फ्रांस का तृतीय गणतंत्र की स्थापना एवं उसके प्रमुख कार्य
प्रस्तावना –
फ्रांस का तृतीय गणतंत्र की स्थापना एवं उसके प्रमुख कार्य
प्रस्तावना –
1870 में राष्ट्रीय रक्षा की एक अस्थायी सरकार की स्थापना की गई और उसने आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध जारी रखने को अपना पहला कार्य माना। पेरिस का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधियों से बनी और औपचारिक रूप से जनरल लुइस-जूल्स ट्रोचू की अध्यक्षता में, नई सरकार के सबसे सशक्त सदस्य कट्टरपंथी रिपब्लिकन के नायक लियोन गैम्बेटा थे।
लियोन गैम्बेटा
गैम्बेटा, प्रांतीय मूल के एक युवा पेरिसियाई वकील, 1869 में कोर लेजिस्लैटिफ़ के लिए चुने गए थे और पहले ही अपनी ऊर्जा और वाक्पटुता के माध्यम से अपनी पहचान बना चुके थे। आंतरिक मंत्री के रूप में और, कुछ सप्ताह बाद, युद्ध मंत्री के रूप में भी, उन्होंने खुद को सैन्य प्रतिरोध को सुधारने के कार्य में झोंक दिया।
उनका कार्य प्रशिया की सेनाओं के आगे बढ़ने से जटिल हो गया था, जिसने 23 सितंबर तक पेरिस को घेर लिया था। टूर्स में सरकार के कई सदस्यों के साथ शामिल होने के लिए गैम्बेटा शीघ्र ही गुब्बारे से शहर से बाहर चला गया। अगले चार महीनों के दौरान, गैम्बेटा की अस्थायी सेनाओं ने लॉयर घाटी और पूर्वी फ्रांस में प्रशियावासियों के साथ कई अनिर्णायक लड़ाइयाँ लड़ीं। लेकिन पेरिस को घेराबंदी से मुक्त कराने के लिए उत्तर की ओर एक बल भेजने का उनका प्रयास मोल्टके और फ्रांसीसी सेना की खराब गुणवत्ता के कारण विफल हो गया। इस बीच एडोल्फ थियर्स को शक्तियों से समर्थन की तलाश में यूरोप की राजधानियों का दौरा करने के लिए भेजा गया था; लेकिन वह खाली हाथ लौट आये. जनवरी 1871 तक यह स्पष्ट हो गया था कि आगे सशस्त्र प्रतिरोध व्यर्थ होगा। गैम्बेटा के क्रोधित विरोध के कारण, 28 जनवरी, 1871 को प्रशियावासियों के साथ एक युद्धविराम पर हस्ताक्षर किए गए।
फ्रांस में तृतीय गणतंत्र की स्थापना –
1870 ई. में सीडान (Sedan) के युद्ध में प्रशा के हाथों फ्रांस की शर्मनाक पराजय हुई थी जिसके परिणामस्वरूप फ्रांस को अपने दो बहुमूल्य प्रदेश अल्सास एवं लौरेन प्रशा को देना पड़े थे। इस पराजय के बाद फ्रांस की राजनीतिक स्थिति डवांडोल हो गई एवं तीसरी बार वहां गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसे इतिहास में फ्रांस के तृतीय गणतंत्र के नाम से जाना जाता है। इस पराजय के बाद नैपोलियन तृतीय को बाध्य होकर आत्म-समर्पण करना पड़ा। वह बन्दी बना लिया गया।
जब अगले दिन अर्थात् 3 सितम्बर को यह समाचार फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुंचा तो पेरिस की समस्त जनता के मुख पर यह प्रश्न था कि अब क्या होगा, क्योंकि उनके द्वारा 20 वर्ष पूर्व स्थापित राज-सत्ता अकस्मात ही नष्ट हो गई। जनता अब इस निर्णय पर पहुंची कि फ्रांस में गणतन्त्र शासन की स्थापना की जानी चाहिये। उस समय व्यवस्थापिका सभा का अधिवेशन हो रहा था। जनता ने सभा से उस समय यह प्रस्ताव शीघ्र ही पास करवा लिया कि नैपोलियन तृतीय को फ्रांस के सम्राट के पद से पृथक कर दिया जाये। इस प्रकार नैपोलियन तृतीय का पतन हुआ और फ्रान्स में तीसरी बार गणतांत्रिक सरकार की स्थापना हुई।
नेपोलियन तृतीय के पतन के अगले दिन व्यवस्थपिका सभा के सदस्य पेरिस के सिटी हॉल में गेमबेटा के नेतृत्व में एकत्रित हुये, जिन्होंने यह निश्चय किया कि फ्रांस में गणतन्त्र शासन की स्थापना की जाये। पेरिस की अधिकांश जनता ने उसका साथ दिया। उस समय फ्रांस में तीन दल प्रमुख थे जो गणतन्त्र के समर्थक थे, किन्तु कुछ बातों में उनमें पर्याप्त विभिन्नतायें थीं। किन्तु यह समय पारस्परिक वाद-विवाद और लड़ाई-झगड़े में व्यतीत करने का नहीं था, क्योंकि जर्मन सेना बड़ी तेजी के साथ फ्रांस की ओर बढ़ी चली आ रही थी।
अतः समस्त दलों के लोगों ने सम्मिलित रूप से यह निश्चय किया कि गेमबेटा और थीयर्स के नेतृत्व में सरकार का शीघ्रातिशीघ्र निर्माण किया जाये। प्रशा ने फ्रांस पर जो आक्रमण किया था उसमें फ्रांस पराजित हो रहा था। गेमबेटा आदि व्यक्तियों की यह इच्छा थी कि युद्ध का अन्त नहीं किया जाये, किन्तु-राजसत्तावादी युद्ध का अन्त करने के पक्ष में थे। यह विवाद इतना तीव्र हो गया कि इसका निर्णय करने के लिये एक राष्ट्र प्रतिनिधि सभा का आयोजन करना पड़ा जिसमें संयोग से राजसत्तावादियों की संख्या अधिक थी जिससे स्पष्ट होता है कि फ्रांस की जनता इस समय युद्ध की अपेक्षा शान्ति चाहती थी।
10 मई 1871 ई. को फ्रांस और जर्मनी में सन्धि हो गई जिसके अनुसार फ्रांस को अपने दो समृद्धिशाली प्रान्तों-एल्सेस और लॉरेन से हाथ धोना पड़ा। इनका क्षेत्रफल दस हजार वर्गमील था और इसकी जनसंख्या 16 लाख थी। उसको युद्ध-क्षतिपूर्ति के रूप में बहुत अधिक धन जर्मनी को देना पड़ा। फ्रांस को मेत्ज और स्ट्रासवर्ग के प्रसिद्ध दुर्गो पर जर्मनी का अधिकार स्वीकार करना पड़ा।
तृतीय गणतंत्र की स्थापना के कदम –
थीयर्स के नेतृत्व में जो सामयिक सरकार निर्मित की गई थी वह गणतन्त्र के आधार पर थी, वह उसका राष्ट्रपति था। किन्तु राष्ट्र प्रतिनिधि सभा में राजसत्तावादियों का बहुमत था। देश में शान्ति तथा सुव्यवस्था की स्थापना होने पर राजसत्तावादियों ने राजसत्ता की स्थापना के लिये प्रयत्न करना चाहा। थीयर्स प्रारम्भ में राजसत्तावादी था, किन्तु राजसत्तावादियों में इतना अधिक मतभेद था कि थीयर्स को बाध्य होकर अपने विचारों में परिवर्तन करना पड़ा। अब वह गणतन्त्र का समर्थक बन गया जिसके कारण राजसत्तावादी उसके विरोधी हो गये और उन्होंने राजसत्ता की स्थापना के लिये खुले तौर पर आन्दोलन करना आरंभ किया। थीयर्स उनके इस कार्य को सहन नहीं कर सका। अतः उसने दिसम्बर 1872 ई. में घोषणा की कि यदि फ्रांस में राजसत्ता की स्थापना का प्रयास किया जायेगा तो फ्रांस में पुनः राज्यक्रान्ति हो जाएगी। इस घोषणा का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि राजसत्तावादी उसके विरूद्ध हो गये। उसको गणतंत्रवादियों का भी समर्थन प्राप्त नहीं हो सका, क्योंकि वे उसको बहुत नरम विचारों वाला व्यक्ति समझते थे। मई 1873 ई. उसके विरूद्ध राजतन्त्रवादियों ने एक प्रस्ताव पास किया, जिससे स्पष्ट हो गया कि राष्ट्र प्रतिनिधि सभा का उस पर विश्वास नहीं है और इस परिस्थिति से बाध्य होकर उसको अपने पद से त्याग-पत्र देना पड़ा। अब राजतन्त्रवादियों ने मार्शन मैक्महोम (Mac-Mahon) को राष्ट्रपति के पद पर आसीन किया।
तृतीय गणतंत्र के द्वारा किए गए प्रमुख सुधार –
गणतन्त्र सरकार ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के उपरान्त देश की उन्नति की ओर विशेष ध्यान दिया और उसने निम्नलिखित सुधार किये-
(1) 1884 ई. में यह विधि निर्मित की गई कि फ्रांस की व्यवस्थापिका सभाओं में इस विषय का कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया जायेगा जिसका अभिप्राय गणतन्त्र सरकार का अंत करना होगा।
(2) 1881 ई. में नागरिकों को विभिन्न प्रकार की सुविधायें प्रदान की गई जिनमें भाषण, लेखन और मुद्रण की स्वतन्त्रता विशेष प्रसिद्ध हैं।
(3) श्रमिकों के विरूद्ध जो नियम फ्रांस में प्रचलित थे उनका अंत कर दिया गया। उनको अपना संगठन बनाने की स्वतन्त्रता प्राप्त हुइै।
(4) शिक्षा की दशा को उन्नत करने के लिये शिक्षण कार्य पादरियों से ले लिया गया, क्योंकि वे गणतन्त्र सरकार के नवीन विचारधाराओं का विरोध करते थे। 1881 ई. में सरकार ने ऐसी शिक्षण संस्थायें स्थापित कीं जिनका चर्च से कोई संबंध नहीं था। बाद में उन शिक्षण संस्थाओं का अंत किया गया जिनका संचालन कट्टर धार्मिक संस्थायें तथा सभायें कर रही थीं। शिक्षा 12 वर्ष के बालकों के लिये अनिवार्य घोषित कर दी गई।
(5) नगरपालिकाओं को विशेष अधिकार प्रदान किए गए और उनको अपने सभापतियों के निर्वाचन का अधिकार प्राप्त हुआ।
(6) परित्याग की प्रथा को पुनः स्थापित किया गया।
(7) रेल, तार, सड़कों आदि के निर्माण की समस्त फ्रांस में व्यवस्था की गई।
संविधान निर्माण का कार्य – 29 मई सन् 1875 ई. के एक प्रस्ताव द्वारा निश्चित कर दिया गया कि अब फ्रांस में राजतन्त्र की स्थापना न होकर गणतन्त्र की स्थापना होगी। यह प्रस्ताव केवल एक वोट के बहुमत से पास हुआ। जिसमें निम्नलिखित संवैधानिक बिन्दुओं पर विचार किया गया-
1) फ्रांस का एक राष्ट्रपति होगा जिसका कार्यकाल सात वर्ष निश्चित किया गया।
(2) उसका निर्वाचन व्यवस्थापिका सभा के दोनों सदन सिनेट और प्रतिनिधि सभा संयुक्त बैठक में सम्मिलित रूप से बहुमत के आधार पर करेंगे।
(3) व्यवस्थापिका सभा के दो सदन होंगे-प्रथम सदन चैम्बर ऑफ डैपुटीज और द्वितीय सदन सीनेट कहलायेंगे।
(4) प्रथम सदन के सदस्यों का निर्वाचन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होगा और द्वितीय सदन के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रीति से होगा।
(5) वोट का अधिकार बहुत कम व्यक्तियों को प्रदान किया गया।
(6) प्रथम सदन के सदस्यों का निर्वाचन चार वर्ष के लिये और द्वितीय सदन के सदस्यों का निर्वाचन 9 वर्ष के लिये किये जाने की व्यवस्था की गई।
(7) राष्ट्रपति, मन्त्रिमण्डल की नियुक्ति व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों में से करेगा और
(8) वह व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होगा और
(9) शासन की वास्तविक सत्ता उसके ही हाथ में निहित होगी। इस प्रकार फ्रांस का राष्ट्रपति केवल वैधानिक प्रधान होगा जिस प्रकार वैध राजतन्त्र वाले राज्य में राजा की स्थिति होती है।
गणतंत्र स्थापना के पश्चात फ्रांस की विदेश नीति –
नेपोलियन तृतीय की पराजय और फेंकफर्ट की सन्धि के कारण अन्तर्राष्ट्रीय जगत में फ्रांस के मान और प्रतिष्ठा को बड़ा आघात पहुंचा। इस समय यूरोपीय राजनीतिक रंग-मंच पर जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क का बोलबाला था, जिसने ऐसी नीति का अनुकरण किया कि यूरोप में फ्रांस का कोई मित्र नहीं बन पाये। फ्रांस की औपनिवेशिक नीति के कारण उसके संबंध ग्रेट-ब्रिटेन से अच्छे नहीं थे और बिस्मार्क ने अन्य महत्वपूर्ण राज्यों के साथ राजनीतिक सन्धियाँ कर रखी थीं। जिस समय तक जर्मनी की शासन-सत्ता पर बिस्मार्क का अधिकार रहा वह अपनी नीति में सफल रहा। परन्तु बाद में यह स्थिति नहीं रह पाई।
फ्रांस और रूस की सन्धि-
बिस्मार्क के पद त्यागने पर फ्रांस और रूस की संधि हुई जो ‘द्विगुट संधि’ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुई। इस सन्धि का कारण यह था कि दोनों को जर्मनी का भय था और अब जर्मनी ने बालकन प्रायद्वीप में आस्ट्रिया का पक्ष खुले तौर पर लेना आरंभ कर दिया था। इसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि आक्रमण के समय दोनों एक दूसरे की सहायता करेंगे।
फ्रांस और ग्रेट-ब्रिटेन की सन्धि-
इसके पश्चात् फ्रांस ने ग्रेट-ब्रिटेन के साथ मित्रता करने का प्रयत्न किया। इंग्लैण्ड जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति से आशंकित रहने लगा था और उसने भी अनुभव किया कि उसको किसी यूरोपीय शक्ति से मित्रता करनी आवश्यक है। फ्रांस और इंगलैण्ड ने अपने पारस्परिक झगड़ों का अन्त कर आपस में एक सन्धि की जिसको आंता कोर्डियल कहते हैं। 1907 ई. में रूस भी इसमें सम्मिलित हो गया। इस प्रकार यूरोप में त्रिगुट मैत्री की स्थापना हुई।
मोरक्को-
मोरक्को के प्रश्न पर यूरोप के विभिन्न गुटों में संघर्ष होने की संभावना उत्पन्न हो गई थी, किन्तु आपसी समझौते द्वारा इस प्रश्न का निर्णय कर लिया गया।
इस प्रकार सतत् प्रयत्न करने के पश्चात् फ्रांस ने अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपनी खोई हुई शक्ति तथा प्रतिष्ठा प्राप्त की और उसकी गणना यूरोप के महान राष्ट्रों में पुनः होने लगी।
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