भारतीय परंपरा के संवाहक :भारतीय मंदिर

परिचय : भारत मंदिरों का देश कहा जाता है। समूचे देश में विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिर आज भी पाये जाते हैं। मंदिर भारतीय स्थापत्य कला का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। भारत में मंदिर-निर्माण की परम्परा का प्रारूप बौद्ध स्तूपों और चैत्यों में पाया जा सकता है। गुप्तकाल में इन्हीं से प्रभावित होकर हिन्दू मंदिरों का विकास हुआ था। मानव ने अपनी धार्मिक आस्थाओं को अभिव्यक्त करने के लिए जिन प्रतीकों का निर्माण किया, उनसे मूर्ति पूजा आरंभ हुई। ईश्वर की विविध रूपों में कल्पना की गई। देवी-देवताओं के मूर्त रूपों की पूजा हेतु स्थापना के लिए जो सुन्दर भवन निर्मित हुए, वह भवन ‘मंदिर’ कहलाये।

भारतीय मंदिर का विकास-

सामान्य परिचय – मंदिर वास्तुकला एक ऐसी प्रक्रिया थी जो विभिन्न राजवंशों के तहत समय के साथ धीरे-धीरे विकसित हुई।.मौर्य काल के अंत के बाद से पाँच शताब्दियों के अंतराल के बाद, गुप्त राजवंश ने भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में अपना शासन स्थापित किया। इसने खंडित राजनीति के युग को समाप्त कर दिया। इस एकीकृत शासन ने समान कानून, विनियम, कर, प्रशासन, मुद्रा आदि प्रदान किए। इसने कला, संस्कृति और वास्तुकला के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करने में मदद की, जिसे मंदिरों, गुफाओं, मूर्तियों आदि में देखा जा सकता है। मंदिर वास्तुकला के चरणों को निम्न दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

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  1. मंदिर की प्रतीकात्मकता :

कहा जाता है कि मंदिर की संकल्पना भवन के रूप में न होकर वास्तु पुरुष अथवा देवता के रूप में की गई। इसीलिए मंदिर के विभिन्न अंग, पुरुष अंगों के समान कल्पित किये गये हैं, जैसे-चरण-चौकी (अधिष्ठान या चबूतरा),पाद, जंघा, कटि, वक्ष, स्कन्ध, ग्रीवा, ललाट, मुख, नासिका, शिखर आदि। जिस प्रकार जीवात्मा के बिना शरीर निष्प्राण होता है, उसी प्रकार देवता (देवमूर्ति) की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद ही मंदिर को देवालय समझा जाता है। मंदिर को राजराज भी कहा गया है। इसीलिए राजा के समान आसन, पादपीठ, छत्र, गर्भगृह, गूढ़गृह, सभागृह, परकोटे तथा देवोपासना की परम्परा मंदिरों से जुड़ गई है। मंदिर की परिक्रमा ब्रह्माण्ड की परिक्रमा के तुल्य मानी गई है, तभी अष्टदिक्पाल, देव, दनुज, मनुष्य, किन्नर, गन्धर्व, पशु, पक्षी तथा नाना प्रकार के जीव-जन्तु मंदिर की दीवारों पर विराजते हैं। इसी प्रकार मंदिर के पक्खों पर लगी गंगा-यमुना की मूर्तियाँ मंदिर में पवित्र होकर प्रवेश करने का प्रतीक है और चौड़े आधार के ऊपर नुकीला सूक्ष्म शिखर संभवतः जगत् की स्थूलता से ज्ञान की सूक्ष्मता की ओर जाने का संकेत है। इस प्रकार हिन्दू मंदिर एक जीवंत और अनन्त दैवी भावना का प्रतीक है। हिन्दू मंदिर की वास्तु-योजना तत्कालीन सामाजिक जीवन की एक महान् घटना थी, जिससे सम्पूर्ण जनमानस प्रेरित और प्रभावित रहा। अतः मंदिर केवल पूजागृह ही नहीं, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के केन्द्र भी बने।

  1. मंदिरवास्तु का उद्भव एवं विकास :

‘डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल’ ने भारत में मंदिरवास्तु के उद्भव और विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। उनके मतानुसार, भारत में हिन्दू मंदिरों का विकास कई चरणों में हुआ था। भारतीय इतिहास में, गुप्त काल को मंदिर वास्तुकला की शुरुआत माना जाता है; पहली बार देवताओं के लिए अलग-अलग संरचनाओं का निर्माण किया गया था। गुप्त शासकों के अधीन, पाँच चरणों में मंदिरों के निर्माण का विकास देखा गया था। मंदिर वास्तु के विकास को दो चरणों में देखा जा सकता है –

  1. प्रथम चरण
  2. द्वितीय चरण
  3. तृतीय चरण

प्रथम चरण –

‘विकास के प्रथम चरण’ के प्रारम्भ में केवल खुले स्थान में प्रायः “वृक्ष के नीचे केवल एक ‘चत्वर’ या ‘चबूतरा’ ही पूजा स्थल हुआ करता था, जहाँ मंत्र अथवा पुष्प, जल, मिष्ठान, धूप-दीप आदि से देव-पूजा की जाती थी।” प्रारम्भ में पृथ्वी माता, यक्षों अथवा नागों के मंदिर ही रहे होंगे। यक्ष-सदन का उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में पाया गया है।

‘वैदिक युग’ में यज्ञ वेदियाँ बनाई जाती थीं, जिन्हें शतपथ ब्राह्मण के अनुसार चारों ओर से चटाई से ढका जाता था। यज्ञशाला को प्रवेशार्थ पूर्व से खुला रखा जाता था। ‘तैत्तिरीयसंहिता’ में, इस झोपड़ी सदृश्य संरचना को ‘गर्भगृह’ कहा गया है। ‘आप स्तम्ब श्रौतसूत्र’ के अनुसार, यह संरचना वेदिका को शेष स्थल से विलग करती थी। यज्ञशाला के उक्त स्वरूप से ही संभवतः मंदिर वास्तु के विकास को प्रेरणा मिली।

अशोक द्वारा ‘लुम्बिनी’ में पूजा स्थल के चतुर्दिक बनवाई गई दीवार, तीसरी-चौथी शताब्दी ई.पू. कुछ रजत मुद्राओं पर अंकित वृक्ष, चैत्य के लांछन, अहिच्छत्रा (रामनगर, जिला बरेली) के आसपास मिले पांचाल शासकों के ताँबे के सिक्कों पर उत्कीर्ण चबूतरे पर विष्णु एवं वेदिका से आवृत चबूतरे पर अन्य देवताओं के अंकन, पांचाल क्षेत्र से ही जयगुप्त, इन्द्रगुप्त आदि की मुद्राओं पर उत्कीर्ण उन्नत चबूतरे पर वर्तुलाकार छतयुक्त कक्ष एवं उसके ऊपर उभरा कलश जैसा एवं छत के दोनों ओर आगे को निकले छज्जों आदि की आकृतियों ने मंदिरवास्तु के स्वरूप निर्धारण एवं विकास को प्रेरित किया होगा।

द्वितीय चरण –

‘विकास के द्वितीय चरण’ में चबूतरे को एक वेदिका से घेर दिया गया था। यह वेदिका प्रारम्भ में बाँस और लकड़ी से तथा बाद में पत्थर से बनाई गई थी। चत्वर तथा वेदिका वाले मंदिरों की पहचान तृतीय शताब्दी ई.पू. के नागरी की नारायण वाटिका (विष्णु मंदिर) से हो सकती है, जिसमें ‘पूजा शिला प्राकार’ था। इसी की प्रेरणा से कालान्तर में बौद्ध तथा जैन स्तूपों में वेदिका का प्रयोग हुआ था। जैन आयागपट्ट भी वेदिका युक्त चबूतरों पर ही अर्हतों की पूजा के लिए स्थापित किये जाते थे।

मौर्यकालीन मंदिरों के अवशेष बैराठ तथा साँची (मंदिर संख्या 18 और 40) से भी पाये गये हैं। द्वितीय शताब्दी ई.पू. में ‘बेसनगर’ में भी एक विष्णु मंदिर था, जिसके समक्ष हेलियोडोरस ने गरुड़ ध्वज स्तम्भ स्थापित करवाया था। मथुरा के अभिलेखों में ‘वासुदेव’ तथा ‘पंचवीरों’ के मंदिरों का उल्लेख मिलता है। ये मंदिर ‘शक क्षत्रप सोडाष’ के शासनकाल (प्रथम सदी ई.पू.) में बनाये गये थे।

तृतीय चरण –

मंदिर के विकास के तीसरे चरण में ‘ईष्टदेवों की प्रतिमाओं’ का अंकन प्रारम्भ हुआ। बुद्ध बोधिसत्व, जैन तीर्थंकर तथा शिव, विष्णु, वासुदेव की प्रतिमाओं को अर्चना के निमित्त गढ़ा जाने लगा और वर्षा व धूप से बचाने हेतु इन पर छत्र लगाया जाने लगा। बौद्धों ने भी इन्हीं कारणों से अपने स्तूपों के ऊपर चैत्यागृहों का निर्माण किया था। स्तम्भों के ऊपर टिके माँगलिक चिह्नों तथा पद्यदलों से अलंकृत इस मण्डप-स्वरूप ने ही ‘गर्भगृह’ को जन्म दिया और स्तम्भों का स्थान दीवारों ने ले लिया। इस प्रकार चबूतरे पर एक कक्ष के रूप में मंदिर का प प्रकट हुआ, जिसके भीतर देव-प्रतिमा की प्रतिष्ठा थी। इसके बाद गुप्तकाल में (चतुर्थ से छठी शताब्दी ई.पू.) मंदिर के विभिन्न अंगों का विस्तार और विकास हुआ। इनकी प्रमुख विशेषताओं को निम्नवत देखा जा सकता है –

गुप्तकाल के मंदिरों के मुख्य अंग :

गुप्तकाल में जगती, गर्भगृह, प्रवेशद्वार मण्डप और शिखर, मंदिर के मुख्य अंग होते थे।

  1. जगती : यह वह चबूतरा होता है, जिसके ऊपर मंदिर का निर्माण किया जाता था। यह दो-ढाई फीट से बढ़ते-बढ़ते 25 फीट हो गया। उदाहरण के लिए ‘एलोरा का कैलाश मंदिर।’
  2. गर्भगृह : यह मंदिर का मुख्य कक्ष होता था, जिसमें देव-प्रतिमा की स्थापना की जाती थी। यह गर्भगृह तीनों ओर दीवारों से बन्द होता था तथा एक ओर मुख्य प्रवेश द्वार रहता था। गुप्तकाल में गर्भगृह चौकोर होते थे। प्रारम्भ में ये दीवारें सादी होती थीं, किन्तु समय के बदलाव के साथ-साथ भीतरी व बाहरी ताकों में देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ रखी जाने लगीं और बाहरी दीवारों को अलंकृत किया जाने लगा, जिनमें किन्नर, गन्धर्व, अप्सराएँ मांगलिक मिथुन, पशु, पक्षी और लता-गुल्म आदि मुख्य अलंकरण थे। ‘देवगढ़ के दशावतार मंदिर’ के गर्भगृह की तीनों दीवारों पर विशाल ताकों में नर-नारायण, शेषशायी विष्णु तथा गजेन्द्र मोक्ष के सुन्दर दृश्य अंकित हैं। कालान्तर में बाहर की दीवारों में अनेक मोड़ दिये जाने लगे। कई-कई मोड़ की दीवारों वाले गर्भगृह अथवा शिखर को उन मोड़ों की संख्या के आधार पर ‘त्रिरथ’, ‘पंचरथ’ अथवा ‘सप्तरथ’ कहा जाने लगा।
  3. प्रवेश द्वार : प्राचीन काल में प्रवेश द्वारों का अंकन साधारण होता था, किन्तु दोनों पक्खों में गंगा और यमुना की मूर्तियाँ स्थापित रहती थीं। अहिच्छत्रा में बने गुप्तकालीन शिव मंदिर के पक्खों पर मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना की आदमकद विशाल मृण्मूर्तियाँ मिली हैं, जो वर्तमान में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में हैं। आगे चलकर प्रवेश द्वारों का भव्य निर्माण होने लगा। इनमें कई द्वारशाखाएँ बनाई जाने लगीं, जैसे-प्रतिहारी शाखा, प्रमथ शाखा (गणों का अंकन), मिथुन या दम्पति शाखा, पत्रलता शाखा आदि। कालीदास ने अपनी कृति ‘मेघदूत’ में पद्य और शंख जैसे मांगलिक चिन्हों को प्रवेश द्वार पर बनाने का उल्लेख किया है।
  4. मण्डप : प्रारम्भ में गर्भगृह के सामने एक छोटा सा स्तम्भयुक्त मण्डप होता था, जो प्रायः तीनों ओर से खुला रहता था। साँची के मंदिर संख्या 17 में उपरोक्त प्रकार का बरामदा मिलता है। आगे चलकर यह बरामदा गर्भगृह के चारों ओर भी बनाया जाने लगा। संभवतः इसका मुख्य कारण मंदिर की प्रदक्षिणा को सुविधाजनक एवं सुगम बनाने के लिए किया गया हो और फिर बाद में गर्भगृह के आगे विशाल मण्डप, जो सभा कक्ष के रूप में या फिर पूजा के समय भक्तगणों को उस मण्डप में एकत्र होने के लिए।
  5. शिखर : गर्भगृह की बाहरी दीवारों पर कोणों के अनुरूप शिखर बनाया जाने लगा। प्रारम्भ में यह शिखर छोटा बनता था, बाद में यह अधिक ऊँचा होता गया। मंदिर पर दो शिखर बनाने का रिवाज़ था। एक गर्भगृह के ऊपर अधिक ऊँचा और दूसरा मण्डप के ऊपर थोड़ा कम ऊँचा। गर्भगृह के ऊपर वाला शिखर शीर्ष पर जाकर आमलके, कलश और पताकायुक्त छत्र से अलंकृत किया जाता था। वास्तुकला के मूर्धन्य विद्वान ‘कृष्णदेव’ की मान्यता है कि चौड़े आधार और नुकीले सूक्ष्म शिखर वाले मंदिर जगत् की स्थूलता और ज्ञान की सूक्ष्मता के सम्मिलित स्वरूप हैं। यह शिखर हमें सांसारिकता से ऊपर उठने का उपदेश देता है।

श्री करुणा शंकर शुक्ल’ ने ‘कांसेप्ट ऑफ इंडियन टेम्पुल एण्ड इट्स एवोल्यूशन” ‘Concept of Indian Temple and its Evolution’ में कहा है कि शिखर की कल्पना मनुष्य को पर्वतों की चोटियों, सघन वृक्षों और समाधिस्थ ऋषि-मुनियों की आकृतियों से प्राप्त हुई है। कन्दराओं में रहने वाले प्रारंभिक मानव ने पर्वत की गगनचुम्बी चोटियों को ही ईश्वर का निवास स्थान समझा था। कालान्तर में जब मनुष्य पर्वत की कन्दराओं को छोड़कर मैदानों में आया, तो देवी सत्ता का आकार उसे उन सघन वृक्षों की शिखाकार ऊँचाई में दिखाई दिया, जिसके स्वादिष्ट फल उसके आहार बने और जिसकी शीतल छाया में उसने तपती धूप में शरण पाई। इसी प्रकार सभ्यता के अगले विकास-चरण में पालथी मारकर तपस्या में लीन ऋषि-मुनियों के तेज से प्रकाशित मुखों के ऊपर नुकीले जटाजूट में मनुष्य ने अपने इष्टदेव का निवास परिकल्पित किया ।

 

गुप्तकालीन प्रमुख मंदिर : गुप्तकालीन मंदिरों को दो कोटियों में रखा जा सकता है-

(1) गुहा मंदिर तथा

(2) संरचनात्मक मंदिर।

गुहा मंदिर : पहाड़ी चट्टानों को काट तराशकर आवास के लिए गुफाएँ बनाने का प्रचलन मौर्य काल से मिलता था। शुंग सातवाहन काल में पश्चिमी घाट में नासिक, कार्ले, बेडेसा, भाजा आदि में बौद्धों ने चैत्य तथा विहारों का निर्माण किया था। इसके पश्चात् 8वीं शताब्दी तक महाराष्ट्र के ‘अजन्ता’, ‘ऐलिफैन्टा’ एवं ‘ऐलोरा’ में अनेक बौद्ध, हिन्दू तथा जैन गुफा मंदिरों का निर्माण हुआ। दक्षिण भारत में भी संकाराम, गुण्टपल्ली तथा नागार्जुनकोण्ड में ऐसे ही गुहा चैत्यों का निर्माण हुआ था। मध्यप्रदेश में विदिशा के निकट उदयगिरी की पहाड़ी पर भी गुप्तकालीन मंदिर मिले हैं।

संरचनात्मक मंदिर : संरचनात्मक मंदिर गुप्तकाल में उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश तथा आन्ध्रप्रदेश में मिलते हैं। ये मंदिर अनेक चरणों में विकसित हुए। ‘डॉ. आनन्द कुमारस्वामी’ ने आकार और शैली की दृष्टि से इन्हें तीन कोटियों में माना है-

(1) सपाट छतों वाले मंदिर,

(2) शिखर मंदिर,

(3) चैत्यनुमा, अर्द्धवृत्ताकार मंदिर।

गुप्तकाल के प्रारम्भिक मंदिरों में छोटे आकार के सपाट छत वाले मंदिर बने थे। इनमें साँची का बौद्ध मंदिर, संख्या 17, मुकुन्दरा का मंदिर, मध्यप्रदेश में (जबलपुर के निकट) तिगवा का विष्णु मंदिर।

 

चित्र- तिगवा का विष्णु मंदिर, जबलपुर के निकट, मध्यप्रदेश

गुप्तकालीन मंदिरों के द्वितीय चरण में गर्भगृह के चारों ओर बन्द प्रदक्षिणापथ तथा ऊँची जगती का निर्माण हुआ। इसमें नचना का पार्वती मंदिर, भुमरा का शिव मंदिर, पिपरिया का विष्णु मंदिर, सतना जिले में खोह, ऊँचेहरा, नागौद तथा मढ़िया नामक स्थानों पर भी प्रारम्भिक गुप्तकालीन मंदिर मिले हैं।

गुप्तकालीन शिखर मंदिर: गुप्तकाल में बने मंदिरों का अगला विकास उनके गर्भगृह के ऊपर सपाट छत के स्थान पर शिखर के रूप में आया, जो ऊँचे और नुकीले अथवा पिरामिडनुमा थे। इस प्रकार के मंदिरों में झांसी के निकट ‘देवगढ़ का दशावतार मंदिर’, कानपुर जिले का ‘भीतरगाँव का इष्टिका मंदिर’, ‘बोधगया का बुद्ध मंदिर’ तथा मध्यप्रदेश के रायपुर जिले में ‘सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

दक्षिण में मुख्य झाँसी राजमार्ग पर बेतवा नदी के एक तरफ ‘देवगढ़’ (देवों का दुर्ग) और दूसरी तरफ ‘चन्देरी का किला’ स्थित है। 9वीं शताब्दी तक यहाँ पर सेनाओं के काफिलों का आना-जाना रहा। सत्ता कभी हिन्दुओं के हाथ में, तो कभी मुसलमानों के हाथ में रही। विध्वंस और निर्माण दोनों का सिलसिला यहाँ चलता रहा।

देवगढ़ के किले के अन्दर प्राचीन जैन मंदिर हैं, जिनमें से ज्यादातर मंदिर नवीं और दसवीं शताब्दी के आसपास निर्मित हैं। पाँचवीं शताब्दी के एक मंदिर में वराह अवतार की मूर्ति प्रतिष्ठापित है। मुख्य मंदिर की सम्पूर्ण बाहरी सतह पर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। कुछ आकृतियाँ खड़ी स्थिति में हैं, तो कुछ नृत्य की मुद्रा में, तो कुछ कमल स्थिति रूप में है। सभी मूर्तियों की साज-सज्जा, केश-सज्जा इत्यादि एक-दूसरे से भिन्न हैं। गुप्तकाल में मूर्तियाँ लाल बलुए पत्थर से निर्मित हैं। इन मूर्तियों में रमणीयता, सुन्दरता, शुद्धता व शिष्टता है, जो देवगढ़ की विशेषता है।

विष्णु दशावतार मंदिर : देवगढ़ के दुर्ग के नीचे कुएँ के पास एक मैदान में ‘विष्णु दशावतार मंदिर’ स्थित है, जिसका निर्माण काल पाँचवीं या छठी शताब्दी माना जाता है। यह बेतवा नदी के किनारे से थोड़ी दूर पर स्थित है। यह मंदिर गर्भगृह शिखर, प्रस्तर स्थापत्य से युक्त है।

 

अतः देवगढ़ मंदिर इससे पहले का है या बाद का, यह कहना कठिन है, क्योंकि देवगढ़ के विष्णु मंदिर को ‘दयाराम साहनी’ ने आरम्भिक गुप्तकाल में रखने की चेष्टा की है और ‘पृथ्वी कुमार’ ने उसका समय 400 से 430 ई. बीच अनुमान किया है।

गुप्त काल में मंदिर-वास्तु का जो स्वरूप विकसित हुआ, वह आगे चलकर मध्यकाल में उत्तरोत्तर विकसित होता गया। इस युग में वास्तुशिल्प पर आधारित अनेक ग्रंथों की रचना हुई (मानसोल्लास, समरांगणसूत्रधार, शिल्प प्रकाश, अपराजितपृच्छा, मानसार आदि) और उपरोक्त शिल्प ग्रंथों की शास्त्रीय पद्धति पर मंदिरों का निर्माण किया जाने लगा।

 

मध्य प्रदेश के मंदिर

परिचय– गुप्तकाल के बाद मध्य प्रदेश के प्रतिहार, परमार, कल्चरि, कच्छपघात आदि विभिन्न राजवंशों के राजाओं द्वारा मंदिर निर्माण की परम्परा का निरन्तर विकास होता रहा। विभिन्न प्रकार के मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनमें ‘नरेसर’, ‘ग्वालियर’, ‘बरूआ सागर’, ‘खरोद’, ‘ग्यारसपुर’, ‘नोहटा’, ‘सोहागपुर’, ‘सुरवाया’, ‘सुहनिया, मितावली’, ‘छत्तीसगढ़’ और ‘खजुराहो’ प्रमुख हैं।

नरेसर (जिला मौरेना) में 20 मंदिरों का समूह : यह ग्वालियर से लगभग 18 किलोमीटर दूर घने जंगलों में स्थित है। ये मंदिर प्रारम्भिक प्रतिहार कला के उत्तम उदाहरण हैं।

इन मंदिरों में चौकोर गर्भगृह है, जिसके ऊपर चापदार त्रिरथ शिखर है। प्रवेश द्वार लतागुल्मों तथा सर्पकुंडलियों से सजे हैं और दीवारों के आलों पर शैव धर्म के देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ हैं, जैसे-कार्तिकेय, गणेश, मातृदेवियाँ, शिव-पार्वती विवाह, पार्वती आदि।

तेली का मंदिर : ग्वालियर में स्थित तेली का मंदिर ग्वालियर के प्रतिहार स्थापत्य का सुन्दर नमूना है। इसमें आयताकार गर्भगृह और ढोलकाकार छत है। दीवारों पर पाँच- पाँच उभार हैं, जो ऊपर से चापदार मेहराब से ढके हैं।

प्रवेशद्वार पर पाँच द्वार शाखाओं तथा गंगा-यमुना की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर से प्राप्त अभिलेख की लिपि के आधार पर इसका निर्माण मिहिर भोज के काल में 850 ई. में हुआ था।

सास-बहू का मंदिर : ग्वालियर में ही कच्छपघात वंश के राजा महीपाल ने दो विष्णु मंदिरों का निर्माण करवाया था, जिसे सास-बहू का मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर में तिमंजिला मण्डप, दो मंजिला अन्तराल तथा तीन अर्द्धमण्डप हैं। मंदिर बाहर एवं अंदर से मूर्तियों और अलंकरणों से सजा है।

बरूआ सागर विष्णु मंदिर-

झाँसी से लगभग तीन किलोमीटर दूर झाँसी मऊ-रानीपुर मार्ग पर ‘बरूआ सागर विष्णु मंदिर’ है। दो छोटे मंदिर पंचायतन शैली में निर्मित हैं। मुख्य मंदिर चौकोर गर्भगृह के ऊपर पंचरथ शैली में शिखर से मुक्त है।

प्रवेश द्वार का ललाटबिम्ब गजलक्ष्मी के रूप में है। गंगा-यमुना की मूर्तियों के साथ कतिपय मिथुन मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण हैं। उसके ऊपर विष्णु, अगल-बगल ब्रह्मा और शिव हैं। नीचे नवग्रह की आकृतियाँ हैं। चार घोड़ों से जुड़े रथ पर सूर्य की प्रतिमा उकेरी गई है।

मालादेवी मंदिर : 9वीं शताब्दी में बना विदिशा जिले में ग्यारसपुर का मालादेवी मंदिर प्रतिहार शैली का है।

यह मंदिर आधा चट्टान तराशकर एवं आधा पत्थर से निर्मित है। इसका गर्भगृह त्रिरथ तल योजना और शिखर पंचरथ है। साथ में मण्डप, अन्तराल एवं अर्द्धमण्डप सभी अंग निरूपित हैं। इस मंदिर में यक्ष-यक्षियों की अत्यन्त सुन्दर प्रतिमाएँ पाई गई हैं।

महादेव मंदिर : जबलपुर से 22 किलोमीटर दूर दमोह की दिशा में ‘नोहटा का महादेव मंदिर’ है, जो 10वीं शताब्दी ई. में निर्मित है।

मंदिर में ऊँचे अधिष्ठान के ऊपर चौकोर गर्भगृह है। उसके ऊपर चाप की आकृति का ऊँचा पंचरथ शिखर, जिसकी ग्रीवा के ऊपर दोहरा आमलक है।

भारतीय स्तूप, मठ एवं घटिकाएं –

नालंदा-

परिचय – नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर, मुख्य मंदिर और स्तूप (5वीं शताब्दी) प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं शताब्दी में हुई थी और 12वीं शताब्दी तक ज्ञान का यह पीठ स्थान अपने चरमोत्कर्ष की अवस्था में था। इसका निर्माण ‘राजा कुमारगुप्त’ ने करवाया था। यह विश्व का प्रथम आवासीय अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय था और इसे राष्ट्रीय महत्त्व का अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय नामित किया गया।

भौगोलिक स्थिति – नालंदा 62 किलोमीटर बोधगया से, 90 किलोमीटर पटना के दक्षिण पूर्व में स्थित है। यह राजगीर से 12 किलोमीटर और दिल्ली हावड़ा मुख्य रेल्वे लाइन से जुड़ा है। यहीं से दक्षिण-पूर्व में एक गाँव है जिसे ‘वडा गाँव’ कहकर पुकारते हैं। यहीं पर विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष हैं।

प्रमुख विशेषताएं –

  • नालंदा विश्व के विद्यार्थियों को आकर्षित करता था। नालंदा विश्वविद्यालय में 10 हजार विद्यार्थी और 2000 शिक्षक थे।
  • यहाँ पर तिब्बत, चीन, कोरिया और मध्य एशिया से छात्र पढ़ने आते थे। विद्यार्थियों को पढ़ाये जाने वाले विषयों में बौद्ध धर्म के शास्त्र, बुद्ध के महायान व हीनयान स्कूल, वेद, हेतु विद्या, संस्कृत, सामाख्य, तर्क, शब्द विद्या, चिकित्सा विद्या और व्याकरण थे।
  • विश्वविद्यालय को हर्षवर्धन और पाल राजाओं का राजसी आश्रय प्राप्त था। नालंदा महाविहार 5वीं और 6वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के सान्निध्य में निखरा व इसका विकास हुआ।
  • नालंदा बुद्ध की यादगार जगह है। सर्वप्रथम पालि भाषा में इसका साहित्य मिलता है।
  • जैन तीर्थंकर महावीर वर्धमान ने वर्षा के 14 वर्ष नालंदा में बिताये थे। गौतम बुद्ध के बारे में भी यही कहा जाता है कि उन्होंने आम के पेड़ के नीचे जिसे ‘पावारिका’ कहा जाता है, में अपने उद्बोधन दिये थे।
  • बताया जाता है कि तीसरी शताब्दी में मौर्य और बौद्ध राजा सम्राट अशोक ने नालंदा में अनेकों मंदिर विहार और मठों का निर्माण करवाया था। साथ ही एक विशाल मंदिर का निर्माण सारिपुत्र चैत्य की जगह भी कराया था।

उत्खनन से प्राप्त :

नालंदा में उत्खनन का कार्य दो बार चला। 1915 से 1937 और 1974 से 1982 तक। सन् 1915 में भली प्रकार से उत्खन्न कार्य प्रारम्भ हुआ जिसमें 11 मठ और 6 ईंटों से निर्मित मंदिर मिले हैं जो 12 हैक्टेयर जमीन पर स्थित हैं। उत्खनन में प्राप्त संरचनाएँ 488 मीटर उत्तर से दक्षिण और 244 मीटर पूर्व से पश्चिम में हैं।

चित्र- नालंदा विश्वविद्यालय व मठों का क्षेत्र

मंदिर-3 :

  • मंदिर-3 नालंदा की संरचनाओं में से सबसे प्रतिष्ठित एवं भव्य है।
  • यह 13.14.15 मठों के समक्ष है और पूर्व दिशा में स्थित है। इसकी सीढ़ियों की कई उड़ानें हैं जो ऊपर तक जाती हैं।
  • टावर्स और सीढ़ियों के अधिग्रहण पर गुप्तकाल के पैनल सज्जित हैं जहाँ प्लास्टर में बनी विविध आकृतियाँ दर्शित हैं।
  • प्रमुख रूप से बुद्ध और बोधिसत्व एवं जातक कथाओं के दृश्य अंकित हैं। मंदिर दालान के बीचोंबीच स्थित है और इसके चारों तरफ अनेक स्तूप ही स्तूप हैं जिनमें ज्यादातर स्तूप मुख्य स्तूप के ऊपर दूसरी या तीसरी बार बनाये गये हैं।
  • नालंदा में प्राप्त सभी मठ दिखावट में एक समान हैं।
  • यह भी कहा गया है कि बहुत संभावना है कि नालंदा की तोड़-फोड़ की गई और इसे नष्ट किया गया।
  • दिल्ली सल्तनत की मामलुक वंश की सेना जो बख्तियार खिलजी के अधीन थी, ने इसे 12वीं शताब्दी में नष्ट किया और भारत के उत्तर से पूर्व तक का हिस्सा अपने अधीन कर लिया।
  • इसे नष्ट करने का मुख्य ध्येय बौद्धिक और आध्यात्मिक परम्पराओं को खत्म करना था, जो इस्लाम की प्रतिस्पर्धा में था।
  • 1235 में तिब्बती तीर्थयात्री ‘छाग लोतसावा’ को 90 वर्ष का बुजुर्ग शिक्षक ‘राहुल श्रीभद्रा’ मिला जो 70 विद्यार्थियों की कक्षा लेता था।
  • श्रीभद्रा स्थानीय ब्राह्मण के सहयोग से वहीं रहा और आखिरी तिब्बती विद्यार्थी को पढ़ाता रहा जब तक उसकी पढ़ाई पूरी खत्म नहीं हुई।
  • हाल ही में एक युवा ‘श्री गोपालजी’ दावे के साथ आगे बढ़कर आये हैं और नालंदा विश्वविद्यालय को उसके वर्तमान खण्डहर पर दुबारा निर्माण करने की ठानी है।
  • ‘लाल सिंह त्यागी’ एक बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी जो बिहार सरकार में पंचायत मंत्री थे ने वैदिक मंत्रों के बीच इसकी नींव रखी है।
  • वर्तमान में यूनेस्को ने इसे ‘वर्ल्ड हैरिटेज सेन्टर’ घोषित किया है।

 

मध्यकालीन भारतीय मंदिरों का विकास

भारतीय मंदिरों को मुख्य रूप से तीन शैलियों में विभाजित किया जा सकता है

मंदिर वास्तुकला की विभिन्न शैलियाँ:

  1. नागर शैली
  2. द्रविड़ शैली
  3. बेसर शैली

 

नागर शैली

यह मंदिर वास्तुकला की सबसे पुरानी शैली है। यह गुप्त काल में प्रारम्भ होकर धीरे-धीरे विकसित हुआ तथा कई अलग-अलग शैलियों में विभाजित हुआ। यह शैली भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में विकसित हुआ।

वास्तुकला की नागर शैली की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं-

  1. इस प्रकार के मंदिर एक ऊँचे चबूतरे पर बनाया जाता था जहाँ सीढ़ियों के द्वारा पहुँचा जा सकता था।
  2. चौकोर आकार की भू-योजना, जिसके तीन किनारों पर प्रक्षेपण बनाया गया था, ने इसे क्रूस का आकार दिया।
  3. गर्भग्रह हमेशा सबसे ऊँचे शिखर के नीचे बनाया गया था।
  4. गर्भगृह, चारों ओर से चलने फिरने के मार्ग, या प्रदक्षिणा पथ, से घिरा होता था।
  5. इसमें विस्तृत चारदीवारी नहीं होती है।
  6. शिखर पर आमलक या कलश स्थापित किया गया।
  7. मंदिर के आसपास के क्षेत्र में पानी के टंकी या जलाशयों की अनुपस्थिति।
  8. मंदिर की दीवार को तीन ऊर्ध्वाधर विमानों में विभाजित किया गया था, जिन्हें रथ के नाम से जाना जाता था। इन्हें त्रिरथ मंदिर कहा जाता था।
  9. बाद के समय में पंचरथ, सप्तरथ और यहां तक कि नवरथ मंदिरों का भी निर्माण किया गया।

नागर शैली के प्रकार:

शिखर के प्रकार के आधार पर, नागर शैली के मंदिरों को आगे तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है:-

  1. रेखा प्रासाद या लैटिना:
  • यह शिखर का सबसे सरल प्रकार है।
  • इस शैली के तहत, शिखर आधार पर वर्गाकार था, और इसकी दीवारें शीर्ष पर एक बिंदु तक घुमावदार या अंदर की ओर झुकी हुई होती थीं।
  • शीर्ष को ‘लैटिना’ कहा जाता है।
  • बाद में, जैसे-जैसे लैटिना संरचनाएं अधिक जटिल होती गई, मंदिर में कई छोटे स्तंभों का निर्माण होना शुरू हुआ, जिन्हें उभरते पहाड़ों की तरह एक साथ समूहीकृत किया जाता था। इनमें सबसे ऊंचा स्तम्भ केंद्र में स्थित होता था और हमेशा गर्भगृह से ऊपर होता था।

उदाहरणः-

  1. मध्य प्रदेश के मरखेड़ा में सूर्य मंदिर 2. ओडिशा का श्री जगन्नाथ मंदिर
  2. फमसाना :
  • रेखा प्रासाद प्रकार की तुलना में वे संरचनाएँ होती हैं।
  • इसमें कई स्तरों वाली छतें शामिल हैं जो एक सीधी/मंद ढलान में ऊपर की ओर उठती हुई मंदिर के मध्य बिंदु पर एक ही बिंदु पर मिलती हैं।
  • यह इसे पिरामिड का आकार देता है।

उदाहरण :-

चित्र- कोणार्क सूर्य मंदिर का जगमोहन

  1. वल्लभी प्रकार-
  • इस श्रेणी के वर्गाकार मंदिर में मेहराबदार छतों से शिखर का निर्माण होता है। मेहराबी कक्ष का किनारा गोल तथा यह शकटाकार होता है।
  • उन्हें आमतौर पर अर्धगोल चापवितान (वैगन वॉल्ट) वाली इमारतों के रूप में जाना जाता है।

उदाहरण :- नंदी देवी या नव दुर्गा मंदिर जागेश्वर।

उपरोक्त के अलावा, नागर शैली को आगे कई उप शैलियों में विभाजित किया गया है, जैसे कि

ओडिशा शैली

11वीं और 13वीं शताब्दी के बीच, शिखर और भू-विन्याए में कुछ अनूठी शैलियों के साथ नागर शैली के तहत एक नई शैली उभरा।

ओडिशा शैली की कुछ मुख्य विशेषताएँ हैं-

  • सबसे प्रमुख विशिष्ट विशेषता शिखर (देउल) है, जो शीर्ष तक तो बिल्कुल सीधा होता है, लेकिन चोटी पर जाकर अचानक तेजी से भीतर की ओर मुड़ जाता है।
  • बरामदे में स्तंभों के स्थान पर लोहे की गर्डरों का प्रयोग सहारा देने के लिए किया जाता है।
  • मण्डप को ओडिशा शैली में जगमोहन के नाम से जाना जाता था।
  • विस्तृत चारदीवारी मंदिरों को घेरे हुए होते हैं।
  • इन मंदिरों का बाहरी भाग जटिल रूप से तराशा गया है और आमतौर पर आंतरिक भाग खाली है।
  • मुख्य मंदिर की भू-विन्यास लगभग हमेशा चौकोर होती है, जो इसकी अधिरचना के ऊपरी हिस्से में, मुकुट/मस्तक में गोलाकार हो जाती है।

उदाहरण :- कोणार्क मंदिर, जगन्नाथ मंदिर।

कोणार्क सूर्य मंदिर के अलावा, कई सूर्य मंदिर भारत के विभिन्न हिस्सों में सूर्य को समर्पित हैं, जो पूर्व-मध्ययुगीन युग से आधुनिक और वर्तमान समय तक हैं।

केस स्टडीः- कोणार्क मंदिर

परिचय-

यह नाम कोण (कोना)+ अर्क (सूर्य) से लिया गया है, दोनों को संयुक्त रूप से मिलाने पर यह सूर्य का कोना (Sun Of The Corner) यानि कोणार्क कहा जाता है। इसे ब्लैक पैगोडा के नाम से भी जाना जाता है। इसका श्रेयपूर्वी गंग वंश (1250 ईस्वी) के राजा नरसिंहदेव प्रथम को दिया जाता है। यह यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल है।

चित्र- कोणार्क सूर्य मंदिर

वास्तुकलाः-

यह नागर शैली के ओडिशा/कलिंग शैली से संबंधित है। तेरहवीं सदी का मुख्य सूर्य मंदिर, एक महान रथ रूप में बना है, जिसके बारह जोड़ी सुसज्जित पहिए हैं, एवं सात घोड़ों द्वारा खींचा जाता है, इस मंदिर में मूर्ति के केंद्र में रखे हीरे से सूर्य की किरणें परावर्तित होती हैं।

वास्तुकला की योजनाः-

  • विमान 70 मीटर ऊँचा है और भूरे-हरे क्लोराइट पत्थर से बना है। तीनों तरफ सूर्य देव के तीन चित्र हैं।
  • विमान के नीचे देवालय है।
  • जगमोहन, सभा कक्ष जिसे महामंडप के नाम से जाना जाता है।
  • फिर नट मंदिर या नृत्यशाला है।
  • मुख्य मंदिर के एक तरफ भोग मंडप मौजूद है।

चंदेल शैली

इन मंदिरों को एक इकाई के रूप में माना जाता है, जिसमें शिखर नीचे से ऊपर की ओर घुमावदार होते हैं। इसके अलावा, केंद्रीय मीनार से कई लघु शिखर उपस्थित हैं। मंदिरों में, यहाँ तक कि सहायक मंदिर में रेखा प्रासाद प्रकार का शिखर है, जो इन मंदिरों को एक पर्वत श्रृंखला का रूप देता है।

कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं:

  • ये मंदिर बलुआ पत्थर से निर्मित थे।
  • उनमें कामुक विषय-आधारित मूर्तियाँ हैं जो वात्स्यायन के कामसूत्र से प्रेरित हैं, लेकिन कामुक चित्रण मंदिर की मूर्तिकला का केवल 10% है।
  • इन मंदिरों में तीन कक्ष हैं: गर्भगृह, मण्डप और अर्ध-मंडप ।
  • बाहरी और आंतरिक दोनों दीवारों को समृद्ध रूप से उत्कीर्ण किया गया है।
  • इन मंदिरों कोउत्तर या पूर्व मुखी बनाया गया है।
  • मंदिरों में भू-विन्यास की पंचायतन शैली का उपयोग किया गया था।
  • कुछ मंदिरों में गर्भगृह तक जाने के लिए गलियारा होता था, जिसे अंतराल (vestibular entrance) कहा जाताथा।

उदाहरण :- कन्दरिया महादेव मंदिर।

खजुराहो या चंदेल शैली (कन्दरिया महादेव मंदिर)।

सोलंकी शैली (मारू-गुर्जर):

मंदिर वास्तुकला की यह शैली भारत के पश्चिम भाग में मुख्य रूप से गुजरात और राजस्थान में विकसित हुई। इन मंदिरों की विशेषता सूक्ष्म और जटिल सजावटी रूपाँकन हैं। उनके पास नक्काशीदार छत है जो दिखने में एक वास्तविकगुंबद की तरह दिखती है।

कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं-

  • इन मंदिरों में गर्भगृह और मण्डप आंतरिक और बाह्य रूप से जुड़े हुए थे।
  • सीढ़ियों के साथ एक पानी की टंकी की उपस्थिति, जिसे सूर्य-कुंड के नाम से जाना जाता है, इस शैली की अनूठी विशेषता थी।
  • इन मंदिरों में विभिन्न सामग्रियों का उपयोग किया गया था, जैसे कि बलुआ पत्थर, काला बेसाल्ट और नरम संगमरमर।
  • मंदिर ज्यादातर पूर्वा भिमुख होते थे।
  • वास्तुकला की इस शैली की विशेषता है कि हर साल विषुव के दिनों में, सूर्य की किरणें सीधे शिखर के रत्न में पड़ती हैं।

उदाहरण :-

चित्र – मोढेरा में सूर्य मंदिर, गुजरात

 

द्रविड़ शैली

 

परिचय – यह शैली दक्षिणी भारत में विकसित होकर विभिन्न राजवंशों, अर्थात् पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट, होयसल और चोल के तहत अलग-अलग शैलियों में स्थापित हुई। इसमें कई अनूठी विशेषताएँ हैं जो इसे उत्तरी भारत की नागर शैली से अलग करती हैं।

प्रमुख विशेषताएँ:-

  • द्रविड़ मंदिर एक विस्तृत परिसर दीवार से घिरा हुआ होता है।
  • इन मंदिरों में, सामने की दीवार के केंद्र में एक विशाल प्रवेश द्वार होता है जिसे गोपुरम के नाम से जाना जाता है।
  • मंदिर की मीनार/गुम्बद को विमान के रूप में जाना जाता है, जो नागर शैली के घुमावदार शिखर के बजाय एक सीढ़ीनुमा पिरामिड की आकृति का होता है।
  • मंदिर के प्रवेश द्वार पर, हम मंदिर की रखवाली करने वाले
  • भयंकर द्वारपाल या दरबानों की मूर्तियाँ पाते हैं।
  • द्रविड़ शैली के तहत मंदिर परिसर के साथ जल भंडार भी एक आम विशेषता है।

उदाहरण :-

 

चित्र-1 :मदुरई में मीनाक्षी मंदिर                चित्र- 2 :तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर

 

नायक मंदिर वास्तुकला शैली:

परिचय – नायक शासकों के शासनकाल के दौरान 16वीं शताब्दी और 18वीं शताब्दी ईस्वी के बीच की अवधि में नायक वास्तुकला फली-फूली। इसे मदुरै शैली भी कहा जाता था। स्थापत्य की दृष्टि से यह द्रविड़ शैली से लगभग मिलती जुलती थी, परन्तु काफी अधिक व्यापक थी। यह इस्लामी प्रभावों को भी दर्शाती है।

प्रमुख विशेषताओं में शामिल हैं:

  • गर्भगृह के चारों ओर प्रकर्म, या विशाल गलियारे का निर्माण, जिसे प्रकरण कहा जाता था, साथ ही छतदार प्रदक्षिणा पथ का निर्माण।
  • नायक राजाओं के शासनकाल के दौरान कुछ सबसे बड़े गोपुरमों का निर्माण किया गया था।
  • पूरे विश्व में सबसे ऊंचा गोपुरम मदुरै के मीनाक्षी मंदिर में देखा जाता है।
  • नायक शैली में गोपुरम कला का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है।
  • पूरे मंदिर की संरचना में उत्कृष्ट (बारीक नक्काशी युक्त) मूर्तियां देखी गई।

उदाहरण के लिये-

उदाहरण के लिये, मदुरै में मीनाक्षी मंदिर।

 

बेसर शैली

परिचय – इसे चालुक्य शैली के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह चालुक्य वंश (543 ईस्वी से 757 ईस्वी) के तहत विकसित हुई थी। यह शैली नागर और द्रविड़ शैलियों की विशेषताओं को समाहित करती है जिससे मंदिर वास्तुकला की एक नई शैली विकसित हुई।

प्रमुख विशेषताएँ:

  • यह विमान और मण्डप परपर विशेष महत्व।
  • इसकी भू-विन्यास एक तारे के आकार, या ताराकार होता है।
  • भारत की वास्तुकला की अनूठी विशेषताओं में से एक, वेसर में एक खुलाप्रदक्षिणा पथ है
  • मीनारः वेसर शैली के तहत, चालुक्य निर्माणकर्ताओं ने प्रत्येक मंजिल की ऊंचाई को कम करके और प्रत्येक मंजिल में बहुत अलंकरण के साथ आधार से शीर्ष तक ऊंचाई के अवरोही क्रम में व्यवस्थित करके द्रविड़ विमानों को संशोधित किया
  • चालुक्य मंदिरों की दो अनूठी प्रमुख विशेषताएँ –

मण्डप और स्तंभः

  • मण्डपः मण्डप में दो प्रकार की छत होती हैं-गुम्बदाकार छत (चार स्तंभों पर खड़ी गुंबद जैसी छत बहुत आकर्षक होती है) या चौकोर छत (ये पौराणिक चित्रों के साथ अनिवार्य रूप से अलंकृत होती हैं)।
  • स्तंभः चालुक्य मंदिरों के लघु सजावटी स्तंभों का अपना कलात्मक मूल्य है।

उदाहरण :- कलेश्वर मंदिर, कुक्कनूर; रामलिंगेश्वर मंदिर।

 

पल्लव मंदिर वास्तुकला शैली

दक्षिणी उपमहाद्वीप में पल्लव राजवंश चौथी शताब्दी ईस्वी में स्थापित हुआ था और लगभग 500 वर्षों तक शासन किया। वे चालुक्यों के साथ अपने निरंतर संघर्ष के लिए प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा, पल्लव काल भारतीय वास्तुकला के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस अवधि को आमतौर पर द्रविड़ शैली की वास्तुकला की शुरुआत माना जाता है। उनके विभिन्न शासकों के तहत, मंदिर वास्तुकला के चार चरणों को देखा जा सकता है, जो शासक के नाम से प्रसिद्ध हैं, जैसे कि

चरण-1 महेंद्र समूहः-

  • यह नाम उन सभी संरचनाओं को दिया गया है जो महेंद्रवर्मन-। (610-640 ईस्वी) के शासन के दौरान बनाई गई थीं।
  • इन संरचनाओं में पहाड़ के अग्र भाग से बने स्तंभित हॉल (विशाल कक्ष) बने होते हैं।
  • वे उस अवधि के जैन मंदिरों से मिलते जुलते हैं।

उदाहरण :-

चित्र- मंडागपट्टू में मंदिर

चरण-2- नरसिम्हा समूहः

  • मामल्ल समूह के रूप में भी जाना जाता है
  • नरसिंहवर्मन (640-674 ईस्वी) के तहत निर्मित।
  • मंदिर अभी भी शैल कर्तित थे, लेकिन कई नई विशेषताएँ और सजावटी शैलियों को जोड़ा गया था।
  • स्तंभित हॉल के साथ-साथ रथ नामक मुक्त-स्थायी एकाश्म मंदिरों का निर्माण किया गया था।

उदाहरण :-

 

चित्र- 1 : महाबलीपुरम में पंच रथ,  चित्र- 2: अर्जुन की तपस्या

चरण-3- राजसिंह समूह:

इन मंदिरों का निर्माण 674 ईस्वी से 800 ईस्वी के बीच किया गया था।

इसके तहत चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिर की जगह पत्थर और गारे के स्वतंत्र रूप से खड़े मंदिर निर्मित किए गए।

शैल कर्तित मंदिरों को संरचनात्मक मंदिरों में बदलने के कारण इस अवधि को परिवर्तनकारी अवधि के रूप में भी जाना जाता है।

उदाहरण :-

चित्र- महाबलीपुरम में शोर मंदिर

चरण IV – नंदीवर्मन समूहः

इन मंदिरों का निर्माण 800 ईस्वी से 900 ईस्वी के बीच किया गया था।

इस अवधि के दौरान पल्लव वास्तुकला अपनी परिपक्वता तक पहुँच गई।

इस अवधि को पतन के चरण के रूप में जाना जाता है क्योंकि इस अवधि के दौरान केवल छोटे अलंकरण वाले छोटे मंदिर बनाए गए थे।

उदाहरण :-

चित्र – कांचीपुरम में वैकुंठ पेरुमल मंदिर

होयसल मंदिर वास्तुकला शैली:

होयसल राजवंश ज्यादातर कर्नाटक में केन्द्रित था, जिनका शासन 1050 ईस्वी और 1300 ईस्वी के मध्यथा, दक्षिणी दक्कन के पठारी क्षेत्र में होयसल राजाओं का वर्चस्व था और उनकी वास्तुकला के अधिकांश नमूने वहाँ पाए जाते हैं। वे अपने शौर्य और प्रशासन के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर मन्दिर भवनों का संरक्षण करते थे। उनके मंदिर बेसर शैली पर आधारित थे, जिसमें नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों की विशेषताएँ थीं। लेकिन उन्होंने इसमें कुछ नई विशेषताएँ जोड़ीं, जिससे वास्तुकला की होयसल शैली का विकास हुआ।

प्रमुख विशेषताएँ:-

  • इन मंदिरों की भू-विन्यास ताराकार (एक तारे जैसी भू-विन्यास) थी।
  • मुख्य मंदिर के चारों ओर कई मंदिर थे।
  • उन्होंने अपनी निर्माण सामग्री में मुलायम बलुआ पत्थर का इस्तेमाल किया।
  • केंद्रीय स्तंभ वाले हॉल के चारों ओर समूह में कई मंदिर शामिल होते हैं
  • मंदिरों ऊँचे चबूतरे पर बने थे, जिन्हें जगती के नाम से जाना जाता है।

उदाहरण :-

चित्र- होयसलेश्वर मंदिर, कर्नाटक

 

चोल मंदिर वास्तुकला शैली:

शाही चोल राजवंश की स्थापना विजयालय द्वारा 850 ईस्वी में की गई थी और यह न केवल दक्षिणी भारत में बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया और श्रीलंका में अपने प्रभाव और शक्ति के चरम पर पहुँच गया। चोलों के तहत, वास्तुकला की द्रविड़ शैली अपने चरम पर पहुँच गई, जिसमें सभी विशेषताओं को सावधानीपूर्वक और खूबसूरती से चित्रित किया गया था। उनके मंदिरों को कुछ किलोमीटर से देखा जा सकता है और यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों में शामिल हैं। द्रविड़ शैली की बुनियादी विशेषताओं के अलावा, कुछ अन्य विशेषताएँ थीं:

  • विमान की ऊँचाई और भी अधिक होने से मंदिर को एक विशाल रूप प्राप्त हुआ।
  • मंदिर के चारों ओर बड़ा और विशाल आंगन।
  • गोपुरम को भी वृहद् आकृति का था, और उन पर गहन नक्काशी की गई थी।
  • चोलों ने स्तंभ के आधार पर यली (पौराणिक जानवर) का इस्तेमाल किया।
  • प्रारंभिक मध्ययुगीन हिंदू वास्तुकला
  • कश्मीर के कार्केट राजवंश एवं उत्पल राजवंश के संरक्षण में इन मंदिरों की वास्तुकला अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची।

चित्र- बृहदेश्वर मंदिर

 

प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:-

  • कोष्ठात्मक अभिन्यास की उपस्थिति।
  • अधिकांश संरचनाओं में आंगन संलग्न थे।
  • उनमें गांधार शैली से प्रभावित त्रिदली/त्रिपर्णी मेहराब थे।
  • भवनों और इमारतों की छत के रूप में सीधे कोनों वाला पिरामिडीय छत का प्रयोग किया जाता था
  • इमारतों के अग्र भाग में त्रिकोणीय संरचना का निर्माण ग्रीक प्रेरणा थी।

उदाहरण : मार्तण्ड सूर्य मंदिर, भगवान विष्णु के लिए अवंतिस्वामि मंदिर, भगवान शिव के लिए अवंतिश्वर और पंड्रेथन मंदिर।

पाल और सेन मंदिर वास्तुकला शैली:

पूर्व-मध्ययुगीन युग में बंगाल में विकसित हुई शैली को पाल और सेन शैली की वास्तुकला के रूप में जाना जाता है, जिसका नाम 8 वीं और 12 वीं शताब्दी के बीच यहाँ शासन करने वाले दो राजवंशों के नाम पर रखा गया है। पाल धर्म में बौद्ध थे, इसलिए उन्होंने कई चौत्य, विहार और स्तूपों का निर्माण किया। दूसरी ओर, सेन हिंदू थे और उन्होंने हिंदू मंदिरों का निर्माण किया।

मुख्य विशेषताएँ हैं

  • पक्के ईटों का उपयोग, जिसे टेराकोटा ईंटों के रूप में भी जाना जाता था।
  • मंदिरों के लंबे शिखर थे, जिनमें शीर्ष पर बड़े आमलक थे, जो ओडिशा शैली के समान थे।
  • इन संरचनाओं में समृद्ध नक्काशी थी।
  • मूर्तियों के लिए पत्थर और धातुओं का उपयोग किया गया था।
  • इमारतों में एक ढलान वाली छत थी।
  • पाल संरचनाओं के उदाहरणः नालंदा, जगद्दाला, ओदतपुरी
  • नौर पंड्रेधन और विक्रमशिला के विश्वविद्यालय।
  • सेन मंदिर के उदाहरणः- बांग्लादेश में ढाकेश्वरी मंदिर

चित्र- ढाकेश्वरी मंदिर, बांग्लादेश

 भारत के बाहर के मंदिर:

भारत में समृद्ध मंदिर वास्तुकला के अलावा, प्राचीन काल से आधुनिक समय तक भारत के बाहर शानदार मंदिर संरचनाओं के निर्माण की समृद्ध संस्कृति भी है। आइए उनमें से कुछ पर एक नजर डालें-

मंदिर  देश   मुख्य देवता    द्वारा निर्मित
अँकोरवाट मंदिर कंबोडिया भगवान विष्णु सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय
प्रम्बनन मंदिर इंडोनेशिया हिन्दू त्रिमूर्ति राजा रकाई पिकाटन
श्री दुर्गा मंदिर ऑस्ट्रेलिया दुर्गा माता श्री दुर्गादेवी देवस्थानम
तनाहलोत मंदिर इंडोनेशिया भगवान वरुण डांग हयांग निरार्थ
पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल भगवान शिव प्रचंड देव
सागर शिव मंदिर मॉरीशस भगवान शिव घुनोवा परिवार
ढाकेश्वरी मंदिर बांग्लादेश दुर्गा माता बल्लालसेन
श्री काली मंदिर म्यांमार देवी काली तमिल प्रवासी
नाथ लाउंग मंदिर म्यांमार भगवान विष्णु राजा अनाव्रत
पुराबेसकिह मंदिर इंडोनेशिया भगवान शिव पूर्व-ऐतिहासिक काल से अस्तित्व में था और धीरे-धीरे कई राजवंशों के तहत बनवाया गया।
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