जैन एवम बौध्द धर्मो का उदय एवम कारण- Reasons For The Jainism and Buddhism Rising
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जैन एवम बौध्द धर्मो का उदय एवम कारण-
भूमिका-
उत्तर वैदिक काल के बाद भारत में अनेक सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन हुए , समाज मुख्यत: चार भागो में विभक था,जो पूर्व में कर्म पर आधारित था किंतु कालांतर में यह जन्म के आधारित हो गया , फलस्वरूप 6 वी शताब्दी ई0पू0 में धार्मिक क्रांति का जन्म हुआ। इसका केंद्र मगध था। इस क्षेत्र में इसके भौगोलिक कारणो से वैदिक धर्म का प्रसार नही हो पाया था। तथाआर्यो अनार्यो के मध्य व्यापक सम्बंधो का निर्माण हो रहा था, क्योकि कृषि तथा व्यवसायो के कारण अनार्यो की सेवाए आवश्यक हो गई थी। इस प्रकार के समाज में यज्ञो की जटीलता और आडम्बर के लिये कोई स्थान नही था। वस्तुत: उपनिषदीय विचारधारा उच्च वर्गो तक ही सीमित थी।
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यह एतिहासिक सन्योग है कि जिस जिस समय भारत में धार्मिक उथल-पुथल चल रहा था ठीक उसी समय विश्व के अन्य क्षेत्रो में- ईरान में जरथुस्त्र ,चीन में कंफ्यूशियस तथा यूनान में पर्मानाइड्स जैसे क्रांतिकारी ,चिंतक और धर्म सुधारक हुये। भारत में भी यह धार्मिक क्रांति का युग था।जो कि युगांतकारी घटना के रूप में क्रमश: जैन धर्म एवम बौध्द धर्म का जन्म हुआ।दोनो धर्मो का उदय अत्यंत तेजस्वी महापुरुषो महावीर स्वामी तथा महत्मा बुध्द की व्यक्तिगत साधनाओ के सामाजिक सम्प्रेष्ण का परिणाम था, लेकिन दोनो ही धर्मो को सहज लोकप्रियता मिली उसके पीछे का कारण तत्कालीन समाज में धर्म का आडम्बरपूर्ण होना माना जाता है।
6वी शता0 ई0 पू0 में. धार्मिक आंदोलन के प्रमुख या उदय के कारण-
1.- धर्म की जटिलता-
ऋग्वेदिक धर्म सरल और आडम्बर से मुक्त था। लेकिन धीरे -धीरे धर्म में जटिलता आती गई। कर्मकांड और आडम्बर में वृध्दि हुई। धार्मिक कार्य की दुरुह्ता के कारण पुरोहित आवश्यक हो गया। साधारण व्यक्तियो के लिए धर्म अगम्य हो गया। उत्तर वैदिक काल में तंत्र- मंत्रो और यज्ञो का इतना विस्तार हो गया था कि सरल व सुगम धर्म की उपासना का स्वरुप लुप्त हो गया। ऐसे समय में 6 वी. शता. ई.पू. में लोग नवीन आडम्बर विहीन धर्म की ओर अग्रसर हुये।
2. – यज्ञ और कर्मकांड-
उत्तर वैदिक काल में तंत्र- मंत्रो और यज्ञो का इतना विस्तार हो गया था कि सरल व सुगम धर्म की उपासना का स्वरुप लुप्त हो गया। अनेक यज्ञ तो महीनो और वर्षो तक चलते रहते थे इनमे प्रमुख -वाजपेय, राजसूय, अश्वमेघ थे तथा यज्ञो म्र्न पितृ, ब्रह्म देव यज्ञ थे ।इसी प्रकार पशु बली का प्र्चनल भी थाजो अत्यंत खर्चीले होते थे। वेदियो का निर्माण ,मंत्रो का पठन-पाठन ,अनुष्ठान अत्यंत जटिल हो जाने से इसका व्यय कर पाना साधारण जनता के लिये कठिन हो गया था। जो व्यक्ति इन धार्मिक कार्यो का सम्पादन नही कर पाता था उसे अधार्मिक माना जाने लगा था। ऐसी परिस्थिति में नवीन धर्म का उदय मुक्ति का मार्ग खोल दिया।
3.- देववाद का विकृत स्वरूप-
इस काल में धार्मिक क्रांति का कारण बहुदेववाद था। एक देव की पूजा के स्थान पर अनेक देवी-देवताओ को पूजा जाने लगा जिससे लोगो भटकाव की स्थिति का जन्म होने से उनके मन में अविश्वास की भावना पनपने लगी और वे ऐसे मार्ग की तलाश में अग्रसर हुये। जैन धर्म व बौध्द धर्म जनता की आकांक्षाओ को पूरा किया।
4. – ब्राहम्णो का प्रभुत्व-
समाज में ब्राह्मम्णो क बढते हुये प्रभुत्व का विरोध होने लगा था।वैदिक काल के आरम्भ में उनका जीवन सीधा व सरल था,किंतु बाद में गृह सूत्रो में इनके कर्म कांडो से और अधि वर्चस्व समाज में बढ गया जिससे वे ज्यादा अहन्कारी हो गये। उनका त्यागी जीवन अब नही रहा था। इनके विरोध में एक ऐसे वर्ग का जन्म हो गया जो वैदिक धर्म को त्यागकर एक सरल मार्ग को अपनाना चाते थे।
5. – वर्णो का आपसी संघर्ष-
धार्मिक क्रांति का सामाजिक पक्ष भी था।वर्ण व्यवस्था से समाज में विषमता उत्पन्न हो गई थी।जिससे आपस में सन्घर्ष की स्थिति बनी रहती थी। उत्तर वैदिक काल के बाद भारत में अनेक सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन आए , समाज मुख्यत: चार भागो में विभक था,जो पूर्व में कर्म पर आधारित था किंतु कालांतर में यह जन्म के आधारित हो गया फलस्वरूप 6वी शताब्दी ई0पू0 में धार्मिक क्रांति का जन्म हुआ।
6.- आर्थिक कारण-
धर्म सुधार आंदोलन के आर्थिक कारण भी थी। पूर्वी भारत में लोहे के व्यापक प्रयोग के कारण अर्थव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हो गया था और एक ववीन आर्थिक जीवन का विकास हो गया था। लोहे के प्र्योग से कृषि उत्पादन उपकरणो का अधिक प्रयोग ने उत्पादन क्षमता को बढा दिया था। और एक नये धनाढय वर्ग के उदय से समाज में निम्न वर्ग का भी जन्म हुआ । अमीर वर्ग के लोग विलासिता व आडम्बर युक्त जीवन जीने लगे । भव्य यज्ञ एवम कर्मकांडो से अतिरिक्त खर्चे का भार उथाने के किये कर का भार बढा दिया गया । जिससे आम जनता विरोध करने लगी।
7. – बौध्दिक कारण-
ऋग-वैदिक काल की पहले की धार्मिक सादगी और सामाजिक समानता अब नहीं थी। बाद के वैदिक समय से, धर्म ने अपने आंतरिक पदार्थ को कभी भी बढ़ती बाहरी प्रथाओं में खो दिया। डोगमा और अनुष्ठान अधिक कठोर हो गए। कई देवी-देवताओं को धार्मिक विश्वास में प्रकट किया गया था। अंधविश्वास ने आध्यात्मिकता को छिन्न-भिन्न कर दिया तब ऐसी धार्मिक और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ एक प्रतिक्रिया अपरिहार्य हो गई। ऐसे संत और प्रचारक थे, जिन्होंने पुनर्विचार के लिए खुलकर आवाज उठाई। यह इस मानसिक माहौल में था कि प्रबुद्ध प्रगति के युग में जैन और बौद्ध धर्म दो शक्तिशाली धार्मिक आंदोलनों के रूप में उभरे। लंबे समय में, जैन और बौद्ध आंदोलन, विशेष रूप से बौद्ध, ने मानव इतिहास में दूरगामी परिणाम प्राप्त किए।
दार्शनिको का योगदान-
6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व ने भारत में पुरुषों के मन में एक बड़ी अशांति देखी। यह भारतीय समाज में नएपन और सुधार के लिए एक आध्यात्मिक और धार्मिक जागृति की तरह था। उपदेशक और भटकने वाले भिक्षुओं द्वारा महावीर और बुद्ध की उम्र से पहले एक बदले हुए दृष्टिकोण के लिए मैदान तैयार किए जा रहे थे जिन्होंने मौजूदा धार्मिक परिस्थितियों और सामाजिक व्यवस्था के मूल्य के बारे में संदेह व्यक्त किया था। एसी स्थिति मे धार्मिक विचारको एवम दार्शनिको का विशेष योगदान रहा। बौध्द ग्रंथो में 62 तथा जैन ग्रंथो में 363 सम्प्रदायो की संख्या दी गई है जिनमे आजीवको, मुंडश्रावको, निग्रंथो, जटिलको, परिब्राजको आदि प्रमुख दार्शनिक विचारक रहे है जो आडम्बर पूर्ण धर्म की कटु आलोचना करके लोगो को सरल मार्ग अपनाने का मार्ग दिखाया।