प्राचीन भारत में विश्वविद्यालयों और विद्वानों की भूमिका की व्याख्या कीजिए।

भारतीय विश्वविद्यालयों और विद्वानों की भूमिका :

भारतीय विश्वविद्यालय सांस्कृतिक क्रियाकलापों के सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्र थे।

  • तक्षशिला विश्वविद्यालय : एक परिचय विश्व के पहले विश्वविद्यालय तक्षशिला की स्थापना लगभग 900/800 ईसा पूर्व में हुई थी और यह 5वीं शताब्दी ईसा पश्चात तक एक प्रमुख शिक्षा केंद्र रहा। विश्व भर के 10,500 से अधिक छात्रों ने 60 से अधिक विषयों का यहाँ अध्ययन किया और इस प्रकार, भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रभाव का प्रसार विदेश में हुआ। तक्षशिला विश्वविद्यालय (Taxila) प्राचीन भारत का सबसे पुराना और प्रमुख शिक्षा केंद्र था, जिसे दुनिया के शुरुआती विश्वविद्यालयों में गिना जाता है। यह वर्तमान समय में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित था। तक्षशिला विश्वविद्यालय ने प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली और ज्ञान परंपरा को समृद्ध किया और इसका महत्वपूर्ण स्थान धार्मिक, वैज्ञानिक और साहित्यिक शिक्षा के क्षेत्र में था। यह नगर महाजनपद काल में गांधार राज्य का हिस्सा था और इसका उल्लेख महाभारत, जैन और बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है। तक्षशिला रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान पर स्थित था, क्योंकि यह प्राचीन व्यापार मार्गों के बीच में था, जो इसे विद्वानों, छात्रों और व्यापारियों के लिए एक केंद्र बनाता था।

शिक्षा प्रणाली– तक्षशिला में शिक्षा का कोई औपचारिक संस्थागत रूप नहीं था, बल्कि यह विभिन्न विद्वानों और शिक्षकों के आसपास आधारित थी, जो अपने-अपने विषयों में विशेषज्ञता रखते थे। यहाँ किसी विशिष्ट पाठ्यक्रम या डिग्री प्रणाली का प्रचलन नहीं था; छात्र अपनी रुचि के अनुसार विद्वानों से अध्ययन करते थे।

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अध्ययन के प्रमुख विषय-

धर्म और दर्शनबौद्ध धर्म, वेद, वेदांत और भारतीय संस्कृति से संबंधित शिक्षाओं का अध्ययन होता था। तक्षशिला बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था, जहाँ बुद्ध के अनुयायी धर्म और ध्यान की शिक्षा प्राप्त करते थे।

राजनीति और प्रशासन– चाणक्य (कौटिल्य) जैसे प्रसिद्ध विद्वान ने तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण की और बाद में मौर्य साम्राज्य के चंद्रगुप्त मौर्य के राजनीतिक गुरु बने। चाणक्य की प्रसिद्ध रचना “अर्थशास्त्र” राजनीति और प्रशासन का महान ग्रंथ है।

चिकित्सा और आयुर्वेद– प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य चरक ने तक्षशिला में चिकित्सा की शिक्षा दी थी। उनकी रचना “चरक संहिता” आयुर्वेद का महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

गणित और खगोलशास्त्र– तक्षशिला में गणित, ज्योतिष और खगोलशास्त्र की उन्नत शिक्षा दी जाती थी। विद्यार्थियों को गणितीय समस्याओं, ग्रहों की गति और समय मापन का ज्ञान सिखाया जाता था।

सैन्य शिक्षा– तक्षशिला में युद्धकला और सैन्य रणनीति की भी शिक्षा दी जाती थी, जो उस समय के शासकों और योद्धाओं के लिए महत्वपूर्ण थी।

प्रसिद्ध छात्र और विद्वान

चाणक्य (कौटिल्य)- महान राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री, जिन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी पुस्तक अर्थशास्त्र तक्षशिला में दी गई शिक्षा का प्रमाण है।

चरक– भारतीय चिकित्सा प्रणाली के महान आयुर्वेदाचार्य। उन्होंने तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त की और अध्यापन किया। उनकी पुस्तक चरक संहिता आज भी आयुर्वेद में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

जीवक– एक प्रसिद्ध चिकित्सक और गौतम बुद्ध के निजी चिकित्सक, जिन्होंने तक्षशिला में चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की थी।

पाणिनि– महान संस्कृत व्याकरणाचार्य, जिन्होंने तक्षशिला में अध्ययन किया। उनकी पुस्तक अष्टाध्यायी संस्कृत व्याकरण का आधारभूत ग्रंथ है।

तक्षशिला का पतन– 5वीं शताब्दी में हूणों के आक्रमण के बाद तक्षशिला विश्वविद्यालय का पतन हुआ। धीरे-धीरे यह शिक्षा केंद्र समाप्त हो गया, लेकिन इसका प्रभाव भारतीय और एशियाई शिक्षा व्यवस्था पर बना रहा।

तक्षशिला की विरासत- तक्षशिला ने प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली और ज्ञान परंपरा को समृद्ध किया। यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का शिक्षा केंद्र था, जहाँ विभिन्न देशों और संस्कृतियों के विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे।

तक्षशिला विश्वविद्यालय का प्रभाव न केवल भारत पर, बल्कि एशिया के विभिन्न देशों जैसे चीन, तिब्बत और मध्य एशिया पर भी पड़ा।

तक्षशिला की विद्या और ज्ञान परंपरा ने भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और बौद्धिक धरोहर को समृद्ध किया और इसका योगदान आज भी भारतीय शिक्षा और संस्कृति में देखा जा सकता है।

2. नालंदा विश्वविद्यालय – नालंदा महाविहार, शिक्षा के क्षेत्र में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक था। प्राचीन भारत के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षा केंद्रों में से एक था, जो बौद्ध धर्म, दर्शन, विज्ञान, गणित, चिकित्सा और साहित्य के अध्ययन के लिए विश्व प्रसिद्ध था। नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण 5वीं शताब्दी ईस्वी में गुप्त सम्राट कुमारगुप्त – I (415-455 ई.) द्वारा किया गया था। यह वर्तमान बिहार राज्य में स्थित था और इसका अस्तित्व लगभग 800 वर्षों तक रहा, जिससे इसे प्राचीन भारत का सबसे दीर्घकालिक शिक्षा केंद्र माना जाता है हवेनसांग, एक चीनी बौद्ध यात्री, ने नालंदा में शीलभद्र के मार्गदर्शन में दो साल तक अध्ययन किया। उन्हें यहाँ एक भारतीय नाम मोक्षदेव दिया गया था। एक चीनी बौद्ध यात्री ईत्सिंग, 10 वर्ष तक नालंदा में रहा। 8वीं शताब्दी में तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार का नेतृत्व करने वाले शान्तरक्षित नालंदा के एक विद्वान थे। नालंदा महाविहार से सम्बंधित अन्य विद्वानों में आर्यभट्ट, अतिश, दिग्नाग, धर्मपाल और नागार्जुन आदि थे।

प्रमुख विशेषताएँ

बौद्ध शिक्षा का केंद्र- नालंदा मुख्य रूप से बौद्ध धर्म का अध्ययन और अनुसंधान केंद्र था, लेकिन यहाँ अन्य धर्मों और शास्त्रों की भी शिक्षा दी जाती थी।

यह महायान बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था, जहाँ विभिन्न देशों से बौद्ध भिक्षु और छात्र शिक्षा प्राप्त करने आते थे। ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे चीनी यात्री और विद्वान भी नालंदा में अध्ययन करने आए थे।

विषयों की विविधता- नालंदा में धर्म, दर्शन और तर्कशास्त्र के अलावा विज्ञान, गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, व्याकरण और साहित्य जैसे विविध विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यहाँ पर अध्ययन की गहनता और विस्तार को देखते हुए इसे एक प्रमुख बहुविषयक विश्वविद्यालय माना जाता है।

विशाल पुस्तकालय– नालंदा का पुस्तकालय “धर्मगंज” नामक तीन बड़े पुस्तकालयों का समूह था – रत्नसागर, रत्नोदधि, और रत्नरंजक। इन पुस्तकालयों में हजारों पांडुलिपियाँ और ग्रंथ संग्रहित थे, जिनमें बौद्ध धर्म, वेद, चिकित्सा, और विज्ञान से संबंधित प्रमुख ग्रंथ थे। कहा जाता है कि नालंदा के पुस्तकालय में इतनी अधिक पांडुलिपियाँ थीं कि जब आक्रमणकारियों ने इसे जलाया, तो वह कई महीनों तक जलता रहा।

विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या– नालंदा में लगभग 10,000 विद्यार्थी और 2,000 शिक्षक थे, जो न केवल भारत से बल्कि तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, मंगोलिया, और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से भी आते थे। विद्यार्थियों को दाखिला लेने के लिए कड़े प्रवेश मानकों को पूरा करना पड़ता था। केवल योग्य और मेधावी छात्र ही यहाँ प्रवेश प्राप्त कर सकते थे।

संरचना और परिसर– नालंदा विश्वविद्यालय का परिसर बहुत बड़ा था, जिसमें कई मठ, ध्यानस्थल, अध्ययन कक्ष और उद्यान थे। परिसर में ध्यान और साधना के लिए विशेष स्थल थे, जो बौद्ध धर्म के शिक्षा और अनुशासन के केंद्र थे। इसके भवनों की वास्तुकला भी बौद्ध स्थापत्य कला का अद्वितीय उदाहरण थी।

प्रमुख विद्वान और शिक्षक –

ह्वेनसांग (Xuanzang) ह्वेनसांग एक चीनी विद्वान थे, जिन्होंने 7वीं शताब्दी में नालंदा में शिक्षा प्राप्त की और वहाँ से बौद्ध धर्म के गहन अध्ययन के बाद चीन लौटकर कई ग्रंथों का अनुवाद किया। उन्होंने अपनी यात्रा और अध्ययन का वर्णन अपने ग्रंथों में किया, जो नालंदा के बारे में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत हैं।

नागार्जुन– नागार्जुन प्राचीन भारत के प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक और शिक्षक थे, जिन्होंने माध्यमिक दर्शन का प्रतिपादन किया। वे नालंदा के प्रमुख विद्वानों में से एक माने जाते हैं।

शीलभद्र– शीलभद्र नालंदा के प्रधानाचार्य थे और उन्होंने ह्वेनसांग को बौद्ध धर्म की शिक्षा दी। वे भारतीय दर्शन और तर्कशास्त्र में विशेषज्ञ थे।

नालंदा का पतन– नालंदा विश्वविद्यालय का पतन मुख्य रूप से 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी के आक्रमण के दौरान हुआ, जिसने इसे नष्ट कर दिया और पुस्तकालयों को आग लगा दी। इस आक्रमण के बाद नालंदा की शिक्षण परंपरा समाप्त हो गई और यह महान ज्ञान का केंद्र ध्वस्त हो गया।

पुनरुत्थान- नालंदा विश्वविद्यालय की विरासत को पुनः जीवित करने के प्रयास 20वीं और 21वीं शताब्दी में किए गए। 2006 में नालंदा के पुनर्निर्माण के प्रयास शुरू हुए, और 2014 में नालंदा विश्वविद्यालय को आधुनिक समय में पुनः स्थापित किया गया। इसे एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया जा रहा है, जो प्राचीन नालंदा की शिक्षा परंपराओं को पुनर्जीवित कर रहा है।

  1. विक्रमशिला विश्वविद्यालय : एक परिचय – विक्रमशिला एक अन्य विश्वविद्यालय था, जो गंगा के दाहिने तट पर स्थित था। इस विश्वविद्यालय के शिक्षक और विद्वान इतने प्रसिद्ध थे कि बताया जाता है कि तिब्बती राजा ने आम संस्कृति में रुचि तथा स्वदेशी ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए एक शिष्टमंडल को विश्वविद्यालय के प्रमुख को आमंत्रित करने के लिए भेजा। विक्रमशिला विश्वविद्यालय प्राचीन भारत के प्रमुख बौद्ध शिक्षा केंद्रों में से एक था, जो 8वीं शताब्दी में पाल वंश के राजा धर्मपाल (770-810 ई.) द्वारा स्थापित किया गया था। यह विश्वविद्यालय वर्तमान बिहार राज्य के भागलपुर जिले में स्थित था। नालंदा विश्वविद्यालय के साथ-साथ विक्रमशिला भी बौद्ध धर्म, विशेष रूप से तंत्रयान (वज्रयान) बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था। यह विश्वविद्यालय 12वीं शताब्दी तक ज्ञान और शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा।

स्थापना और उद्देश्य-  विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म की उच्च शिक्षा को बढ़ावा देना था। उस समय तांत्रिक बौद्ध धर्म की शिक्षा का विशेष जोर था। इसे बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के लिए स्थापित किया गया, क्योंकि नालंदा विश्वविद्यालय में कुछ शैक्षिक कमियों की भरपाई करने के लिए एक नए शिक्षण केंद्र की आवश्यकता महसूस की गई। यह विश्वविद्यालय तंत्र और वज्रयान बौद्ध धर्म के अध्ययन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध था।

संरचना और परिसर- विक्रमशिला का परिसर विस्तृत और व्यवस्थित था। यहाँ एक बड़ा मठ परिसर था, जो ध्यान और साधना के लिए अनुकूल था। इसका मुख्य केंद्र एक विशाल स्तूप था, जिसके चारों ओर कई व्याख्यान कक्ष, पुस्तकालय और छात्रावास बने थे। परिसर में कई मंदिर, ध्यान केंद्र और अध्ययन कक्ष थे, जहाँ भिक्षु और छात्र अध्ययन और ध्यान करते थे।

अध्ययन के विषय – विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विभिन्न विषयों का अध्ययन किया जाता था, जो इसे उस समय के सबसे महत्वपूर्ण शैक्षिक संस्थानों में से एक बनाते थे। इनमें प्रमुख विषय थे-

धर्म और दर्शन – बौद्ध धर्म की शिक्षा का मुख्य केंद्र था, जिसमें विशेष रूप से तांत्रिक शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध धर्म के अलावा यहाँ हिंदू धर्म, तंत्रशास्त्र और तर्कशास्त्र का भी अध्ययन किया जाता था।

तंत्रविद्या – विक्रमशिला तांत्रिक शिक्षा का मुख्य केंद्र था और यहाँ वज्रयान बौद्ध धर्म का अध्ययन किया जाता था, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म की एक प्रमुख शाखा थी।

व्याकरण और भाषा विज्ञान- यहाँ संस्कृत और पाली भाषा का गहन अध्ययन होता था। व्याकरण और भाषा विज्ञान के कई महान विद्वान यहाँ से निकले।

गणित और खगोलशास्त्र– विज्ञान, गणित, खगोलशास्त्र, और चिकित्सा जैसे विषयों पर भी शिक्षा दी जाती थी, जो उस समय की प्रमुख शैक्षिक प्रवृत्तियाँ थीं।

प्रसिद्ध विद्वान– विक्रमशिला ने कई प्रसिद्ध विद्वानों और शिक्षक-छात्रों को उत्पन्न किया, जो बौद्ध धर्म और अन्य विषयों के प्रमुख प्रचारक बने:

अतीश दीपंकर श्रीज्ञान – विक्रमशिला विश्वविद्यालय के सबसे प्रसिद्ध विद्वानों में से एक थे। वे तिब्बत में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म के अध्ययन और शिक्षा का पुनरुत्थान किया और वहाँ लामावाद की परंपरा को मजबूत किया।

राहुलभद्र– विक्रमशिला के प्रमुख आचार्य, जिन्होंने बौद्ध धर्म के विभिन्न शाखाओं में योगदान दिया।

शैक्षिक दृष्टिकोण– विक्रमशिला में प्रवेश की प्रक्रिया बहुत कठिन थी। छात्र को गुरु के सामने कड़े प्रवेश परीक्षाओं को पास करना पड़ता था।

शिक्षा का माध्यम व्याख्यान, वाद-विवाद, और शास्त्रार्थ था, जहाँ विद्वानों और छात्रों के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता था।

पतन– विक्रमशिला विश्वविद्यालय 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी के आक्रमण के दौरान नष्ट हो गया। 1193 ईस्वी में बख्तियार खिलजी के आक्रमण के कारण नालंदा, विक्रमशिला और अन्य प्रमुख बौद्ध शिक्षा केंद्रों का पतन हुआ। इसके साथ ही बौद्ध धर्म और उसकी शिक्षा प्रणाली को भी बड़ा आघात पहुँचा।

आक्रमण के बाद इस महान विश्वविद्यालय की शैक्षणिक गतिविधियाँ समाप्त हो गईं और यह स्थल धीरे-धीरे गुमनामी में चला गया।

विक्रमशिला की विरासत– विक्रमशिला ने तांत्रिक बौद्ध धर्म, विशेष रूप से वज्रयान, के अध्ययन और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके विद्वानों, विशेषकर अतीश दीपंकर, ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान किया और इसे नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

हालाँकि यह विश्वविद्यालय अब मौजूद नहीं है, लेकिन इसके अवशेष और इसकी शिक्षा प्रणाली भारतीय शैक्षिक और सांस्कृतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। विक्रमशिला विश्वविद्यालय का योगदान भारतीय शिक्षा और बौद्ध धर्म के इतिहास में अविस्मरणीय है। इसका महत्व उस समय की शिक्षा प्रणाली और बौद्ध धर्म के विकास में आज भी सराहा जाता है

  1. ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय: एक परिचय – एक अन्य विश्वविद्यालय ओदंतपुरी भी बिहार में था। यह पाल राजाओं के संरक्षण में उभरा। ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय (जिसे उदयन्तपुरी भी कहा जाता है) प्राचीन भारत के एक प्रमुख बौद्ध शिक्षा केंद्रों में से एक था, जिसे 7वीं शताब्दी में पाल वंश के राजा गोपाल (750-770 ई.) द्वारा स्थापित किया गया था। यह नालंदा और विक्रमशिला जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के साथ इसका विशेष महत्व था। ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय मुख्य रूप से बौद्ध धर्म के अध्ययन और प्रचार के लिए प्रसिद्ध था, और यह पाल साम्राज्य के संरक्षण में समृद्ध हुआ। इस विश्वविद्यालय से कई भिक्षु जाकर तिब्बत में बस गये।
  • 67 ईस्वी में चीनी सम्राट के निमंत्रण पर दो भारतीय शिक्षक चीन गये थे। उनके नाम कश्यप मार्तगा और धर्मरक्षित थे। इनके पश्चात् इन भारतीय विश्वविद्यालयों के बहुत-से शिक्षक शिक्षण के लिए विदेश गये।
  • विद्वान बोधि धर्म, जो योग के दर्शन के गुरू माने जाते हैं, आज भी चीन और जापान में पूजनीय हैं। बोधि धर्म इतने प्रख्यात व्यक्ति बन गये कि लोग चीन और जापान में उनकी पूजा करने लगे।
  • भारतीय ऋषियों ने इस शक्तिशाली योग विज्ञान का विश्व के विभिन्न हिस्सों में प्रसार किया, जिसमें एशिया, मध्यपूर्व, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका सम्मिलित हैं।
  • सप्तऋर्षि अगस्त्य, जिन्होंने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की, इस संस्कृति को जीवन के मूल योगिक तरीके से तैयार किया।
  • नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य कमलशील को तिब्बत के राजा से आमंत्रण मिला। माना जाता है कि तिब्बती राजा नरदेव ने अपने मंत्री थोन्मी सम्भोट को सोलह उत्कृष्ट विद्वानों के साथ मगध भेजा, जहाँ उन्होंने भारतीय शिक्षकों के मार्गदर्शन में शिक्षा ग्रहण की थी।
  • 12वीं शताब्दी में, ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय भी बख्तियार खिलजी के आक्रमण का शिकार हुआ। 1193 ईस्वी में खिलजी ने ओदन्तपुरी पर आक्रमण किया और इसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया। यह वही समय था जब नालंदा और विक्रमशिला जैसे महान शिक्षा केंद्र भी खिलजी के आक्रमणों के कारण नष्ट हो गए थे।

ओदन्तपुरी की विरासत– ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय ने भारतीय बौद्ध धर्म के विकास और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह विश्वविद्यालय तिब्बत और अन्य देशों में बौद्ध धर्म के प्रसार में एक महत्वपूर्ण केंद्र था, जहाँ से कई भिक्षु और विद्वान शिक्षा ग्रहण करके अपने देशों में लौटते थे। ओदन्तपुरी के पतन के बाद भी, इसका प्रभाव तिब्बती बौद्ध धर्म और भारतीय बौद्ध शिक्षा प्रणाली पर दिखाई देता है। ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय भारतीय शिक्षा और बौद्ध धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसका पतन बौद्ध शिक्षा के एक महान युग का अंत था, लेकिन इसका प्रभाव और योगदान भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास में अविस्मरणीय है।

निष्कर्ष – इस प्रकार प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों और विद्वानों ने भारतीय ज्ञान परंपरा के वैश्विक प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, और ओदन्तपुरी जैसे विश्वविद्यालयों में बौद्ध धर्म, विज्ञान, गणित, चिकित्सा, दर्शन और तंत्र विद्या का गहन अध्ययन हुआ, जिससे विद्वान भारत से तिब्बत, चीन, जापान और दक्षिण पूर्व एशिया तक भारतीय ज्ञान और दर्शन को फैलाने में सक्षम हुए। नागार्जुन, अतीश दीपंकर जैसे विद्वानों ने बौद्ध धर्म के महायान और वज्रयान शाखाओं का प्रसार किया, विशेष रूप से तिब्बत में बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित किया। इन विश्वविद्यालयों में शास्त्रार्थ और व्यावहारिक शिक्षा पर जोर था, जो वैश्विक बौद्धिक विमर्श का आधार बना। भारतीय विद्वानों ने तर्कशास्त्र, खगोलशास्त्र, चिकित्सा और अन्य वैज्ञानिक विधाओं में भी योगदान देकर भारतीय ज्ञान परंपरा को अंतरराष्ट्रीय पहचान दी। यह विरासत आज भी भारतीय संस्कृति और शिक्षा की गहरी जड़ों में परिलक्षित होती है। यही कारण है कि भारतीय धर्म एवं संस्कृति का विदेशों में तेजी से प्रसार हुआ।

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