भारतवर्ष की भौतिक संरचना
भारतवर्ष की भौतिक संरचना अत्यंत विविधतापूर्ण है। यहाँ पर्वत, नदियाँ, मैदान, पठार, मरुस्थल, समुद्र तट, द्वीप समूह आदि प्राकृतिक विशेषताएँ मिलती हैं। यही विविधता इसकी जलवायु, कृषि, संस्कृति, निवास, व्यापार और समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भौतिक संरचना के आधार पर भारत को विभिन्न भौगोलिक भागों में विभाजित किया गया है। नीचे विस्तार से समझते हैं:
भारत की भौतिक संरचना के प्रमुख घटक
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चित्र स्रोत: https://www.google.com
1. हिमालय पर्वतमाला
विशेषताएँ:
हिमालय पर्वतमाला भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण भौगोलिक संरचना है। यह न केवल भौतिक रूप से विशाल है, बल्कि भारत की जलवायु, संस्कृति, धर्म, अर्थव्यवस्था और सुरक्षा में भी इसका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- विश्व की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला– हिमालय पर्वतमाला की औसत ऊँचाई 6,000 मीटर से अधिक है। इसमें विश्व की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट (8848 मीटर), कंचनजंगा, नंदा देवी, धौलागिरि, आदि स्थित हैं। पर्वतों की ऊँचाई इसे विशिष्ट बनाती है।
- भौगोलिक विस्तार – यह पर्वत श्रृंखला भारत के उत्तर में लगभग 2,400 किलोमीटर तक फैली है। यह जम्मू-कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक फैली हुई है। नेपाल, भूटान और तिब्बत से भी इसकी कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं।
- नदियों का उद्गम स्थल – गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र जैसी पवित्र नदियाँ हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों से निकलती हैं। ये नदियाँ भारत की कृषि, पेयजल, जलविद्युत, परिवहन और धार्मिक गतिविधियों का आधार हैं। उदाहरण – गंगोत्री ग्लेशियर से गंगा नदी का प्रवाह।
- जलवायु पर प्रभाव– हिमालय पर्वत मानसून की दिशा और गति को नियंत्रित करता है। यह भारत में वर्षा लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह ठंडी हवाओं को रोककर भारत के मैदानी भागों को जलवायु संतुलन प्रदान करता है।
- जैव विविधता और वनस्पति – यहाँ विविध जलवायु क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की वनस्पति और जीव-जंतु पाए जाते हैं। देवदार, चीड़, भोजपत्र जैसे वृक्ष यहाँ की प्रमुख वनस्पति हैं। हिमालय क्षेत्र में हिम तेंदुआ, लाल पांडा, कस्तूरी मृग जैसे दुर्लभ जीव भी मिलते हैं।
- धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व – हिमालय को ‘देवों की भूमि’ माना जाता है। अनेक तीर्थस्थल जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ, गंगोत्री यहाँ स्थित हैं। योग, तपस्या और ध्यान की परंपरा इसी पर्वत क्षेत्र से जुड़ी है।
- प्राकृतिक संसाधनों का भंडार – हिमालय क्षेत्र में खनिज, औषधीय पौधे, जल स्रोत और वन संपदा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जलविद्युत उत्पादन में इसका बड़ा योगदान है। पर्यटन और साहसिक खेलों के लिए भी यह प्रमुख क्षेत्र है।
- सुरक्षा की दृष्टि से महत्त्व– हिमालय भारत की प्राकृतिक रक्षा दीवार है। यह उत्तरी सीमा की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसकी दुर्गमता और ऊँचाई बाहरी आक्रमणों से रक्षा करती है।
हिमालय पर्वतमाला भारत की भौतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक पहचान का अभिन्न अंग है। नदियों का उद्गम, जलवायु का नियमन, जैव विविधता का संरक्षण, धार्मिक आस्था, पर्यटन और सुरक्षा – हर क्षेत्र में हिमालय का योगदान अमूल्य है। यह केवल पर्वत नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का प्रतीक है। इसकी विशेषताओं का अध्ययन भारत की समृद्धि और स्थिरता को समझने में सहायता करता है। हिमालय के बिना भारत की प्राकृतिक और सांस्कृतिक संरचना अधूरी मानी जाती है।
2. सिंधु–गंगा का मैदान – विशेषताएँ
सिंधु–गंगा का मैदान भारत का सबसे विशाल और उपजाऊ मैदान है। यह भारत की कृषि, बसावट, व्यापार और संस्कृति का मुख्य आधार है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- भौगोलिक विस्तार- यह मैदान उत्तर भारत में हिमालय से लेकर प्रायद्वीपीय पठार तक फैला है। पश्चिम में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान का कुछ भाग और पूर्व में बिहार, पश्चिम बंगाल तक इसका विस्तार है।
सिंधु–गंगा का मैदान – क्षेत्रफल:
- सिंधु–गंगा का मैदान भारत के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में से एक है।
- इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 7,00,000 वर्ग किलोमीटर (लगभग 7 लाख वर्ग किमी) के आसपास है।
- यह भारत के कुल भू-भाग का लगभग 21–22% हिस्सा है।
- यह मैदान उत्तर में हिमालय और दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार के बीच फैला हुआ है।
- इसका विस्तार पश्चिम में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के कुछ भाग से लेकर पूर्व में बिहार और पश्चिम बंगाल तक है।
इसके अतिरिक्त इसका विस्तार पाकिस्तान के सिंधु क्षेत्र तक भी जाता है, जहाँ इसे सिंधु का मैदान कहा जाता है। इसे दो भागों में बाँटा जाता है –
- सिंधु का मैदान – मुख्यतः पंजाब, हरियाणा और पाकिस्तान तक फैला क्षेत्र।
- गंगा का मैदान – उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल तक फैला क्षेत्र।
- उपजाऊ मिट्टी – यह क्षेत्र नदियों द्वारा लाए गए गाद से निर्मित है। यहाँ की मिट्टी अत्यंत उपजाऊ है, जिससे विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं। गेहूँ, धान, गन्ना, आलू, मक्का आदि मुख्य फसलें हैं। यहाँ की मिट्टी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का आधार है।
- जल की प्रचुरता – सिंधु, गंगा, यमुना, घाघरा, गंडक, कोसी जैसी नदियाँ इस क्षेत्र को जल प्रदान करती हैं। सिंचाई की सुविधा अधिक होने से यहाँ वर्ष में दो या तीन फसलें ली जाती हैं। नहरों और तालाबों के माध्यम से जल का प्रभावी उपयोग होता है। गंगा और उसकी सहायक नदियों का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी है।
- घनी आबादी और बसावट – यह क्षेत्र भारत का सबसे अधिक आबादी वाला क्षेत्र है। गाँवों और कस्बों की संख्या यहाँ अधिक है। व्यापारिक केंद्र, मंडियाँ, औद्योगिक नगर यहाँ विकसित हुए हैं। उदाहरण – कानपुर, वाराणसी, पटना, लखनऊ आदि प्रमुख शहर हैं।
- जलवायु मानसूनी – जलवायु यहाँ प्रचुर वर्षा देती है। गर्मियाँ गर्म और सर्दियाँ ठंडी होती हैं, जो कृषि के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करती हैं। वर्ष भर विविध फसलें उगाई जा सकती हैं।
- सांस्कृतिक महत्त्व– गंगा नदी के किनारे अनेक धार्मिक स्थल विकसित हुए हैं। काशी, प्रयाग, हरिद्वार जैसे स्थल यहाँ स्थित हैं। यहाँ की संस्कृति, भाषा, त्योहार, लोककला पूरे भारत में प्रसिद्ध हैं।
- आर्थिक गतिविधियाँ – कृषि यहाँ की मुख्य आजीविका है। पशुपालन, मत्स्य पालन, हस्तशिल्प, व्यापार और लघु उद्योग भी फलते-फूलते हैं। नहर आधारित सिंचाई और जलविद्युत परियोजनाएँ यहाँ आर्थिक विकास को बढ़ावा देती हैं।
- प्राकृतिक आपदाएँ – बाढ़ और जलभराव की समस्या यहाँ आम है। नदी के तटों पर बसावट के कारण बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों की संख्या अधिक है। इसके बावजूद यहाँ की उपजाऊ भूमि के कारण लोग कृषि पर निर्भर रहते हैं।
सिंधु–गंगा का मैदान – भारत की जीवनरेखा है। इसकी उपजाऊ मिट्टी, जल की प्रचुरता, अनुकूल जलवायु, धार्मिक केंद्र, घनी आबादी और कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था इसे देश का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र बनाते हैं। भारत की संस्कृति, इतिहास और आजीविका का आधार यही मैदान है। यह न केवल अन्न उत्पादन का केंद्र है, बल्कि आध्यात्मिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध क्षेत्र है। इसके संरक्षण और सतत उपयोग से भारत की स्थिरता और विकास सुनिश्चित होता है।
3. प्रायद्वीपीय पठार
विशेषताएँ:
प्रायद्वीपीय पठार भारत का एक प्रमुख भू-भाग है, जो देश की भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना में विशेष भूमिका निभाता है। यह क्षेत्र प्राचीन चट्टानों से निर्मित है और भारत के दक्षिणी भाग में व्यापक रूप से फैला हुआ है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- प्राचीन भूगर्भीय संरचना- प्रायद्वीपीय पठार पृथ्वी की सबसे पुरानी स्थिर चट्टानों से बना है। इसमें ग्रेनाइट, बेसाल्ट, ग्नाइस जैसी कठोर चट्टानें पाई जाती हैं। यह क्षेत्र भूगर्भीय रूप से स्थिर है, इसलिए यहाँ भूकंप की आशंका अपेक्षाकृत कम होती है।
- भौगोलिक विस्तार – यह पठार दक्षिण भारत का बड़ा हिस्सा घेरता है। इसमें महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु आदि राज्य शामिल हैं। पश्चिम में अरावली से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैला हुआ है।
- नदियों का जाल – नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी जैसी नदियाँ इस क्षेत्र से होकर बहती हैं। ये नदियाँ जल संसाधन, सिंचाई, जलविद्युत और पेयजल की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। नर्मदा और ताप्ती जैसी नदियाँ पश्चिम की ओर बहती हैं, जबकि गोदावरी, कृष्णा, कावेरी पूर्व की दिशा में बहती हैं।
- खनिज संपदा – प्रायद्वीपीय पठार खनिजों से समृद्ध है। यहाँ लौह अयस्क, कोयला, बॉक्साइट, मैंगनीज, चूना पत्थर आदि खनिज प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। औद्योगिक विकास, ऊर्जा उत्पादन और धातु उद्योग में इस क्षेत्र का बड़ा योगदान है। उदाहरण – झारखंड और छत्तीसगढ़ को “खनिज पट्टी” कहा जाता है।
- जलवायु – पठारी भाग की जलवायु सामान्यतः गर्म और शुष्क रहती है। मानसूनी वर्षा के आधार पर यहाँ कृषि की जाती है। दक्षिण भारत के पठार में वर्षा की मात्रा भिन्न-भिन्न है, परंतु सिंचाई के साधनों से कृषि संभव है।
- कृषि और वनस्पति – यहाँ मुख्यतः धान, कपास, तिलहन, गन्ना, दलहन आदि की खेती होती है। जंगलों में साल, सागौन, नीम, महुआ जैसी लकड़ी और औषधीय वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। वनों पर आधारित उद्योग, जैसे लकड़ी, रेजिन, औषधीय पौधे, यहाँ के आर्थिक जीवन का हिस्सा हैं।
- सांस्कृतिक महत्त्व – दक्षिण भारत की सभ्यता, मंदिर स्थापत्य, भाषा, कला और संगीत का विकास इसी क्षेत्र में हुआ। यहाँ अनेक प्राचीन मंदिर, किले और धार्मिक स्थल स्थित हैं। द्रविड़ संस्कृति का प्रभाव यहाँ की परंपरा में स्पष्ट दिखाई देता है।
- जलविद्युत और उद्योग- नर्मदा और गोदावरी जैसी नदियों पर जलविद्युत परियोजनाएँ स्थापित की गई हैं। खनिजों के आधार पर इस क्षेत्र में स्टील, बिजली, सीमेंट और उर्वरक उद्योग विकसित हुए हैं। यहाँ का औद्योगिक विकास भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूती देता है।
प्रायद्वीपीय पठार भारत की भौगोलिक स्थिरता, खनिज संपदा, कृषि और सांस्कृतिक विविधता का प्रमुख केंद्र है। इसकी प्राचीन चट्टानों, नदियों, जंगलों और संसाधनों ने देश की आर्थिक प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जलवायु की विविधता, औद्योगिक विकास, जलविद्युत परियोजनाएँ और सांस्कृतिक धरोहर इसे विशेष बनाती हैं। यह क्षेत्र न केवल प्राकृतिक संपदा का भंडार है, बल्कि भारत की सभ्यता, संस्कृति और अर्थव्यवस्था का आधार भी है। इसलिए प्रायद्वीपीय पठार भारत की पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है।
4. मरुस्थल क्षेत्र – थार मरुस्थल :
विशेषताएँ :
थार मरुस्थल भारत का सबसे बड़ा मरुस्थलीय क्षेत्र है। यह प्राकृतिक रूप से कठोर, शुष्क और सीमित संसाधनों वाला क्षेत्र होते हुए भी विशिष्ट जीवन शैली, संस्कृति और आर्थिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- भौगोलिक विस्तार- थार मरुस्थल मुख्यतः राजस्थान के पश्चिमी भाग में फैला है। इसका विस्तार गुजरात, हरियाणा और पंजाब के कुछ हिस्सों तक भी है। कुल क्षेत्रफल लगभग 2 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक माना जाता है। यह भारत का सबसे बड़ा मरुस्थलीय क्षेत्र है।
- जलवायु – यहाँ वर्षा अत्यंत कम होती है (औसत 100 से 300 मिमी प्रतिवर्ष)। गर्मियों में तापमान 45°C से ऊपर पहुँच जाता है। सर्दियों में तापमान 0°C तक गिर सकता है। दिन और रात के तापमान में बहुत अधिक अंतर पाया जाता है।
- रेत के टीले (रेतीले भूभाग) – थार मरुस्थल में विशाल रेत के टीले (ड्यून्स) पाए जाते हैं। हवा की दिशा के अनुसार ये आकार बदलते रहते हैं। यह दृश्य मरुस्थल की विशिष्ट पहचान है। जैसलमेर और बीकानेर क्षेत्र में विशेष रूप से रेत के टीलों की सुंदरता देखने को मिलती है।
- सीमित जल स्रोत – यहाँ नदियाँ कम हैं, और जो हैं भी वे वर्षा पर निर्भर रहती हैं। नलकूप, तालाब और वर्षा जल संचयन पर जीवन निर्भर है। उदाहरण – जैसलमेर और बाड़मेर में जल संकट के बावजूद पारंपरिक तरीके से जल संचयन होता है।
- जीवन शैली और संस्कृति – यहाँ के लोग पशुपालन, ऊँट पालन और सूखा-रोधी खेती पर निर्भर रहते हैं। लोकगीत, लोकनृत्य, हस्तशिल्प, वस्त्र और लोककला मरुस्थलीय संस्कृति की पहचान हैं। रंग-बिरंगे वस्त्र, आभूषण और त्योहार यहाँ की सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाते हैं।
उदाहरण – राजस्थान का “कला उत्सव”, “पुष्कर मेला” आदि।
- वनस्पति और जीव-जंतु – यहाँ की वनस्पति मुख्यतः झाड़-झंखाड़ और रेगिस्तानी पौधों तक सीमित है। खेजड़ी, बबूल, रोहिड़ा जैसी झाड़ियाँ यहाँ अधिक मिलती हैं। जीवों में मरु लोमड़ी, रेगिस्तानी बिल्ली, गीदड़, साँप, छिपकली आदि पाए जाते हैं। ऊँट यहाँ का प्रमुख पशु है, जिसे “मरुस्थल का जहाज” कहा जाता है।
- आर्थिक गतिविधियाँ – पशुपालन, ऊँट व्यापार, हस्तशिल्प, पर्यटन और सीमित कृषि यहाँ की मुख्य आजीविका है। बाड़मेर क्षेत्र में तेल और प्राकृतिक गैस की खोज ने आर्थिक विकास में योगदान दिया है। पर्यटन क्षेत्र में जैसलमेर किला, धोरों की सैर, लोक उत्सव आकर्षण का केंद्र हैं।
- रणनीतिक महत्त्व- थार मरुस्थल भारत की पश्चिमी सीमा पर स्थित है, जो पाकिस्तान से सटा हुआ है। यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सीमावर्ती सुरक्षा, सैन्य छावनियाँ और सीमा व्यापार यहाँ सक्रिय हैं।
थार मरुस्थल कठिन प्राकृतिक परिस्थितियों के बावजूद मानव जीवन की दृढ़ता और अनुकूलन का उत्कृष्ट उदाहरण है। सीमित जल, तीव्र गर्मी, रेत के टीले और शुष्क जलवायु ने यहाँ की संस्कृति, अर्थव्यवस्था और जीवन शैली को विशिष्ट बनाया है। पशुपालन, लोककला, पर्यटन और सीमावर्ती सुरक्षा की दृष्टि से इसका विशेष स्थान है। थार मरुस्थल यह दर्शाता है कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मानव समाज कैसे जीवित रहकर अपनी परंपराओं, कौशल और धैर्य से विकास करता है। यह भारत की विविधता और सहनशीलता का प्रतीक है।
1. तटीय मैदान और समुद्र –
विशेषताएँ :
भारत का तटीय क्षेत्र और समुद्री क्षेत्र इसकी भौगोलिक संरचना, अर्थव्यवस्था, व्यापार, संस्कृति और जैव विविधता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लगभग 7,500 किलोमीटर लंबा समुद्र तट भारत को समुद्री व्यापार और जलवायु की दृष्टि से विशिष्ट बनाता है। पश्चिमी तट (अरब सागर) और पूर्वी तट (बंगाल की खाड़ी) पर फैले तटीय मैदान प्राकृतिक संसाधनों, कृषि, मत्स्य पालन और पर्यटन के केंद्र हैं। नीचे विस्तृत शोध सहित इसकी विशेषताएँ प्रस्तुत हैं:
- भौगोलिक विस्तार – भारत का समुद्र तट कुल 7,500 किमी से अधिक लंबा है, जो मुख्यतः दो भागों में विभाजित है:
- पश्चिमी तट – गुजरात से लेकर केरल तक अरब सागर से सटा।
- पूर्वी तट – पश्चिम बंगाल से तमिलनाडु तक बंगाल की खाड़ी से सटा। दोनों तटों पर समतल मैदान, डेल्टा, खाड़ी और प्राकृतिक बंदरगाह पाए जाते हैं।
- डेल्टा और नदियाँ– पूर्वी तट पर बड़ी नदियों जैसे गंगा, महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी द्वारा निर्मित डेल्टा पाए जाते हैं। ये डेल्टा कृषि और जल प्रबंधन का आधार हैं। डेल्टा क्षेत्रों की मिट्टी उपजाऊ होती है, जिससे धान, नारियल, मछली पालन आदि का विकास होता है। पश्चिमी तट पर डेल्टा कम हैं, परंतु यहाँ के समुद्री बंदरगाह विकसित हैं।
- जलवायु पर प्रभाव – समुद्र तट समुद्री हवाओं को प्रभावित कर जलवायु को संतुलित करता है। मानसून की वर्षा का अधिकांश भाग तटीय क्षेत्रों में होता है। समुद्री हवाएँ तापमान को नियंत्रित कर तटीय जीवन को अनुकूल बनाती हैं। समुद्र से नमी प्राप्त कर कृषि के लिए अनुकूल वातावरण बनता है।
- प्राकृतिक संसाधन – समुद्र तटों से समुद्री नमक, मछलियाँ, समुद्री शैवाल, मोती, समुद्री घास आदि मिलते हैं। पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस जैसे खनिज भी समुद्री क्षेत्रों में पाए जाते हैं। तटीय क्षेत्रों में नारियल, सुपारी, समुद्री उत्पादों का व्यापार होता है। समुद्री जीव विविधता की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत समृद्ध है।
- आर्थिक गतिविधियाँ –
- मत्स्य पालन – लाखों लोगों की आजीविका का आधार।
- बंदरगाह – मुंबई, चेन्नई, कोचीन, पारादीप जैसे प्रमुख बंदरगाह समुद्री व्यापार को बढ़ावा देते हैं।
- पर्यटन – समुद्री तटों पर पर्यटन उद्योग विकसित है।
- उद्योग – जहाज निर्माण, पेट्रोलियम शोधन, खाद्य प्रसंस्करण आदि में योगदान। समुद्री व्यापार भारत की अर्थव्यवस्था का वैश्विक संपर्क बिंदु है।
- जैव विविधता और पर्यावरण – तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव वन पाए जाते हैं, जो जैव विविधता को संरक्षण प्रदान करते हैं। समुद्री जीवों की बड़ी संख्या समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा है। समुद्री प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों से इन क्षेत्रों की पारिस्थितिकी प्रभावित हो रही है। पर्यावरण संरक्षण हेतु समुद्र तटीय क्षेत्र में विशेष योजनाएँ चल रही हैं।
- संस्कृति और जीवन शैली – समुद्री तटों पर मछुआरों की विशिष्ट जीवन शैली विकसित हुई है। यहाँ समुद्र से जुड़े त्योहार, परंपराएँ और धार्मिक स्थल मिलते हैं। तटीय भोजन – मछली, समुद्री खाद्य, नारियल आधारित व्यंजन प्रसिद्ध हैं। पारंपरिक नौकाएँ, समुद्री व्यापार और हस्तशिल्प यहाँ की पहचान हैं।
- रणनीतिक महत्त्व – समुद्र तट भारत की सुरक्षा और समुद्री व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण है। समुद्री सीमा की निगरानी, रक्षा तथा अंतरराष्ट्रीय व्यापार मार्गों में इसकी भूमिका अहम है।
6. द्वीप समूह-
विशेषताएँ:
भारत में दो प्रमुख द्वीप समूह हैं – अंडमान-निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप द्वीप समूह। ये द्वीप समुद्र से घिरे प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध, जैव विविधता से भरपूर और रणनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- भौगोलिक स्थिति
- अंडमान-निकोबार द्वीप समूह – बंगाल की खाड़ी में स्थित है।
- लक्षद्वीप द्वीप समूह – अरब सागर में स्थित है। ये दोनों द्वीप भारत के समुद्री क्षेत्र को विस्तारित करते हैं और समुद्री व्यापार, पर्यावरण तथा सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- संख्या और विस्तार – अंडमान-निकोबार में लगभग 572 द्वीप, टापू और चट्टानें हैं, जिनमें से करीब 38 द्वीप आबाद हैं। लक्षद्वीप में 36 छोटे द्वीप, रीफ और एटोल हैं, जिनमें से 10–12 द्वीपों पर मानव बसावट है। कुल क्षेत्रफल छोटा है, लेकिन समुद्री विविधता में यह अत्यंत समृद्ध है।
- जैव विविधता – यहाँ समुद्री वनस्पति और जीव-जंतु की अद्भुत विविधता पाई जाती है। प्रवाल भित्तियाँ (कोरल रीफ), समुद्री कछुए, डॉल्फिन, रंग-बिरंगे समुद्री जीव यहाँ पाए जाते हैं। अंडमान क्षेत्र में वर्षा-वन, दुर्लभ पक्षी और समुद्री जीव संरक्षित हैं। लक्षद्वीप में समुद्री शैवाल, प्रवाल और मछलियों की बहुतायत है।
- जलवायु – समुद्री जलवायु यहाँ वर्षभर संतुलित रहती है। गर्म और आर्द्र वातावरण, वर्षा की पर्याप्त मात्रा तथा समुद्री हवाओं के कारण यहाँ की जलवायु कृषि, पर्यटन और जैव विविधता के लिए अनुकूल है।
- प्राकृतिक संसाधन – मछलियाँ, समुद्री शैवाल, प्रवाल, मोती और नमक जैसे समुद्री संसाधन उपलब्ध हैं। नारियल, सुपारी, समुद्री उत्पाद, समुद्री पर्यटन उद्योग के लिए आधार हैं। ऊर्जा उत्पादन के लिए समुद्री पवन और लहरों का उपयोग संभावित है।
- संस्कृति और जीवन शैली – अंडमान-निकोबार में विभिन्न आदिवासी समुदायों की विशिष्ट परंपराएँ हैं। लक्षद्वीप में इस्लामी संस्कृति का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। समुद्र आधारित जीवन शैली – मछली पकड़ना, नाव निर्माण, पारंपरिक समुद्री व्यापार यहाँ की पहचान है। त्योहार, भोजन, भाषा और पोशाक समुद्री परिवेश से प्रभावित हैं।
- रणनीतिक महत्त्व – अंडमान-निकोबार द्वीप समुद्री रक्षा के दृष्टि से भारत का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। यहाँ नौसैनिक अड्डे और सुरक्षा सुविधाएँ स्थापित हैं। भारत की समुद्री सीमाओं की निगरानी, समुद्री व्यापार मार्गों की सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय सहयोग में यह क्षेत्र मदद करता है। लक्षद्वीप भारत के पश्चिमी समुद्री संपर्क में अहम भूमिका निभाता है।
- पर्यटन का विकास – अंडमान-निकोबार में समुद्री पर्यटन, जलक्रीड़ा, स्कूबा डाइविंग, प्रकृति भ्रमण लोकप्रिय हैं। लक्षद्वीप में सफेद रेत, नीला समुद्र और शांत वातावरण पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। समुद्री संरक्षण के साथ पर्यटन का संतुलित विकास आवश्यक है।
भौतिक संरचना का आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव–
पर्वतीय क्षेत्रों में औषधीय वनस्पति और धार्मिक पर्यटन विकसित हुआ। मैदानों में कृषि आधारित समाज का निर्माण हुआ। पठारों में खनिज संसाधनों का उपयोग कर उद्योग विकसित हुए। मरुस्थल में पशुपालन और लोक कला की परंपराएँ जीवित रहीं। तटवर्ती क्षेत्रों ने व्यापार, मत्स्य पालन और बंदरगाह आधारित उद्योगों को बढ़ावा दिया। द्वीपों ने पर्यटन, जैव विविधता संरक्षण और समुद्री सुरक्षा में योगदान दिया।
निष्कर्ष –भारतवर्ष की भौतिक संरचना इसकी आत्मा है। हिमालय से लेकर समुद्र तक फैली यह विविधता इसकी संस्कृति, अर्थव्यवस्था, जलवायु और जीवनशैली को प्रभावित करती है। नदियाँ, पर्वत, पठार, मैदान, मरुस्थल और समुद्र तट मिलकर भारत को समृद्ध, आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रूप से विशेष बनाते हैं। प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता, जलवायु की विविधता और भौगोलिक विस्तार ने इसे मानव सभ्यता का महत्वपूर्ण केंद्र बनाया। भारत की भौतिक संरचना का गहन अध्ययन न केवल भूगोल को समझने में मदद करता है, बल्कि यह बताता है कि किस प्रकार प्रकृति ने भारत की आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान को आकार दिया।
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