आतंकवाद आज एक ऐसा यथार्थ बन गया है जिससे हर कोई व्यक्ति, समुदाय, संगठन और देश परिचित ही नहीं है बल्कि उससे कम या अधिक प्रभावित और आहत भी हो रहा है। आज आतंकवाद जो कि अधिकांश रुप में हमारे सामने हिंसात्मक रुप में है, को समाप्त करने के लिए केवल हिंसा और हिंसा की बातें की जा रही हैं। आतंकवाद को समाप्त करने के लिए एक दूसरे प्रकार के आतंकवाद से बात नहीं बनने वाली है। इसके लिए निष्पक्ष, समन्वित और उद्देश्यपरक रुप से इसको उत्पन्न करने वाले कारणों की शुध्द रुप में पहचान करने और उसकी जड़ों पर हमला करने की आवश्यकता विश्व भर में आतंकवाद के विरुद्ध विरोध के जो स्वर उभर कर आ रहे हैं वह पानी की बूंद की तरह हैं, जबकि आवश्यकता एक समग्र एवं समन्वित प्रयास की जरुरत है। प्रस्तुत शोध पत्र में विश्वव्यापी आतंकवाद के मुकाबले के सार्थक उपायों पर दृष्टि डाली गयी है ।
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मुख्य शब्द – आतंकवाद, राज्य प्रायोजित आतंकवाद|
प्रस्तावना-
आतंकवाद किसी एक देश की समस्या नहीं, वरन् विश्वव्यापी चुनौती है। भारत करीब दो दशक से भी ज्यादा समय से आतंकवाद का कष्ट झेलता आ रहा है। यहां हजारों लोग, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं, आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं। विश्व के किसी देश या विश्व संगठन ने इन अमानवीय उत्पात को गम्भीरता से नहीं लिया। भारत यह निरन्तर मांग करता रहा है कि आतंकवादी हिंसा के खिलाफ अन्तरराष्ट्रीय मोर्चा खोला जाए, लेकिन मौखिक सहानुभूति के सिवाय व्यवहार में कुछ भी नहीं हुआ। परिणाम आज सभी के सामने है। भारत सहित अफगानिस्तान, रूसी समूह के गणतंत्र चेचन्या एवं बोस्निया, फिलिपीन्स, इंडोनेशिया आदि देशों में भी आतंकवाद अपनी जड़ें जमा चुका है। 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका पर हुए फिदायीन हमले में हजारों मासूम लोगों की मौत के बाद अमेरिका एवं विश्व के अन्य देशो की आंख खुली। स्वयं आहत होने पर अमेरिका को भान हुआ, कि आतंकवादी कितने न नृशंस, क्रूर और खतरनाक हैं। अपने ऊपर हमलों को अमेरिका ने युद्ध की संज्ञा दे डाली। आनन- फानन में बिना किसी ठोस सबूत के संयुक्त राष्टं संघ के माध्यम से नाटो सेनाओं द्वारा पहले अफगानिस्तान और फिर इराक पर एकतरफा आक्रमण कर दिया। अमेरिका का चेतावनी पूर्वक कहना है कि विष्व के देश इस मुहिम में उसके पक्ष में होकर आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में उसका साथ दें और जो ऐसा नहीं करेगा वो देश स्वतः ही विपक्ष में समझा जाएगा।
आतंकवाद के काले बादल केवल गैर मुस्लिम देशों पर ही नहीं मंडराते रहे हैं, इससे बड़ी संख्या में मुस्लिम देश भी पीड़ित रहें हैं। सूडान, लीबिया, लेबनान, सीरिया, ईरान, इराक, मिश्र, अल्जीरिया आदि प्रमुख हैं। जानकार मानते हैं कि दुनिया के अधिकांश देश आतंकवाद को समूल नष्ट करना चाहते हैं, क्योंकि इसके चलते उनकी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था ध्वस्त होने लगी है। मुस्लिम देशो की परेशानी का बड़ा कारण अफगानिस्तान से होने वाली मादक पदार्थों का तस्करी भी है। उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान में दुनिया की लगभग 70 प्रतिशत से भी ज्यादा अफीम पैदा होती है।1 इससे बनने वाले मादक पदार्थें की आय से आतंकवादी गतिविधियों का संचालन होता है। आज आतंकवाद दुनिया के कई हिस्सों में फैला हुआ है, जिसका संचालन अफगानिस्तान से होता है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान ही दो ऐसे देश हैं, जो आतंकवादियों को पनाह ही नहीं देते, वरन छापामारी का प्रशिक्षण, अस्त्र-शस्त्र, गोला – बारूद भी देते रहे हैं |
अन्तरराष्ट्रीय राजनीति कितनी परिवर्तनशील है, इसलिए नीतिकारों की स्थापना है कि राजनीति में न कोई स्थायी मित्र होता है न कोई शत्रु। सन 1980 के दशक में अफगानिस्तान सरकार के लिए जब तत्कालीन सोवियत संघ की सेनाएं वहां तैनात की गईं तो उन्हें उखाड़ने, भगाने के लिए अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए ने ओसामा-बिन-लादेन एवं उसके संगठन अलकायदा को अफगानिस्तान में छापामारी एवं अस्त्र-शस्त्र का सहारा दिया।2 वहां आतंकवादियों के गिरोह अमेरिकी आर्थिक और शस्त्र की सहायता से संगठित किये गये। इस अभियान का संयोजन एवं संचालन पाकिस्तान को सौंपा गया। कट्टरपंथी तालिबान एवं सऊदी अरब मूल के आतंकवादी सरगना ओसामा-बिन-लादेन उसी दौर की उपज था। वर्षों से अल कायदा को लेबनान के हिजबुल्ला गुरिल्लाओं, सूडान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान की कथित तालिबान सरकार से मदद मिल रही है। अलकायदा चेचन्या से लेकर यमन, फिलिपींस तक आतंकवादी हमले में शामिल रहा है।
पाकिस्तान इसकी शह लेकर भारत में भी आतंकवाद को बढ़ावा देता रहा है। सन 2001 में अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले के बाद विश्व परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है, कि अभी तक जो राष्ट्र यह समझते थे कि आतंकवाद कुछ देषों की समस्या है, आज वे यह महसूस करने पर मजबूर हुए हैं कि आतंकवाद भले ही विश्व के किसी कोने में हो, वह मानव सभ्यता और लोकतंत्र का दुश्मन है। सन् 2001 की घटना के बाद अमेरिका ने आतंकवाद से लड़ने की प्रबल इच्छा प्रकट की है। इसे एक सकारात्मक कदम माना जा सकता है।
आतंकवाद का सबसे ज्यादा शिकार भारत रहा है। अब तक अकेले जम्मू-कश्मीर में 40,000 से ज्यादा जानें आतांकवाद की बलिचढ़ गई हैं। भारतीय संसद पर हमला 2003, मुम्बई लोकल ट्रेनों में सीरियल बम बलास्ट 1993, 26 नवम्बर 2008 मुम्बई आतंकवादी हमला इत्यादि दर्जनों छोटे-बड़े हमलों में हजारों मनुष्यों की जाने जा चुकी हैं। आतंकवाद केवल हिंसा के माध्यम से ही अपना खौफ नहीं बनाए हुए है अपितु धमकी, दमन, शोषण, प्रतिशोध जैसे कई रूपों में भी हमारे सामने है। आज नाटो सेनाओं के द्वारा अमेरिका प्रत्यक्षतः कुछ देशों के खिलाफ आतंकवाद को प्रश्रय देने के लिए एकतरफा इल्जाम लगाकर हमले करवा रहा है, इससे कुछ देशो को आतंकवाद का शीघ्रातिशीघ्र उपाय जरूर नजर आ रहा हो, परन्तु दीर्घकालीन परिणाम शायद इसके ठीक उलट भयंकर एवं बेहद भयावह हो सकते हैं। यह तो प्राकृति का नियम है कि प्रतिहिंसा, हिंसा को समाप्त नहीं कर सकती।3 प्रस्तुत शोध पत्र में आतंकवाद के इतिहास, कारण, प्रकृति एवं घटी घटनाओं जैसे अन्य पहलुओं पर विस्तृत चर्चा न कर उसके मुकाबले के उपाय सुझाये गये हैं।
शोध प्रविधि- प्रस्तुत शोध पत्र तैयार करने के लिए सर्वेक्षण विधि एवं पुस्तकालय, समाचार पत्र व इण्टरनेट की सहायता ली गई है।
आतंकवाद के मुकाबले हेतु कुछ उपाय सुझाये गये हैं जो निम्न हैं-
विश्व जनमत को एकजुट करना-
11 सितम्बर 2011 की घटना के बाद अमेरिका के नेतृत्व में आतंकवाद के खिलाफ मुहिम से आज किसी को यह भ्रांति हो सकती है कि आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए पूरा विश्व एक हो गया है, दुर्भाग्य से वास्तविकता ऐसी नहीं है। आतंकवाद के मुद्दे पर विश्व के देशो की राय काफी अलग-अलग है। कुछ देश हैं जो आतंकवाद का विरोध तो करते हैं परन्तु जो तरीका अमेरिका एवं उसके कुछ खास देशों द्वारा उसे समाप्त करने के लिए अपनाया जा रहा है उससे बिलकुल सहमत नहीं हैं। कुछ ऐसे भी देश हैं जो नाम के लिए विरोध जताते हैं परन्तु बराबर आतंकवाद को समर्थन व पोषित कर रहे हैं और कुछ ऐसे भी देश हैं जो सार्वजनिक रुप से आतंकवाद का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। भले ही अमेरिका ओसामा बिन लादेन को मारने में सफल हो गया हो परन्तु अलकायदा एवं अन्य आतंकी संगठन कतई कमजोर नहीं हुए हैं।4 आज विश्व जनमत को एकजुट करने की आवश्यकता है। विश्व के सभी छोटे-बड़े राष्ट्रों को अपने राजनीतिक एवं कूटनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर आतंकवाद की भयावहता को समझना होगा। यह एक वैश्विक समस्या है जिसमें संगठित एवं समन्वित प्रयास की आवश्यकता है। अभी जो विरोध के स्वर उभर रहे हैं, उनका रुप छोटे-छोटे टापुओं जैसा है, महासागर जैसा नहीं है। किसी भी देश पर हुए आतंकी हमले को सम्पूर्ण मानवता एवं वैश्विक शान्ति पर हमला समझना होगा। आज अमेरिका जिस चुनौती का सामना कर रहा है, वैसी ही चुनौती अन्य देश के सामने भी है या आ सकती है। विश्व का कोई भी भाग अपने आपको आतंककारियों से अछूता नहीं मान सकता।
वैश्विक योजना एवं क्रियान्वयन-
आज अमेरिका जिस चुनौती का सामना कर रहा है, वैसी ही चुनौती अन्य देश के सामने भी है या भविष्य में आ सकती है। विश्व का कोई भी भाग अपने आप को आतंककारियों से अछूता नहीं मान सकता। अतः इस बारे में एक वैश्विक कार्यनीति बनाने की आवश्यकता है, जो सभी देशों को आतंकारियों का सामना करने में मददगार साबित हो। जब हम पर्यावरण संरक्षण, मानवाधिकार, बालश्रम जैसे विषयों पर राष्ट्र संघ के नेतृत्व में अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन और महा सम्मेलन बुला सकते हैं तो पूरी तरह विश्व व्यापी हो चुकी आतंकवाद की इस समस्या के हल के लिए ऐसा कोई सम्मेलन निकट भविष्य में क्यों नहीं बुलाया जा सकता है।5 जिसमें निर्णय के आधार पर आतंकवाद विरोधी अभियान के लिए धन, हथियार एवं मनुष्यों की व्यवस्था करना चाहिए। वैश्विक आतंकवाद उन्मूलन के नाम पर एक अन्तरराष्ट्रीय समिति का गठन भी किया जा सकता है। जो उसके प्रभाव, प्रकृति, विश्व के किस-किस क्षेत्र में फैला हुआ है इत्यादि सभी बिंदुओं पर रिपोर्ट तैयार कर अग्रिम कार्यवाही के लिए अनुशंसित करे। यहां उल्लेखनीय है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई किसी देश के खिलाफ जंग नहीं है जो संबंधित देश के ऊपर आक्रमण किया जा सके। यह लडाई है आतंकवाद को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रुप से पनाह एवं प्रश्रय देने वाले छोटे-बड़े कथित संगठन तथा एजेंसीयों के खिलाफ।
संयक्त राष्टं संघ की भूमिका एवं नेतृव –
आतंकवाद जैसी विकट समस्या से लड़ने के लिए राष्ट्र संघ का नेतृत्व आवश्यक है। 9 दिसम्बर 1985 को संयुक्त राष्टं संघ की महासभा ने एक प्रस्ताव द्वारा आतंकवाद को गम्भीरता से लेने के लिए विश्व की सरकारों से अपील की थी।6 जिस पर अमल शायद भारत व कुछेक अन्य शांतिप्रिय मुल्कों को छोड़कर किसी ने नहीं किया। यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं बड़ी अजीब बात है कि राष्ट्र संघ का इतिहास सदैव अमेरिका या उसके कुछ खास पश्चिमी देशों के पक्ष में रहा है। इस दहरे रवैये के कारण ही राष्ट्र संघ की विश्वसनीयता हमेशा से संदेह के घेरे में रही है। एक तरफ तो छोटे एवं कमजोर देशो को नैतिकता व उचित-अनुचित का पाठ पढ़ाया जाता है परन्तु बात पश्चिमी मुल्कों की हो तो, स्वयं बंधक-सा प्रतीत होता है। यह चिंतन का विषय है कि आखिर कैसे अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई के नाम पर बिना किसी सबूत के विश्व के अन्य देश जो सिर्फ उसे लगता है कि वे इसके लिए जिम्मेदार हैं, उन पर एकतरफा आक्रमण कर सकता है? अगर अमेरिका पर ही विश्व में शांति एवं सुरक्षा की उत्तरदायित्व है, तब निश्चित रुप से राष्ट्र संघ के अस्तित्व एवं उसके बने रहने पर सवाल उठने लगेंगे। जब ओसामा बिन लादेन जिंदा था तब राष्ट्र संघ किस आधार पर अफगानिस्तान को लादेन को अमेरिका के हवाले करने के लिए कहा? जिस प्रकार अमेरिका के लिए लादेन व मुल्ला उमर मोस्ट वांटेड थे, उसी प्रकार मुम्बई बम विस्फोट के लिए जिम्मेदार दाउद इब्राहिम भारत के लिए। तब राष्ट्र संघ ने कभी पाकिस्तान से दाउद को भारत के हवाले करने के लिए नहीं कहा। आज जो अमेरिका आतंकवाद के नाम पर कर रहा है उसी तर्ज पर क्या भारत पाकिस्तान के विरुद्ध करें तब भी इसी तरह राष्ट्र संघ चुप्पी साधे रखेगा। विष्व के राष्ट्रों को समझना होगा कि आतंकवाद इस प्रकार की कार्यवाही करने से कतई समाप्त नहीं होने वाला है। एक देश के बूते आतंकवाद का समाधान नहीं सकता है। अगर एक राष्ट्र को हिंसा के उपयोग की इस प्रकार छूट दे दी गई, तो भविष्य में न तो आतंकवाद की समाप्ति की जा सकेगी और न ही शांतिपूर्ण परिस्थितियां पैदा की जा सकेंगीं।7
मूल कारणों का उन्मूलन-
व्यापक दृष्टिकोण ये विचार किया जाये तो आतंकवाद के मूल कारण हैं- असहनीय शोcषण, असामान्य भेदभाव, नस्ल की श्रेष्ठता की अवधारणा, केवल मैं सही और सामने वाला गलत की भावना, दर्द नाक गरीबी और अज्ञानता, धर्मांधता की अति और सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकांश के राजनैतिक अधिकारों का हनन एवं कुछ की व्यक्तिगत उच्चाकांक्षाएं। क्षेत्रवाद, अतर्क पूर्ण सीमा विवाद, ताकत के सहारे सत्ता पलट, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की खुली उपेक्षा, परिवारवाद, जातियों व समूहों के अपमान जैसे कारण भी इसके लिए उत्तरदायी हैं।
जहां तक आतंकवादी गतिविधियों को रोकने का सवाल है उसे तिरस्कार, प्रतिहिंसा औरभ्रामक प्रचार के माध्यम से नहीं रोका जासकता है। इसके लिए उपर्यु क्त कारणों के निदान पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है। इस समस्या का हल अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों, उद्घोषणाओं और समझातों में नहीं बल्कि मानव को मानव मानने, दूसरो के अधिकारों को स्वीकार करने और षोषण की प्रत्येक प्रवृति की निन्दा करने से ही हो सकता है।
धर्म के नाम पर फैलाये जा रहे विश्वस्तरीय आतंकवाद की सैद्धांतिक विवेचना की जाये तो भी उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है। कोई भी उपासना पद्धति अथवा मजहब आतंकवाद की वकालत किसी भी रूप में नही करता है। धार्मिक उन्मादियों, नषीले पदार्थों के व्यापारियों एवं स्वार्थी तत्वों द्वारा हिंसा के माध्यम से अपने उद्देश्यो की पूर्ति के लिए आतंकवादी संगठन बना लिए जाते हैं और ऐसे संगठनों में गरीबी की मार से पीड़ित विकृत मानसिकता वाले व्यक्तियों को भर्ती कर लिया जाता है। दुनिया में आतंकवादियों को बनाने एवं निर्यात करने वाला मुल्क पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान की आर्थिक स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो यह दोनों ही देशों की नशो में भ्रष्टाचार, गरीबी एवं अवैध अस्त्र-शस्त्र व नषीले पदार्थों के व्यापार में काफी गहराई में उतर चुका है।8 कृषि अत्यधिक पिछड़ी हुआ है। रोजगार के साधन बहुत कम हैं। ऐसे में आतंकवादी संगठन लोगों की गरीबी एवं मजबूरी का फायदा उठाते हुए चंद रुपये के लालच में बड़ी आसानी से मनचाहा कार्य करवा लेते हैं। अफगानिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वहां बच्चों के लिए खिलौने खरीदना गरीबी के कारण दूभर है, इसलिए बच्चे भी बचपन से ही असली बंदूक एवं बमों से खलते हैं। पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों ही देशों में मदरसे आतंकवादियों द्वारा संचालित हो रहे हैं। जिसमें आधुनिक शिक्षा की जगह धर्मांधता एवं कट्टरता से भरी नफरत की तालीम दी जाती है। कंधार विमान अपहरण काण्ड के दौरान भारत द्वारा रिहा मोहम्मद हाफिज सईद ऐसे ही शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा पाकिस्तान में नफरत एंव अलगाव की शिक्षा परोस रहे हैं।
हाल ही में पाकिस्तान के उत्तरी प्रान्त में 14 वर्षीय बच्ची मलाला युसूफजई पर तालिबान द्वारा सिर्फ इसलिए गोली चलाई गई क्योंकि वो पढना चाहती है और अन्य बच्चों को भी नफरत एवं हिंसा के स्थान पर तरक्की पसंद तालीम हासिल करने के लिए प्रेरित कर रही है। यह सब घटनाक्रम दर्शाता है कि किस हद तक तालीबान एवं उसके सामानान्तर अन्य आतंकवादी संगठन जनता को वास्तविक दुनिया से दूर रखने के लिए शिक्षा एवं रोजगार से महरुम रखना चाहते हैं। संयुक्त राष्टं संघ, प्रमुख अन्तरराष्ट्रीय संगठन एवं विश्व के देशों को यह समझने व महसूस करने की आवशयकता है कि शिक्षा, रोजगार स्वास्थ्य इत्यादि जीवन के लिए महत्वपूर्ण प्राथमिक आवश्यकताओं की सतत व सामान आपूर्ति कैसे करें ? क्योंकि जब तक विश्व में ऐसे हालात बने रहेंगे परिस्थितिजन्य आतंकवाद जैसी समस्याओं का जन्म नित्य होता रहेगा। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जिस तरह से पाकिस्तान वैश्विक संस्थाओं से बुनियादी आधारभूत सुविधाएं जुटाने के नाम पर लिये पैसे का दुरुपयोग भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने में लगाया, ऐसा न हो ध्यान रखने की महती आवश्यकता है। इसलिए पैसे का सही उपयोग सही कार्य के लिए हो तथा अन्य योजनाओं के क्रियान्वयन की भी लगातार मानीटरिंग होते रहना अति आवश्यक है।
राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति-
आतंकवादी हिंसा से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से सभी देशों की जनता एवं सरकार को दो चार होना पड़ रहा है। देशों की शीर्ष नेतृत्व को क्षेत्रीय आपसी विवाद के बिन्दुओं एवं व्यक्तिगत लाभ- हानि के गणितीय समीकरण से अलग हटकर इस मुद्दे पर एकजुट एवं साथ ही पूरी प्रतिबद्धता एवं निश्चय के साथ स्थाई व ठोस समाधान की दिषा में सोचना पड़ेगा। आतंक एवं हिंसा से जुड़े प्रत्येक प्रकृति एवं प्रारुप के कृत्यों को जड़ से मिटाने के लिए कृतसंकल्पित होना पड़ेगा। आज दुनिया के देशों की स्थिति यह है इस समस्या से ग्रस्त राष्ट्र इसका निदान खुद अपने -अपने तरीके से, जो उनको जायज लगता है निकालने की कोशिश कर रहे हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप अलग-अलग देश आतंकवाद से मुकाबले के लिए केवल हिंसा को ही एक साधन के रुप में प्रयोग कर रहे हैं। कितनी अजीब बात है कि वर्षों से जेहाद के नाम पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद एवं उग्रवाद से भारत ग्रस्त एवं पीड़ित है और हो रहा है। परन्तु भारत की समस्या पर विश्व समुदाय आंखे बंद कर बैठा हुआ है।9 संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर भी इस समस्या को अनेक बार भारत द्वारा उठाने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। इजराइल ने पहले अरबों की जमीन हड़प ली, अब बेघर अरबों के खिलाफ लगातार हिंसा का प्रयोग कर रहा है। इस समस्या का स्थाई कोई समाधान ढंढ़ने के बजाय विश्व के बड़ी ताकतें अरबों को शांति एवं धैर्य बनाये रखने के लिए पाठ पढ़ा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थिति मूक दर्शकों जैसी बनी हुई है। जब समस्याओं को संबंधित देशों पर ही छोड़ दिया जायेगा, तब निश्चित ही तनाव, हिंसा एवं गतिरोध की स्थितियां निर्मित होंगी। जो कालान्तर में आतंकवाद जैसी समस्याओं को जन्म देंगी। सबसे जरूरी और अहम बात है राष्ट्रो को राजनैतिक रूप से भी संजीदा होकर राष्ट्रो की सम्प्रभुता की मर्यादा को ध्यान में रखकर आतंकवाद को खत्म करने हेतु सार्थक कोशिश एवं पहल करनी होगी।
प्रतिबन्ध की नीति-
आतंकवाद को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन देने वाला मुल्क निश्चित रुप से विश्व शान्ति एवं सुरक्षा के लिए बड़े अवरोधक है। हिंसा व आतंक के लिए सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकवाद को राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, अस्त्र-शस्त्र, भौगोलिक भू-भाग की मदद करने वाले राष्ट्र के विरुद्ध आर्थिक व राजनयिक प्रतिबन्ध जैसे कठोर प्रावधानों पर त्वरित विचार करने की आवश्यकता है। अन्यथा राष्ट्रो के द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ अपनी शत्रुता निकालने के लिए प्रायोजित आतंकी पैदा करने का सिलसिला कभी थमेगा नहीं।10 अभी तक का कटु अनुभव बताता है कि विश्व के कई कट्टरपंथी राष्ट्र अपनी द्विपक्षीय अथवा बहुपक्षीय विवाद या टकराव का हल आतंकवादी गतिविधियों के माध्यम से निकालने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं। आर्थिक व राजनयिक प्रतिबन्ध के प्रावधान प्रथम दृष्ट्या या कठोर जरूर लग रहे हैं परन्तु आतंकवाद के मुकाबले हेतु कारगर सिद्ध अवश्य होंगे।
विश्वास का वातावरण-
आतकंवाद सहित विश्व के अन्दर राष्ट्रो के मध्य शान्ति एवं सुरक्षा से जुड़ी समस्याए अविश्वास एवं परस्पर भय के कारण बनी हुई हैं। अन्तरराष्ट्रीय राजनीति की अनिश्चितता, परिवर्तनशीलता एवं गतिशिलता के वातावरण में समीकरण पल-पल बदलते रहते हैं। राजनीति कितनी परिवर्तनशील है कि आज अमेरिका जिस अलकायदा को सबसे बड़ा दुश्मन मानता है उसी को अस्सी के दशक में दूध पिलाकर बड़ा किया था। सन् 1954 एवं उसके के बाद के कुछ वर्षों में पूरी दुनिया में भारत-चीन भाई -भाई के नारें गूंजते थे, यकायक 1962 के चीनी आक्रमण से दोनों देशों के बीच अविश्वास एवं टकराव की राजनीति पनपने लगी। इस प्रकार पंचशील समझौता भारतीय नेताओं की आदर्शवादिता, स्वप्नदर्शिता और अदूरदर्शिता तथा चीनी विश्वासघात की हकीकत बन कर रह गयी।11 मध्य पूर्व के साथ भारत का सदियों से काफी लम्बा एवं गहरा संबन्ध रहा है। परन्तु इजराइल के नये देश के रुप में जन्म व भारत- अमेरिका के सैन्य एवं असैन्य मामलों में गठजोड़ के मध्येनजरसदियों के पुराने रिश्ते पुनः परिभाषित होने लगे हैं। मुस्लिम एवं गैर मुस्लिम देशों के बीच अविश्वास एवं संशय की बढ़ती गहरी खाई के कारण वैश्विक शान्ति के समक्ष कई जटिल समस्याएं आती रही हैं। विश्व के सामने आज की सबसे बड़ी समस्या गैर परम्परागत शस्त्रों की प्राप्ति के लिए हो रहे दौड़ का भी एक बड़ा कारण राष्ट्रीय सुरक्षा की न्यूनतम प्रतिरोधकता एवं विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए राष्ट्र समुदाय के बीच संशय की स्थिति है। राष्ट्रो के मध्य विश्वास बहाली के उपाय एवं उनके क्रियान्वयन के बिना आतंकवाद जैसे जटिल समस्या से निजात पानी दुष्कर कार्य है।
विवादों का त्वरित निपटारा-
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अनुच्छेद 34 तथा 35 में यह भी उल्लेखित है कि जब कभी ऐसी परिस्थिति पैदा हो जाये जिससे अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ा पैदा हो जाये या अथवा होने की सम्भावना हो तो संयुक्त राष्ट्र संघ मध्यस्थता करे। 12 राष्ट्रो के जीवन में विवाद एक अटल सत्य है। देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार विवादों की प्रकृति एवं प्रवृति लगातार बदलती रहती है। हमें नही भूलना चाहिए कि कालान्तर में यही छोटे-बडे़ विवाद के बिन्दु हिंसा, उन्माद एवं संघर्ष जैसी परिस्थिति निर्मित करते हैं। विश्व मंच में राष्ट्रो के इतिहास पर तार्किक विश्लेषण किया जाये, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि किस तरह द्विपक्षीय आपसी विवाद अथवा क्षेत्रीय टकराव विश्व शान्ति एवं सुरक्षा के लिए नासूर बन जाता है। अरब-इजराइल संघर्ष, कोरिया संघर्ष, भारत-पाकिस्तान कश्मीर विवाद जैसे कितने ही संघर्ष व विवाद के उदाहरण हैं। प्रथम दृष्टि में द्विपक्षीय अथवा बहुपक्षीय विवादों का आतंकवाद के साथ परस्पर सम्बन्ध दिखाई नहीं देता, परन्तु कमोबेश भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर विवाद ही है, जो पाकिस्तान को जेहाद के नाम पर उग्रवाद व आतंकवाद जैसे कम तीव्रता के संघर्ष के माध्यम से कश्मीर को पाने का स्वप्न संजोये रखा है। अरब देशों के बीच इजराइल के नाम से खून खौलने का कारण अरब-इजराइल जमीन विवाद है। पहले पहल तो अरबों ने इजराइल को हटाने के लिए एकतरफा आक्रमण किये, परन्तु सीधे आक्रमण में उनकी खुद की पराजय हो गई। तब कई अरब देश एवं कुछ मुस्लिम संगठनों ने फिर जेहाद का नारा देते हुए आतंकवादी गतिविधयों में लिप्त हो गये। हांलाकि इजराइल भी प्रत्युत्तर में अरबों के विरुद्ध हिंसा व आतंक का ही सहारा लेता आ रहा है। वर्तमान में चीन एवं जापान के बीच सेनकाकू समुद्रीय द्वीप को लेकर तनाव चल रहा है। कुछ ऐसे भी देश हैं जो आपसी विवादों के साये में किसी कारणवश खुद आतंकवादी पैदा नहीं कर पाते, तो दूसरे देशों को आतंकवादी गतिविधियों के संचालन में पूरी मदद करते है। भारत के संदर्भ में चीन, बांग्लादेश, नेपाल आदि प्रमुख हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ एवं विश्व की अन्य बड़ी शक्तियों को संबंधितों की सम्प्रभुता एवं अखण्डता की मर्यादा बनाये रखते हुए ऐसे विवादों के समाधान पर त्वरित कदम उठाना चाहिए। विवादों से तटस्थ अथवा उसी हाल में छोड़ देने से, समाधान नहीं निकलने वाला है अपितु वैश्विक सुरक्षा एवं शांति के स्थायित्व के लिए बाधक हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर 7 में शान्ति एवं सुरक्षा भंग होने की स्थिति में सामूहिक सुरक्षा के लिए व्यवस्था है।13 विवादों के शान्तिपूर्ण निपटारे हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ को अधिक सक्रिय एवं प्रतिबद्ध प्रयास करने की नितान्त आवश्यकता है।
निष्कर्ष-
आतंकवाद के मुकाबले हेतु सुझाये उपर्युक्त बिन्दुओं का क्रियान्वयन एवं अमल पूरी निष्ठा के साथ किया जाये, तो अवश्य ही विश्व को इस समस्या से निजात मिल सकती है। अब समय आ गया है कि आतंकवाद के मुद्दे को वैश्विक क स्तर पर एक ही चश्मे से देखा जाये। वैश्विक शान्ति एवं सुरक्षा तथा मानवता के लिए इस विषय पर राष्ट्रो की एकजुटता एवं परस्पर सहयोग की नीति समय की मांग ही नहीं अपितु एक अनिवार्य आवश्यकता भी है।