृति और परंपरा द्वारा विकसित है। सिद्धा औषधी प्रणाली में धातुओं, खनिजों और रासायनिक उत्पादों का उपयोग प्रमुख है। रसायन विद्या की उत्पत्ति सिद्धा प्रणाली से ही हुई है। ज़ख्म और आकस्मिक चोट की चिकित्सा संबंधी सिद्धा औषध प्रणाली की शाखा को “वर्मम” (Varmam) कहा जाता है।
करेला, जो कि मानव अग्नाशय की तरह दिखता है, इसके विषय में प्राचीन साहित्य में उल्लेख है कि यह मधुमेह के लिए सबसे अच्छा उपाय है। आधुनिक समय के वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि मधुमेह अग्न्याशय की खराबी के कारण होता है।
अखरोट का दाना मानव मस्तिष्क की संरचना के जैसा होता है और प्राचीन भारतीय वनस्पति वैज्ञानिक इसे मस्तिष्क औषध के रूप में उपयोग करते थे।
गणितः भारत से विदेश तक–
500 ईसा पूर्व में भारतीयों ने एक से पौ तक, प्रत्येक संख्या के लिए विभिन्न प्रतीकों की एकः पद्धति तैयार की थी। इस संकेत पद्धति को अरबों ने अपनाया और इसे उन्होंने अंक कहा। इसके अतिरिक्त, समुद्री व्यापारियों ने दशमलव प्रणाली को अरब तक पहुंचाया। अरबों ने गणित को ‘या हिवसा’ (भारत से संबंधित) नाम देकर भारत के प्रति अपना आभार व्यक्त किया था। वहाँ से इन अवधारणाओं को पश्चिमी देशों ने अपनाया था।
द्वि-आधारी (बाइनरी) संख्या पद्धति को वैदिक विद्वान पिगल ने पहली बार अपनी पुस्तक छन्दशास्व में वर्णित किया था, जो छंद पर प्रथम ज्ञात संस्कृत ग्रंथ (काव्यात्मक छंद और कविता का अध्ययन) है।
फैबइबोनैयि श्रेणी और उनके अनुक्रम सर्वप्रथम मात्रमेरू के रूप में भारतीय गणित में प्रकट हुए, जैसा कि पिंगल द्वारा छंदशास्त्र की संस्कृत परपरा के संबंध में उल्लेख किया गया है। बाद में, इन संख्याओं के गठन के तरीकों को विरहक, गोपाल और हेमचन्द्र जैसे गणितज्ञों द्वारा बताया गया, जो इतालवी गणितज्ञ फियोनैकी द्वारा पश्चिमी यूरोपीय गणित के लिए अनुक्रम (सिक्वेंस) के आकर्षक रूप प्रस्तुत किए जाने के भी बहुत पहले हो चुका था।
भारत ने संख्या पद्धति का अविष्कार किया। आर्यभट्ट ने शून्य का अविष्कार किया था। बौधायन द्वारा पाइथागोरस प्रमेय की अवधारणा को समझाया गया। बीजगणित, ज्यामिति और त्रिकोणमिति की अवधारणा भी भारत से विदेश में गयी थी।
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