भारतीय संस्कार – (Indian sacraments) / history- Idea of Bharat /B.A.I year

              भारतीय संस्कार

    (Indian sacraments)

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             संस्कारों का प्रचलन हमारे देश में वैदिक काल से ही प्रारंभ माना जाता है क्योंकि इसके प्रमाण हमें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं इन साहित्य में प्रमुख रूप से वैदिक साहित्य ग्रह सूत्र साहित्य स्मृति साहित्य तथा काव्य ग्रंथों में संस्कारों की परिभाषाएं इनकी संख्या इन की विधि आदि का वर्णन उपलब्ध हो जाता है ऋग्वेद में जहां 4 संस्कारों का वर्णन उपलब्ध होता है जैसे- गर्भाधान, पुंसवन, विवाह तथा अंत्येष्टि संस्कार उसी प्रकार अथर्ववेद में 11 संस्कारों का वर्णन मिलता जिसमें प्रमुख रुप से गर्भाधान, पुंसवन, जात कर्म, नामकरण, चूड़ाकर्ण, कर्ण भेद, उपनयन, समावर्तन, वेद आरंभ, विवाह तथा अंत्येष्टि हैं इसी प्रकार  गृह सूत्र में 11 संस्कार बताए गए हैं जिसमें प्रमुख रूप से विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोउन्नयन, जात कर्म, नामकरण, चूड़ाकर्ण, अन्नप्राशन, उपनयन, समावर्तन तथा अंत्येष्टि आदि का उल्लेख मिलता है।

          संस्कार वह धार्मिक अनुष्ठान है जो व्यक्ति को योग्य बनाता है उसके जीवन को सार्थक करता है, गुणों का विकास करता है, दोषों को दूर करता है तथा शरीर के साथ-साथ आत्मा को भी उन्नत करता हो वह संस्कार है। इस प्रकार संस्कार का अर्थ अगर हम देखें तो व्यक्ति के बाहरी परिष्कार के साथ साथ आंतरिक परिष्कार का भी मार्ग प्रशस्त करता है. जिस प्रकार स्वर्णकार आग से  परिष्कार करके आभूषण बनाता है उसी प्रकार माता- पिता, गुरु और पुरोहित संस्कारों से व्यक्ति का परिष्कार करके उसे परिवार, समाज और राष्ट्र का सदस्य बनाते हैं।

    संस्कारों के द्वारा धार्मिक कृत्यों का आयोजन मानव  के माता के गर्भ में प्रवेश से लेकर मातृभूमि की मिट्टी से मिलने तक अर्थात जन्म से लेकर मृत्यु के पश्चात तक करने का विधान किया गया है।

संस्कार” शब्द का अर्थ एवं परिभाषा प्रकार से परिलक्षित होते हैं-

 संस्कार शब्द की उत्पत्ति सम उपसर्ग पूर्वक धातु से ध़ज योग द्वारा हुई है वामन शिवराम आप्टे ने इस शब्द के अर्थ बताएं हैं- पूर्ण करना, संस्कृत करना, विशुद्धता, शिक्षा, सज्जा, खाना बनाना, प्रसाधन, पवित्रीकरण, विचार, भाव, स्मरण शक्ति, शुद्धि, पुनीत कृत्य, धार्मिक अनुष्ठान आदि।

इस प्रकार हमारे धर्म शास्त्रों द्वारा संस्कार शब्द की जो परिभाषाएं दी गई हैं उनमें से  महत्वपूर्ण परिभाषा का संकलन किया जा रहा है- 

“संस्कार” का अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों से है, जिनसे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य हो सके।” 

            – डॉ राजबली पांडे ।

उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर हिंदू संस्कृति के अनुसार प्रमुख सोलह संस्कारों की विवेचना निम्न बिंदुओं के आधार पर प्रस्तुत की जा रही है-

1. गर्भाधान संस्कार –  माता के गर्भ में शिशु का  बीज रुप में प्रतिष्ठा होना ही गर्भाधान संस्कार कहलाता है। इस विधि के विषय में वेदों, उपनिषद ग्रंथों, ब्राम्हण ग्रंथों, धर्म सूत्रों, गृह्यसूत्रों, स्मृतियों तथा काव्यों में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है।

इन ग्रंथों से प्राप्त उद्वरनो में  पति-पत्नी में परस्पर अनुराग -युक्त स्वीकृति से इस संस्कार को सम्पन्न करने का विधान है। इसके साथ ही देवी-देवताओं से प्रार्थना की गई है कि वह गर्भ की रक्षा करें और गर्भाधान के दशवें महीने में उत्पन्न होने का सामर्थ्य संतति को दें। आचार्य मनु ने गर्भ की सुरक्षा के लिए इस बात को आवश्यक माना है कि गर्भाधान के समय पत्नी सब प्रकार से संतुष्ट और प्रसन्न हो। अप्रसन्न स्त्री गर्भाधान करने में असमर्थ रहती है।इसलिए पति का कर्तव्य है कि पत्नी को वस्त्राभूषण से संतुष्ट करके इस संस्कार में उसका सहयोग प्राप्त करें।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि योग्य संतति को चाहने वाले दम्पत्ति को इस काल के प्रारंभिक 4 दिनों  को तथा अमावस्या, अष्टमी, पूर्णमासी और चतुदर्शी इन 4 तिथियों को छोड़कर इस संस्कार को सम्पन्न करना चाहिये।

प्राचीन ग्रंथों में संतान उत्पादन क्षमता के लिए स्त्री पुरुष को उचित आहार  लेकर गर्भ संरक्षण हेतु विभिन्न औषधियां लेने आदि का निर्देश मिलता है।

आयुर्वेद के आचार्य सुश्रुत ने गर्भाधान संस्कार के लिए पुरुष की आयु 25 वर्ष तथा स्त्री की आयु 16 वर्ष निर्धारित की है इससे पहले गर्भाधान करने वाले स्त्री-पुरुष की संतति गर्भ में ही नष्ट हो जाती है अथवा उत्पन्न होने पर दुर्बल हो जाती है और चिरंजीवी नहीं रह जाती।

2. पुंसवन संस्कार-

पुंसवन संस्कार से तात्पर्य धार्मिक अनुष्ठान को संपन्न करने से हैं देश से गर्भस्थ शिशु पुरुष संतति के रूप में जन्म ले ।

ऋग्वेद, अथर्ववेद एवं सामवेद में इस संस्कार के समय की जाने वाली शुभकामनाएं प्रार्थनाएं एवं स्वास्थ्य लाभ संबंधी विशेषताएं मिलती हैं जिनका अभिप्राय है कि स्त्री जब-जब गर्भ धारण करें वीर पुत्र को ही जन्म देने के लिए अनेक तरह के उपाय ग्रंथों में बताए गए हैं।

3. सीमांतोन्ननयन संस्कार-

इस संस्कार में पति द्वारा गर्भिणी पत्नी के केसों को संवार कर उसकी सीमांत अर्थात मांग को निकालना होता है इस संस्कार मैं ग्रंथों में इस संस्कार को गर्भ के चौथे महीने में करने का निर्देश दिया गया है कुछ ग्रंथों में यह संस्कार पांचवे, छठवें, आठवे  महीने में करने की स्वतंत्रता भी दी गई है। इस संस्कार को चतुर्थ महीने में करने पर अच्छा प्रभाव पड़ता है ऐसा माना जाता है अन्य महीनों में संभवत इसे खानापूर्ति के लिए भी कर दिया जाता है . उल्लेखनीय है कि  संस्कार प्रकाश में तो यह भी वर्णन किया गया है कि यदि संस्कार को संपन्न करने के पहले ही स्त्री ने संतति को जन्म दे भी दिया तो भी उस नवजात शिशु को माता की गोद में रखकर किसी पेटी में रख कर भी यह संस्कार किया जा सकता है। इस संस्कार का प्रयोजन गर्भिणी के गर्भस्थ शिशु की जांच करना और उसे प्रसन्न रखना है इसके अतिरिक्त इस समय गर्भस्थ शिशु की रक्षा का विशेष प्रयत्न करना भी आवश्यक है धर्मशास्त्रकारों ने इस संस्कार को एक ही बार करने का निर्देश दिया है।

4. जात कर्म संस्कार-

            शिशु के जन्म के पश्चात संतति के उत्पन्न होने पर नांदी पाठ एवं श्राद्धादि  का विधान करते हुए पिता पुत्र के लिए हितकारी जात कर्म संस्कार का आयोजन करता है।  अधिकांश ग्रंथों में इसे प्रसव हो जाने पर ही जात कर्म संस्कार करने का विधान दिया गया है किंतु आचार्य मनु एवं वीर मित्रों  ने यह माना है कि बालक के जन्म के पश्चात नाल काटने से पहले इस संस्कार को करना चाहिए इस संस्कार में मंत्र उच्चारण पूर्वक नवजात शिशु को सोने की शलाका का शहद और मधु प्राशन्न कराना चाहिए।

5. नामकरण संस्कार-

           नामकरण संस्कार में ऐसा माना जाता है कि इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु का नाम है । नाम वह तत्व है जो व्यक्ति को सामान्य से विशेष बनाता है ,उसकी पहचान बनाता है अतः नाम का बड़ा महत्व है महर्षि याज्ञवल्क्य का मत है कि व्यक्ति को सब छोड़ देते हैं बस नाम ही नहीं छोड़ता अतः नाम नित्य है विष्णु देव भी अनंत है पता नाम से ही व्यक्ति विश्व देव को प्राप्त कर के अंतः लोगों को जीत लेता है नामकरण संस्कार के इस महत्व को स्पष्ट करने के लिए ही व्यक्ति का नामकरण संस्कार कराया जाता है जिसमें माता पिता एवं परिवार के अन्य सदस्य शिशु के जन्म के अवसर पर ही उसका नाम रख देते हैं नाम की आवश्यकता तथा महत्व को ही दृष्टि में रखकर हमारे धर्म आचार्यों ने नाम रखने का भी एक संस्कार वेद क्या इसी के चलते शिशु का नामकरण संस्कार भी उसके अन्य संस्कारों के ही समान धार्मिक विधि से किया जाता है। नामकरण की परंपरा वैदिक युग से ही प्रचलन में थी।

6. निष्क्रमण संस्कार- 

          संभवतः 9 महीने तक गर्भ में रहने के बाद बाद बाह्य वातावरण में अकस्मात निकलना शिशु के लिए प्रतिकूल भी हो सकता है अतएव शिशु जन्म के पश्चात प्रसूति गृह से पूजा स्थल में ले जाया जाता है, किंतु घर के बाहर एकाएक उसे नहीं ले जाया जा सकता इसके लिए शुभ नक्षत्र एवं शुभ मुहूर्त देखकर जन्म के कुछ समय पश्चात की शिशु को बाहर ले जाया जा सकता है इस प्रकार विधि विधान से शिशु को घर से बाहर निकालने क प्रक्रिया ही निष्क्रमण संस्कार कहलाता है। वैदिक साहित्य में इस संस्कार के विभिन्न संकेत प्राप्त हुए हैं  जिस प्रकार सूर्य, चंद्र, अग्नि एवं वायु अपने उद्भव स्थान से निकलकर ही बाहरी  वातावरण में आते हैं इसी प्रकार पुत्र भी माता की गोद से बाहर वातावरण में आते हैं।  शिशुओं  का क्षेत्र विस्तृत होने लगता है शिशु माता के साथ अंदर ही रहेगा तो समुचित रूप से उसका विकास नहीं हो सकता।  स्वास्थ्य लाभ के लिए उसे शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्मृति ग्रंथों एवं गृह सूत्रों में निष्क्रमण संस्कार का विधान बताया गया है।

7. अन्नप्राशन संस्कार-

        अन्नप्राशन संस्कार में बच्चे को घृत और मधु का मिश्रण दिया जाना तय होता है तथा उसमें माता का दूध मिलाया जाता है। कुछ समय तक माता का दूध ही बालक का संपूर्ण आहार होता है किंतु बढ़ते हुए शिशु के लिए माता का दूध ही पर्याप्त नहीं होता । अब वह दूध के साथ ही अन्न  को पचाने  योग्य हो जाता है उसकी मानसिक विकास करने के लिए तथा शरीर का समुचित विकास करने के लिए ऊपर से भोजन अनिवार्य हो जाता है, जब शिशु को पहली बार इसी उद्देश्य से अन्न दिया जाता है तब वह धार्मिक कृत्य किए जाते हैं, उन्हीं का नाम अन्नप्राशन संस्कार है इस संस्कार का प्रारंभ भी वैदिक युग से माना जाता है।

8. चूड़ा करण संस्कार-

            इस संस्कार में शिशु के बाल पहली बार काट कर शिखा रखी जाने का विधान है इसी संस्कार का मुंडन नाम आज भी प्रचलित है इस संस्कार योजन का प्रारंभ वैदिक काल से ही प्रारंभ हो चुका था वैदिक साहित्य में इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं चरक और सुश्रुत ने शिशु की पुष्टि, पवित्रता, दीर्घायु, सौंदर्य की दृष्टि से इस संस्कार को आवश्यक बताया इस संस्कार के लिए निर्धारित समय के विषय में सूत्रकारो एवं धर्मशास्त्र कारों के अनेक मत बताए गए हैं शिशु का चूड़ा कर्म उत्तरायण में शुक्ल पक्ष के अवसर पर किया जाना अत्यंत ही शुभ माना जाता है इस संस्कार के लिए द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी तथा त्रयोदशी तिथि निश्चित की गई हैं इस संस्कार को शिशु की माता के गर्भ में अथवा रजस्वला होने की स्थिति में भी नहीं करना चाहिए।

9. करण भेदन संस्कार –

           करण भेदन संस्कार में शिशु के कानों को छेदा जाता है किंतु इस संस्कार के विषय में वेद, गृहसूत्र एवं स्मृति साहित्य बहुत विस्तृत जानकारी का स्रोत नहीं मिलता। कानों को छेदने का संकेत मिलता है यद्यपि यह मंत्र ग्रंथों में गौओं के वर्णन के प्रसंग में आया है तथापि इस गौओं के कर्ण भेद संस्कार की झलक  दृष्टिगोचर हो जाती है। इस संस्कार का उपयुक्त समय जन्म से तीसरा वर्ष अथवा 5वें वर्ष माना गया है इसके अतिरिक्त छठे, सातवें ,आठवें महीने में अथवा 1 वर्ष में इस संस्कार का विधान किया गया है।

10. 1 –विद्यारंभ संस्कार –

           इस संस्कार को अक्षर आरंभ, अक्षर लेखन आरंभ ,अक्षरस्वीकारंभ आदि नामों से भी जाना जाता है गृह सूत्र, धर्मसूत्र एवं स्मृति साहित्य में इस संस्कार के विषय में कोई सामग्री नहीं मिलती ऋग्वेद में इसका उल्लेख अवश्य है विद्या रूपी धन की याचना करना अथवा अप्रशस्त को प्रशस्त अर्थात ज्ञानवान बनाना शामिल है। विद्यारंभ संस्कार में विद्या की देवी सरस्वती की पूजा करना और इसके बाद बालक को विद्या ग्रहण करने के लिए तैयार करना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य माना जाता है । ऋग्वेद में बताया गया है कि चूड़ा कर्म करने के बाद बालक को लिपि और संख्या का ज्ञान कराना चाहिए , जब वह भाषा समझने लगे तभी उसे शास्त्र पढ़ाना चाहिए उसके बाद ही उसका उपनयन संस्कार होना चाहिए।

11.2-  उपनयन संस्कार-

           विद्यार्थी बालक को आचार्य द्वारा ब्रह्मा विद्या की शिक्षा देने के लिए स्वीकार करने की धार्मिक विधि उपनयन संस्कार कहलाता है । इसी संस्कार के पश्चात व्यक्ति का ब्रह्मचर्य आश्रम का जीवन प्रारंभ होता है इस संस्कार का प्रारंभ वैदिक युग में ही हो चुका था इसके प्रमाण वेदों एवं उपनिषदों में उपलब्ध हो जाते हैं।

11. वेदारम्भ संस्कार –

               इस संस्कार का नाम उल्लेख केवल व्यास स्मृति में मिलता है ग्रह सूत्रों एवं स्मृति ग्रंथों में इसकी प्रत्यक्ष चर्चा अथवा इसका वर्णन नहीं मिलता इस संस्कार के स्पष्ट संकेत इन ग्रंथों में अवश्य मिल जाते हैं तथा अनुसार ही इसका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है जब पुरोहित ब्रह्मचारी को वेद पढ़ने का आदेश देते हैं और श्रीराज व्रत द्वारा शिक्षक की परीक्षा ली जाती है तब मेधा जन्म से संबंधित स्थितियों के पश्चात ही इस संस्कार का अवसर आता है क्योंकि हमारी संस्कृति में वेद आप और उसे तथा परम पवित्र माने गए हैं अतः इनको ग्रहण करने के लिए मन वाणी एवं शरीर की पवित्रता परम अपेक्षित है जो उपनयन संस्कार के बाद ही विद्यार्थी में आती है विद्यार्थी को ब्रम्हचर्य का पालन करना पड़ता है वेदा अध्ययन के पूर्व यज्ञ पवित धारण करना एवं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना आवश्यक होता है आचार्य मनु ने इस संस्कार को उपनयन संस्कार के बाद ही अब करने का विधान किया है इस संस्कार इस प्रकार आप आपसतंभ ग्रह सूत्र मैं इसका वर्णन मिलता है विद्यार्थी को एक वेद के अध्ययन के लिए 12 वर्ष 2 वेदों के अध्ययन के लिए, 24 वर्ष और 3 वेदों के अध्ययन के लिए 36 वर्ष एवं चार वेदों के अध्ययन के लिए 48 वर्ष का ब्रम्हचर्य अपेक्षित माना गया है।

12. गोदान संस्कार-

              गोदान संस्कार का क्रम प्राप्त समावर्तन संस्कार का परिचय प्रस्तुत करने के पहले संक्षेप में बताना आवश्यक है कि उपनयन के पश्चात चार वेद व्रतों के पालन का भी नियम बनाया गया था जिसमें महान नाम नी महाव्रत एवं उपनिषद् व्रत तो इसलिए लुप्त हो गए क्योंकि बाद में वैदिक साहित्य और उसके अध्ययन की अवधि सीमित हो गई किंतु गोदान  संस्कार का अस्तित्व तो बना हुआ था इस संस्कार का उल्लेख एवं विधि का वर्णन ग्रह सूत्रों एवं स्मृतियों में मिल जाता है. इस संस्कार में आचार्य को गोदान किया जाता था तथा नाई द्वारा क्षौरकर्म करने के पश्चात उसे भी उपहार दिए जाते थे इसीलिए  इस संस्कार को गोदान संस्कार अथवा केशांत संस्कार कहा जाता है गृह सूत्रों स्मृति ग्रंथ एवं काव्य ग्रंथों में इस संस्कार के विषय में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की गई है इस संस्कार की गणना अन्य मानक सोलह संस्कारों में नहीं की जाती है।

12 – समावर्तन संस्कार –

              यह संस्कार सम  तथा उपसर्ग पूर्वक वर्त धातु से लट प्रत्यय लगाकर निर्माण  हुए समावर्तन शब्द का अर्थ है वेद अभ्यास के पश्चात युवक का घर लौटना। उपनयन संस्कार बालक के गुरुकुल में प्रवेश का संस्कार था और समावर्तन वहां से विद्या ग्रहण करने के पश्चात लौटने का संस्कार है।  वैदिक साहित्य, गृहसूत्र, स्मृतियों में इस संस्कार का परिचय दिया गया है इस संस्कार के अंतर्गत समिधा धारण करने से तेजस्वी, कृष्ण मृग चर्म धारण करता हुआ बढ़ी हुई दाढ़ी मूछ धारण करने वाला ब्रह्मचारी शीघ्र ही लोगों को एकत्र करता हुआ तथा उन्हें उत्साहित करता हुआ पूर समुद्र से उत्तर समुद्र तक पहुंचता है हित की बात सोचता हुआ ब्रह्मचारी जल के समीप तब करता है ज्ञान के समुद्र में तपा हुआ यह ब्रह्मचारी स्नान करके अत्यधिक तेजस्वी होकर इस पृथ्वी पर अत्यधिक सुशोभित होता है इसका उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है ।अर्थात इस संस्कार से वेद पढ़ने के पश्चात आचार्य की आज्ञा से संपन्न होता हुआ स्नान एवं गुरु दक्षिणा के पश्चात ब्रह्मचारी युवक गुरु के आश्रम से गुरु की आज्ञा लेकर अपने घर वापस आता आने का विधान है इस प्रकार आचार्य उसे गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति दे देते हैं यह समावर्तन ब्रह्मचारी आश्रम के नियमों का पालन न करने वाले सामान्य वेद पार्टियों के लिए संपन्न किया जाता है।

13. विवाह संस्कार –

                विवाह संस्कार हिंदू संस्कृति में मान्य सोलह संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण है अन्य 15 संस्कार इसी संस्कार पर आधारित हैं गृहस्थ आश्रम में धर्म, अर्थ, काम तीन वर्ग की सिद्धि का साधन विवाह संस्कार है किसी स्त्री को धर्म तथा पत्नी बनाने वाला व्यक्ति ही यज्ञ आदि कार्य करने में समर्थ है विवाह की इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही वेदों गृह सूत्रों स्मृतियों पुराणों तथा काव्य ग्रंथों में इस संस्कार को अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना गया है इस विषय में विस्तृत जानकारी भी इन ग्रंथों में प्रस्तुत की गई है।

 विवाह शब्द की उत्पत्ति व उपसर्ग पूर्वक वाहन करना अर्थ वाली व धातु से धन्ज प्रत्यय लगाकर हुई है जिसका अर्थ है विशिष्ट प्रकार से वाहन करना । वास्तव में व्यक्तिगत दांपत्य जीवन तभी सफल हो सकता है जब वह अपने पारिवारिक जीवन से संबंधित कर्तव्य का निर्वाह पूर्ण निष्ठा से करें ।वैदिक ग्रंथों में विवाह को भार प्राप्ति का कारण माना गया है इससे पाणिग्रहण भी कहा जाता है।

संतानोत्पत्ति , वर्णाश्रम धर्म पालन आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अग्नि देवता तथा ब्राह्मण को साक्षी मानकर वर द्वारा वधू का पाणिग्रहण संस्कार, विवाह है, क्योंकि इसका उद्देश्य वर्णाश्रम धर्म पालन है इसलिए समावर्तन संस्कार के पश्चात विवाह संस्कार का निर्देश दिया गया है।

प्राचीन काल में आठ प्रकार के विवाह प्रचलन में थे जिसमें प्रमुख रुप से ब्रह्मा विवाह दे व विवाह, आर्ष विवाह, प्रजापत्य विवाह, असुर विवाह, गंधर्व विवाह, राक्षस तथा पैशाच विवाह प्रचलन में थे सूत्रकारो एवं स्मृति कारों ने ब्रह्मा विवाह को सर्वश्रेष्ठ माना है।

14. वानप्रस्थ संस्कार- 

                    वानप्रस्थ संस्कार में प्रवेश करने हेतु जिन धार्मिक विधियों का संपादन किया जाता है उन्हें वानप्रस्थ संस्कार कहते हैं। इस संस्कार से संबंधित प्रार्थनाएं आदेश एवं विवेक जी आहुतियां वेदों में विस्तार पूर्वक मिलती हैं अथर्ववेद में मंत्रों के रूप में अनेक इसके उदाहरण प्राप्त है सन प्रत्येक संस्कार की भांति वानप्रस्थ संस्कार भी अत्यंत ही महत्वपूर्ण है । ग्रंथों में यह बताया गया है कि अग्निहोत्र की सामग्री आदि लेकर इष्ट मित्रों से मिलकर वन को प्रस्थान करना चाहिए। वानप्रस्थाश्रम में पहुंचने वाले के कर्तव्य संबंधी ग्रंथ की “आश्रम प्रस्तुत” नामक अध्याय में उल्लेखित  हैं।

15.सन्यास संस्कार-

                                   संयास आश्रम में प्रवेश करते हुए जिन धार्मिक कृत्यों का संपादन किया जाता है, उसे ही सन्यास संस्कार कहा जाता है वैदिक साहित्य में व्यक्ति को संन्यास लेने की प्रेरणा के संबंध में अनेक मंत्र बताए गए हैं जिसमें सन्यास लेने की प्रेरणा दी गई है मोक्ष प्राप्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना की गई है तथा सन्यासी को अन्य आश्रम वासियों को ब्रह्मविद्या का उपदेश देने का भी संदेश दिया गया है । आचार्य मनु ने भी अन्य अनेक उपदेश दिए  है कि वह प्रजापत यज्ञ पूर्वक बालों तथा नाखूनों को काटकर हाथ में कमंडल लेकर, दंड धारण करके, गेरुआ वस्त्र पहन कर विचरण करने तथा किसी भी प्राणी को संतप्त ना करने की सलाह दी है।

16.  अंत्येष्टि संस्कार –

                      भारतीय संस्कृति में इसको मनुष्य का अंतिम संस्कार माना गया है क्योंकि इसके बाद कोई संस्कार शेष नहीं बचता । मनुष्य के जन्म से पूर्व संस्कारों का विधान है तथा मृत्यु के पश्चात भी संस्कार के रूप में अंत्येष्टि का विधान है जो इस बात का प्रतीक है कि पांच तत्वों से निर्मित शरीर पुनः उसी को सौंप दिया जाए जिससे वह बना है। अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन वैदिक साहित्य से लेकर पुराण साहित्य तक में मिलता है। संस्कृत काव्य ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है. आज भी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसका अंतिम संस्कार उसके धर्म एवं संप्रदाय के आधार पर किया जाता है यजुर्वेद स्मृतियों में संस्कार को विशेष बल दिया गया।

                        इस प्रकार हम देखते हैं उपर्युक्त सोलह संस्कारों के परिचय से ज्ञात होता है कि भारतीय संस्कृति के सोलह संस्कार व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करने में सहायक हैं,  इन संस्कारों को संपन्न करने में अग्नि स्तुति, आशीर्वचन, यज्ञ, ग्रह नक्षत्र की अनुकूलता पर भी जोर दिया गया है.  ये सभी तत्व संस्कारों को सार्थक एवं प्रेरक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

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