भारतीय धर्म एवं संस्कृति का विदेशों में प्रभाव-
विदेश में भारतीय धर्म का प्रभाव- भारत और अन्य संस्कृतियों के बीच संपर्क ने संपूर्ण विश्व में भारतीय धर्मों के प्रसार को बढ़ावा दिया है। परिणामस्वरूप प्राचीन समय में दक्षिण-पूर्व और पूर्वी एशिया पर भारतीय विचारों और आचरणों का व्यापक प्रभाव रहा तथा अभी हाल के वर्षों में, यूरोप और उत्तर अमेरिका में भी भारतीय धर्मों का प्रसार हुआ है।
विदेश में हिंदू (सनातन) धर्म –
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- थाईलैंड में, हिंदू मंदिरों का निर्माण तीसरी और चौथी शताब्दी ईस्वी में आरंभ हो गया था। थाईलैंड से प्राप्त पुरानी छवियाँ भगवान विष्णु से मिलती-जुलती हैं।
- वियतनाम में, चाम लोगों ने बड़ी संख्या में हिंदू मंदिरों का निर्माण किया। चाम लोग शिव, गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती आदि देवी-देवताओं की पूजा करते थे। इन देवताओं और शिवलिंग के चित्र मंदिरों में रखे जाते थे।
- कंबोडिया में, चंपा (अन्नाम) और कंबोज (कंबोडिया) के प्रसिद्ध राज्यों पर भारतीय मूल के हिंदू राजाओं का शासन था। भारतीय ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। यहाँ शासन हिंदू राजव्यवस्था और सनातनवादी न्यायशास्त्र के अनुसार चलता था।
- मलेशिया में, केदाह और वेलेजली प्रांत में शिव की उपासना के साक्ष्य पाये गये हैं। त्रिशूल के साथ वाली नारी मूर्तियाँ पायी गयी हैं। ग्रेनाइट पत्थर से बना मंदीर का सिर, दुर्गा की छवि, गणेश और शिवलिंग की छवि भी खुदाई में मिली है।
- विश्व भर में हिंदू धर्म के 15 अरब अनुयायी (दुनिया की 15-16% आबादी) हैं, जिनमें से अधिकांश भारत और नेपाल में रहते हैं। ईसाई धर्म (31.5%), इस्लाम (23.2%) और बौद्ध धर्म (7.1%) के साथ, हिंदू धर्म आबादी के प्रतिशत के आधार पर विश्व के चार प्रमुख धर्मों में से एक है।
विदेशों में जैन धर्म–
- जैन धर्म का जन्म भारत में 2500 साल पहले हुआ था। यूनानी भूगोल विज्ञानी स्ट्रैबो (64 ईसा पूर्व – 23 ईस्वी) के अभिलेख में भारत में जैन धर्म के प्रचलन का वर्णन है।
- विश्व के विभिन्न भागों में फैले हजारों-लाखों प्रवासी भारतीयों में जैन समुदाय बड़ी संख्या में सम्मिलित है। दशकों पहले कई जैन व्यापारी परिवार पूर्वी अफ्रीका में जाकर बस गये थे। भारत की स्वतंत्रता के बाद, ईदी अमीन के शासनकाल में पूर्वी अफ्रीका के युगांडा से सभी दक्षिण एशियाई लोगों के निष्कासन के दौरान बहुत सारे जैन परिवार जाकर ग्रेट ब्रिटेन में बस गये। कोबे (जापान) में, जैन समुदाय की हीरा व्यापार में बड़ी भागीदारी है।
- 1965 में अप्रवासन कानून में हुए परिवर्तन के बाद, जैनियों ने उत्तरी अमेरिका में पलायन करना आरंभ कर दिया।
- इन नये अप्रवासियों ने जैन पहचान बनाये रखने के लिए मंदिरों का निर्माण किया और अपने कई नेटवर्क और संगठन बनाये। जैन धर्म एक विश्व दृष्टि प्रदान करता है, जो कई प्रकार से पर्यावरण सक्रियता से जुड़े मूलभूत मूल्यों के साथ सुसंगत है।
विदेशों में बौद्ध धर्म– बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रसार और प्रभाव एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है जिसने एशिया के विभिन्न हिस्सों में गहरा सांस्कृतिक, धार्मिक, और सामाजिक परिवर्तन लाया। प्राचीन भारत से उत्पन्न बौद्ध धर्म ने व्यापार, यात्राओं, और मिशनरियों के माध्यम से कई देशों में अपनी पहचान बनाई। यहाँ विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रसार का विस्तृत वर्णन है:
- दक्षिण-पूर्व एशिया-
थेरवाद बौद्ध धर्म-
श्रीलंका:- तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में अशोक महान के समय बौद्ध धर्म श्रीलंका में पहुंचा। महेंद्र और संघमित्रा ने बौद्ध धर्म का प्रचार किया और महाविहार और अभयगिरि जैसे महत्वपूर्ण मठों की स्थापना की।
म्यांमार (बर्मा):- चौथी शताब्दी में थेरवाद बौद्ध धर्म का प्रसार म्यांमार में हुआ। पैगन साम्राज्य के समय में बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित किया गया और अनेक बौद्ध मंदिरों और पगोड़ाओं का निर्माण हुआ।
थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया:- थेरवाद बौद्ध धर्म थाईलैंड, लाओस और कंबोडिया में भी व्यापक रूप से फैल गया। यहां के मंदिर, मठ और बौद्ध शिक्षा केंद्र बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण केंद्र बने।
- पूर्वी एशिया-
महायान बौद्ध धर्म-
चीन:- पहली शताब्दी ईस्वी में बौद्ध धर्म चीन पहुंचा और धीरे-धीरे महायान शाखा के रूप में विकसित हुआ। बौद्ध धर्म ने चीनी कला, साहित्य, और दार्शनिक विचारों को गहरे रूप से प्रभावित किया। प्रसिद्ध बौद्ध केंद्रों में लुओयांग और दूनहुआंग शामिल हैं।
जापान:- छठी शताब्दी में कोरिया के माध्यम से बौद्ध धर्म जापान में पहुंचा। यहां इसे शिंगोन, तेंदाई, और ज़ेन जैसी विभिन्न शाखाओं में विभाजित किया गया। जापानी संस्कृति, कला, और स्थापत्य पर बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा।
कोरिया:- चौथी शताब्दी में चीन के माध्यम से बौद्ध धर्म कोरिया में पहुंचा। कोरिया के विभिन्न साम्राज्यों ने बौद्ध धर्म को अपनाया और इसके प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- मध्य एशिया–
केंद्रीय एशिया:- बौद्ध धर्म का प्रसार सिल्क रूट के माध्यम से मध्य एशिया में हुआ। यहां के व्यापारिक केंद्रों में बौद्ध मठों और स्तूपों का निर्माण हुआ। तारिम बेसिन और तुर्किस्तान क्षेत्र इसके प्रमुख केंद्र थे।
तिब्बत:- सातवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म तिब्बत में पहुंचा। तिब्बती बौद्ध धर्म ने अपनी विशेषता के साथ महायान और वज्रयान शाखाओं को विकसित किया। तिब्बती मठ और लामा संस्कृति तिब्बती समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए।
- दक्षिणी एशिया-
नेपाल और भूटान:- बौद्ध धर्म नेपाल और भूटान में भी प्राचीन समय से प्रचलित है। लुंबिनी, बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध का जन्मस्थान, नेपाल में स्थित है। भूटान में बौद्ध धर्म राज्य धर्म है और यहां की संस्कृति और परम्पराओं में गहराई से समाहित है।
- आधुनिक समय में बौद्ध धर्म का प्रसार-
पश्चिमी देश:– 19वीं और 20वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रसार पश्चिमी देशों में भी हुआ। अमेरिका, यूरोप, और ऑस्ट्रेलिया में बौद्ध धर्म ने ध्यान, योग, और शांति के सिद्धांतों के माध्यम से अपनी पहचान बनाई।
अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संघ:– विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संघों और संगठनों ने बौद्ध धर्म के प्रचार और अध्ययन को बढ़ावा दिया है।
निष्कर्ष– विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रसार न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। बौद्ध धर्म ने विभिन्न देशों की कला, साहित्य, और दार्शनिक विचारों को समृद्ध किया है। इसके माध्यम से भारत की सांस्कृतिक धरोहर का व्यापक और स्थायी प्रभाव विदेशों में देखा जा सकता है। बौद्ध धर्म का यह वैश्विक प्रसार भारत की प्राचीन धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। बौद्ध धर्म चीन से कोरिया गया। सुंडो पहले बौद्ध भिक्षु थे, जिन्होंने बुद्ध की एक छवि और उनके सूत्रों के साथ 352 ईस्वी में कोरिया में प्रवेश किया था। उसके बाद 384 ईस्वी में आचार्य मल्लानंद वहाँ पहुँचे थे। ज्ञान के प्रति समर्पण के कारण बौद्ध ग्रंथों को कोरियाई लोगों ने छह हजार जिल्दों में प्रकाशित करवाया। जापान में, बौद्ध धर्म को राज्य धर्म का दर्जा दिया गया है। हजारों जापानी बौद्ध भिक्षु भिक्षुणी बन गये।
म्यांमार में, ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी तक पगन बौद्ध संस्कृति का एक महान केंद्र था। बौद्ध धर्म के रखवालों ने भारत से धर्म प्रचारकों को भेजा, जिन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया में थेरवाद बौद्ध धर्म, पूर्वी एशिया में महायान बौद्ध धर्म और मध्य एशिया में वज्रयान बौद्ध धर्म की स्थापना की।
विदेश में भारतीय भाषाएँ: प्राचीन भारत में भारतीय भाषाओं का विदेशों में प्रभाव और उनकी उपस्थिति ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण रही है। भारतीय भाषाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाई, जिससे सांस्कृतिक, धार्मिक और व्यापारिक संबंधों को प्रोत्साहन मिला। यहाँ प्राचीन काल में भारतीय भाषाओं के विदेश में प्रभाव का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है:
- संस्कृत-
धार्मिक और शैक्षणिक प्रभाव:– संस्कृत, जिसे देववाणी कहा जाता है, का व्यापक रूप से अध्ययन और शिक्षण एशिया के विभिन्न देशों में हुआ। भारत से बाहर, विशेषकर दक्षिण-पूर्व एशिया, तिब्बत, चीन, जापान और मध्य एशिया में संस्कृत के धार्मिक और शैक्षणिक प्रभाव देखे गए। बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म के ग्रंथों का संस्कृत में अध्ययन और अनुवाद हुआ।
बौद्ध धर्म:- बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ, संस्कृत ग्रंथ और शिक्षाएं चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत, मंगोलिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में ले जाई गईं। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में विदेशी विद्वान संस्कृत और बौद्ध धर्म का अध्ययन करने आते थे।
- पाली-
बौद्ध धर्म के साथ प्रसार:- पाली भाषा, बौद्ध धर्म के थेरवाद शाखा की प्रमुख भाषा, ने दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। श्रीलंका, म्यांमार (बर्मा), थाईलैंड, लाओस और कंबोडिया में पाली में बौद्ध धर्मग्रंथों का अध्ययन और अनुकरण किया गया है।
त्रिपिटक:– पाली भाषा में लिखे गए त्रिपिटक (बौद्ध धर्मग्रंथ) ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को इन देशों में प्रचारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- तमिल-
दक्षिण-पूर्व एशिया में व्यापार और संस्कृति:– तमिल व्यापारियों और समुद्री यात्राओं के माध्यम से तमिल भाषा और संस्कृति का प्रसार दक्षिण-पूर्व एशिया में हुआ। विशेष रूप से इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड और कंबोडिया में तमिल व्यापारियों के समुदाय बसे।
धार्मिक प्रभाव:- तमिलनाडु से जुड़े हिंदू मंदिरों और वास्तुकला ने भी इन क्षेत्रों में धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव छोड़ा।
- प्राकृत-
जैन धर्म के प्रसार में भूमिका:- प्राकृत भाषाएं, विशेषकर अर्धमागधी, ने जैन धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जैन धर्म के प्रमुख ग्रंथ प्राकृत में लिखे गए, जो भारत के बाहर भी भेजे जाने लगे थे।
व्यापार और संपर्क:- प्राकृत का उपयोग व्यापारिक संपर्क और धार्मिक प्रचार में हुआ, जिससे यह भाषा भारत के बाहर भी प्रचलित हुई।
- हिंदी- हिंदी भाषा का प्रसार आधुनिक काल में मुख्यतः भारतीय प्रवासियों के माध्यम से हुआ। भारत से फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड और टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका और गयाना जैसे देशों में भारतीय श्रमिकों और प्रवासियों के जाने से हिंदी भाषा का वहां प्रभाव बना। इन देशों में हिंदी को एक सांस्कृतिक पहचान और शिक्षा का माध्यम माना जाता है।
- 6. तेलुगु और मलयालम-
तेलुगु और मलयालम भाषाओं का प्रसार भी भारतीय प्रवासियों के माध्यम से हुआ। खाड़ी देशों जैसे संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, ओमान में भारतीय समुदायों ने इन भाषाओं को संरक्षित रखा है। खाड़ी देशों में काम करने वाले तेलुगु और मलयालम भाषी लोग अपनी भाषा और संस्कृति का पालन करते हैं।
- 7. गुजराती- गुजराती भाषा का भी विदेशों में महत्वपूर्ण प्रभाव है, विशेषकर अफ्रीका, यूके, यूएसए और कनाडा में। भारतीय व्यापारियों और प्रवासियों ने गुजराती भाषा और संस्कृति को विदेशों में पहुंचाया, और कई देशों में गुजराती भाषा बोलने वालों की एक बड़ी आबादी है।
- 8. बंगाली- बंगाली भाषा का प्रसार मुख्य रूप से बांग्लादेश और भारतीय प्रवासी समुदायों के माध्यम से हुआ है। यूके, अमेरिका, और मध्य-पूर्व के देशों में बंगाली भाषी समुदाय बड़े पैमाने पर मौजूद हैं, जो बंगाली भाषा और साहित्य को बढ़ावा देते हैं।
प्राचीन भारतीय लिपियाँ:
ब्राह्मी और खरोष्ठी:- प्राचीन भारत की ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उपयोग व्यापक रूप से एशिया के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ। अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे और उन्होंने भारतीय संस्कृति और धरोहर को अन्य क्षेत्रों में पहुंचाया।
लिपियों एवं भाषाओं का प्रसार:-
- ब्राह्मी लिपि से दक्षिण-पूर्व एशिया की कई लिपियों का विकास हुआ, जैसे कि खमेर, मॉन, बर्मी और थाई लिपियाँ।
- भाषाओं की संख्या के आधार पर पपुआ न्यू गिनी (839 भाषाएँ) के बाद भारत (780 भाषाएँ) विश्व में दूसरे स्थान पर है।
- संस्कृत, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई हैं, सभी यूरोपीय भाषाओं की जननी है।
- हजारों की संख्या में संस्कृत की पुस्तकें चीनी भाषा में अनूदित की गयी थीं।
- जापान में संस्कृत को पवित्र भाषा के रूप में स्वीकार किया गया था। आज भी, जापानी विद्वानों में संस्कृत सीखने की एक विशेष ललक है।
- बंगला भाषा, बांग्लादेश की भी आधिकारिक भाषा है।
- तमिल भाषा, श्रीलंका और सिंगापुर की भी आधिकारिक भाषा है।
- म्यांमार में, लोगों ने अपनी पाली भाषा विकसित की और बौद्ध और हिंदू ग्रंथों का उनकी अपनी पालि भाषा में अनुवाद किया। तिब्बत में, घोपमी संभोत ने संस्कृत व्याकरण लिखा, जिसे माना जाता है कि यह पाणिनी द्वारा लिखित व्याकरण पर आधारित है। इसके अतिरिक्त, 96,000 संस्कृत किताबें तिब्बती में अनुदित की गयी।
- श्रीलंका में, पालि उनकी साहित्यिक भाषा बन गयी।
- थाईलैंड में, थाई साम्राज्यों को संस्कृत नाम दिया गया, जैसे कि द्वारवती, श्रीविजय, सुखदोय और अयुत्थिया। साथ ही, थाईलैंड में प्राचीनापुरी, सिंघबरी जैसे शहरों के नाम संस्कृत से प्रेरित हैं।
- कंबोडिया में, चौदहवीं सदी तक संस्कृत वहाँ की प्रशासनिक भाषा बनी रही।
- मलेशिया में, प्राचीन काल में ब्राह्मी एक लिपि थी। पुरानी तमिल लिपि से मिलती-जुलती लिपि में लिखे गये बौद्ध ग्रंथों की पटलिकाएँ केदाह में पायी गयी हैं। संस्कृत उनके लिए स्रोत भाषाओं में से एक थी। उनकी भाषा में संस्कृत शब्दों का प्रयोग व्यापक रूप से देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, स्वर्ग, रस. गुना, मंत्री और लक्ष। इंडोनेशिया में, पूजा के समय संस्कृत मंत्र पढे जाते हैं।
निष्कर्ष- प्राचीन भारत की भाषाएँ और लिपियाँ न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालने में सक्षम रहीं। धार्मिक ग्रंथों, व्यापारिक संपर्क, और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से भारतीय भाषाओं का प्रसार एशिया और अन्य क्षेत्रों में हुआ। भारतीय भाषाओं का विदेशों में प्रसार मुख्यतः धार्मिक, सांस्कृतिक और प्रवासियों के माध्यम से हुआ है। प्राचीन काल में संस्कृत, पालि और तमिल जैसी भाषाओं का सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव गहरा था, जबकि आधुनिक समय में हिंदी, गुजराती, तेलुगु और मलयालम जैसी भाषाओं का प्रवासी भारतीय समुदायों के माध्यम से व्यापक प्रसार हुआ है। यह भाषाएँ विदेशों में भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की निरंतरता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इसने वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति और धरोहर को समृद्ध करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विदेशों में भारतीय मंदिर वास्तुकला की परम्परा :
परिचय- भारत में स्थापत्य एवं वास्तुशास्त्र का इतिहास अत्यंत प्राचीन व समृद्धशाली रहा है। इसमें नगर रचना, भवन, मंदिर, मूर्तियाँ, चित्रकला सब कुछ आता था। नगरों में सड़कें, जल- प्रदाय व्यवस्था, सार्वजनिक सुविधा हेतु स्नानघर आदि, नालियाँ, भवनों के आकार- प्रकार, उनकी दिशा, माप, भूमि, भूमि के प्रकार, निर्माण में काम आने वाली वस्तुओं की प्रकृति आदि का विस्तार से विचार किया गया था और यह सब प्रकृति से सुसंगत हो, यह भी देखा जाता था। जल प्रदाय व्यवस्था में बाँध, कुआँ, बावड़ी, नहरें, नदी आदि का भी विचार होता था।
किसी प्रकार के निर्माण हेतु विस्तार से शिल्प शास्त्रों में विचार किया गया है। हजारों वर्ष पूर्व वे कितनी बारीकी से विचार करते थे, उसका नमूना भी ध्यान में आता है। शिल्प कार्य के लिए मिट्टी, ईंटें, चूना, पत्थर, लकड़ी, धातु तथा रत्नों का उपयोग किया जाता था। इनका प्रयोग करते समय कहा जाता था कि इनमें से प्रत्येक वस्तु का ठीक से परीक्षण कर उनका निर्माण में आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिये। परीक्षण हेतु माप कितने वैज्ञानिक थे, इसकी कल्पना हमें निम्न उद्धरण से आ सकती है। महर्षि भृगु कहते हैं कि निर्माण उपयोगी प्रत्येक वस्तु का परीक्षण निम्न मापदंडों पर करना चाहिये उनके अनुसार –
वर्णलिंगवयोवस्थाः परोक्ष्यं च बलाबलं।
यथायोग्यं, यथाशक्तिः संस्कारान्कारयेत् सुधीः ॥ भृगु संहिता
अर्थात् वस्तु का वर्ण (रंग), लिंग (गुण, चिन्ह), आयु (रोपण काल से आज तक) अवस्था (काल खंड के परिणाम) तथा इन सबके कारण वस्तु की ताकत या कम ताकत को देखकर उस पर जो खिंचाव पड़ेगा, उसे देख-परखकर यथोचित रूप में सभी संस्कारों को करना चाहिये। इनमें वर्ण का अर्थ रंग है। पर शिल्प शास्त्र में इसका उपयोग प्रकाश को परावृत्त करने की उसकी शक्ति के अनुसार किया जाता है। जैसे सफेद रंग प्रकाश को पूर्ण परावृत्त करता है। अतः इसे उत्तम वर्ण कहा गया। निर्माण के संदर्भ में अनेक प्राचीन ऋषियों के शास्त्र मिलते हैं। जैसे-
(1) विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र – इस में विश्वकर्मा निर्माण के संदर्भ में प्रथम बात बताते हैं। “पूर्वं भूमिं परिक्ष्येत पश्चात् वास्तु प्रकल्पयेत्” अर्थात् पहले भूमि परीक्षण कर फिर वहाँ निर्माण करना चाहिये। इस शास्त्र में विश्वकर्मा आगे कहते हैं, उस भूमि में निर्माण नहीं करना चाहिये, जो बहुत पहाड़ी हो, जहाँ भूमि में बड़ी-बड़ी दरारें हों आदि।
(2) काश्यप शिल्प – इस में काश्यप ऋषि कहते हैं, नींव या फाउंडेशन तब तक खोदना चाहिये, जब तक जल न दिखे, क्योंकि इसके बाद चट्टानें आती हैं।
(3) भृगु संहिता – इस में भृगु कहते हैं कि जमीन खरीदने के पहले भूमि की पाँच प्रकार अर्थात् रूप, रंग, रस, गन्ध और स्पर्श से परीक्षा करनी चाहिये। उसकी विधि भी बताते हैं।
इसके अतिरिक्त भवन निर्माण में आधार के हिसाब से दीवालें, मोटाई, उस की आन्तरिक व्यवस्था आदि का भी विस्तार से वर्णन मिलता है। इस ज्ञान के आधार पर हुए निर्माणों के अवशेष सदियाँ बीतने के बाद भी अपनी कहानी कहते हैं। वास्तुकला और नागरिक निर्माण विज्ञान को प्राचीन भारत में स्थापत्य शास्व के रूप में जाना जाता था। कला और वास्तुकला की भारतीय तकनीक का प्रसार पश्चिम और पूर्व, दोनों ओर हुआ। विदेशों में प्राचीन भारतीय मंदिर वास्तुकला की परम्परा एक विस्तृत और समृद्ध विषय है। इस परम्परा को समझने के लिए विभिन्न समय और स्थानों की मंदिरों की शैलियों की अध्ययन की जा सकती है।
पुरातात्विक उत्खनन में 3000 ईपू अशोक के शासनकाल के दौरान अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और सिस्तान मौर्य साम्राज्य के अंग थे। इन मौर्थ प्रांतों में बौद्ध स्तूपों का निर्माण किया गया था। दुर्भाग्य से, उनमें से कुछ के ही अवशेष आज उपलब्ध हैं। भारतीय कला, यूनानी और कुषाण शैलियों के साथ मिश्रित है और मध्य एशिया में फैली हुई है। एक समय में भारत की सांस्कृतिक सीमाएँ अक्षु नदी के किनारे बल्ख तक (वैदिक ग्रंथों में जो वाहलीक के रूप में संदर्भित है) और उससे भी आगे तक विस्तारित थी, जिसकी नगर मोहनजोदड़ों की रचना देखकर आश्चर्य होता है। अत्यंत सुव्यवस्थित ढंग से बसा हुआ नगर मानो उसके भवन, सड़कें, सब रेखागणितीय माप के साथ बनाये गये थे। इस नगर में मिली सड़कें एकदम सीधी थीं तथा पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण बनी हुई थीं। दूसरी आश्चर्य की बात यह कि ये एक दूसरे से ९० अंश के कोण पर थीं। भवन निर्माण अनुपात में था। ईंटों के जोड़, दीवारों की ऊँचाइयाँ बराबर थीं। भोजनालय, स्नानघर, रहने के कमरे आदि की व्यवस्था थी। बाद के कालों में भी भारतीय वास्तुकला काउत्कृष्ट प्रभाव दिखाई पड़ती है।
निश्चित रूप से इसका प्रभाव तत्कालीन समय से लेकर अब तक विदेशों में भी देखने को मिलता है। मध्य एशिया में पहली से 8वीं शताब्दी ईस्वी के बीच कला परम्पराओं को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। अफ़गानिस्तान और मध्य एशिया की गांधार शाखा वास्तव में भारतीय कला शैलियों से ही प्रेरित थी। भारतीय वास्तुकला का प्रभाव विदेशों में निम्नानुसार है
दक्षिण-पूर्व एशिया:
- भारतीय वास्तुकला का प्रभाव दक्षिण-पूर्व एशिया में पाया जा सकता है, जैसे कि थाईलैंड, कंबोडिया, इंडोनेशिया और मलेशिया में। यहाँ प्राचीन मंदिरों की शैलियों में भारतीय संस्कृति के चिह्न देखे जा सकते हैं।
- मध्य एशिया के अतिरिक्त, पूरे दक्षिण पूर्व एशिया ने अपनी अधिकांश कला और वास्तुशिल्प परंपराएँ भारत से प्राप्त की। भारतीय व्यापारी विभिन्न व्यापार मागों के माध्यम से भारतीय वास्तुकला को दक्षिण-पूर्व एशिया तक ले गये।
- बौद्ध धर्म के साथ-साथ. भारतीय कला और वास्तुकला भी इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम, लाओस. कबोडिया, थाईलैंड, बर्मा, चीन, कोरिया और जापान जैसे देशों तक पहुँच गयी। पुर्तगाल के मैनुअल 1 के अंतर्गत (1495-1521) यूरोप के साथ सांस्कृतिक संपर्क के कारण स्थापत्य प्रभावों का आदान-प्रदान हुआ। थाईलैंड में कई मंदिर बनाए गये थे।
- अयुधया (अयोध्या) ऐसी जगह है, जहाँ बड़ी संख्या में मंदिर अब भी विद्यमान हैं, हालांकि अब अधिकांश मंदिर खंडहर हो चुके हैं। बैंकाक में (जो थाईलैंड की वर्तमान राजधानी है) 400 भारतीय शैली के मंदिर हैं।
दक्षिण-पश्चिम एशिया:
- भारतीय वास्तुकला का प्रभाव दक्षिण-पश्चिम एशिया में भी महसूस किया जा सकता है, जैसे कि जापान, चीन और कोरिया में। यहाँ प्राचीन मंदिरों की शैलियों में भारतीय संस्कृति के प्रभाव का संकेत मिलता है।
- विदेश में भारतीय संस्कृति के प्रसार के साथ, चीन ने बड़े पैमाने पर भारतीय शैली के गुफा मंदिरों और मठ परिसरों का निर्माण करना आरंभ किया। चट्टानों पर विशाल छवियाँ बनायी गयी और गुफाओं के अंदर उन्हें खूबसूरती से चित्रित किया गया। हुन-आंग, युन-कांग और लंग-मेन दुनिया में सबसे प्रसिद्ध गुफा परिसरों में सम्मिलित हैं।
- इंडोनेशिया में, भारतीय शैली का एक मंदिर प्रमवनन है, जो कि जावा द्वीप में स्थित है तथा इंडोनेशिया का सबसे बड़ा शिव मंदिर है। डोंग डुओंग में बुद्ध की प्रसिद्ध 108 मीटर ऊँची प्रतिमा अमरावती शिल्पकला से काफी मिलती-जुलती है। बुद्ध के घुंघराले बाल विशेष रूप से उस देश में भारतीय मूल को इंगित करती है, जहाँ लोगों के बाल सीधे होते हैं। इंडोनेशिया के बाली द्वीपों में गणेश की कई मूर्तियाँ मिली हैं।
- थाईलैंड में कई मंदिर बनाए गये थे। अयुधया (अयोध्या) ऐसी जगह है, जहाँ बड़ी संख्या में मंदिर अब भी विद्यमान हैं, हालांकि अब अधिकांश मंदिर खंडहर हो चुके हैं। बैंकाक में (जो थाईलैंड की वर्तमान राजधानी है) 400 भारतीय शैली के मंदिर हैं।
दक्षिण एशिया:
- भारतीय मंदिर वास्तुकला का प्रभाव दक्षिण एशिया में भी देखा जा सकता है, जैसे कि श्रीलंका। यहाँ कई प्राचीन मंदिरों की शैलियों में भारतीय संस्कृति के लक्षण होते हैं। श्रीलंका व्यापक रूप से भारतीय कला और वास्तुकला से प्रभावित था।
- यहाँ तीसरी शताब्दी ई. पू. और चौथी शताब्दी ईस्वी के बीच बनायी गयी स्तूपों को भारतीय शैली के अर्धगोलाकार स्तूपों की ही भाँति अंडे का आकार दिया गया था और जो अंडा कहलाये।
- भारतीय प्रभाव यूरोपियन क्रिश्चियन बेसिलिका में भी महसूस किया गया है, क्योंकि उनमें बौद्ध स्तूपों से समानताएँ हैं। उनके मोजाइकों ने संभवतः बौद्ध चैत्यों से परिकल्पनाएँ उधार ली थीं। इन स्थानों पर भारतीय मंदिर वास्तुकला का प्रभाव उसकी अनुपम कृति और धार्मिक गहराई का प्रतीक है। इस प्रभाव के कारण, विदेशी मंदिरों में भारतीय मंदिर वास्तुकला की परम्परा उज्ज्वल होती है और भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब सामने आता है।
- 5वीं शताब्दी ईस्वी में, एक भारतीय भिक्षु ने उत्तरी कोरिया के प्योंगयांग शहर में दो मंदिरों का निर्माण किया। भारतीय मठों और मंदिरों ने संपूर्ण कोरिया में भक्ति केंद्र और शिक्षा केंद्र के रूप में काम किया। म्यांमार में, राजा अनिरुद्ध एक महान निर्माणकर्ता थे। उन्होंने मंदिर वास्तुकला की भारतीय शैली को अपनाया और श्वेडागोन पगोडा और लगभग एक हजार अन्य मंदिर बनवाये।
- कंबोडिया में भी विशाल स्मारक और भारतीय शैली के मंदिरों का निर्माण किया गया है तथा जो शिव, विष्णु के मूर्तिकला प्रतिनिधित्व से सुशोभित हैं। अंगकोरवाट को विष्णु का निवास अर्थात् वैकुंठधाम माना जाता है। 11वीं शताब्दी में यशोधरापुर में एक और भव्य भारतीय शैली के मंदिर का निर्माण हुआ, जिसे बफून के नाम से जाना जाता है।
- मलेशिया में, लिगोर नामक एक स्थान है, जहाँ 50 से भी अधिक भारतीय मंदिर बने हुए हैं। अफ़ग़ानिस्तान के बामियान में बोधिसत्व (विशाल बुद्ध मूर्तियां) स्थित हैं। कुषाण सम्राट कनिष्क के संरक्षण में पहली शताब्दी ईस्वी में ये प्रतिमाएँ बनायी गयी थीं (ये वही प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें तालिबान ने बम से उड़ा देने की धमकी दी थी संभवतः उड़ा भी दिया है)
- बेएक्स, एकेन और ट्राएर के गिरजाघरों में की गयी नक्काशी के गोथिक स्थापत्य में भी भारतीय रूपांकनों की झलक मिलती है।
प्रभाव –
- बौद्ध धर्म के माध्यम से भारतीय कला और वास्तुकला का अधिक प्रभाव दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में था।
- सभी इस्लामिक देशों में गुंबद वाले मस्जिद भारतीय शैली के स्तूपों से व्युत्पन्न हैं। यह भी लगता है कि स्तूपों के अर्धगोलाकार निर्माण ने बिजेंटाइन वास्तुकला को भी प्रभावित किया है, संभवतः पूर्व-इस्लामी, सासानियन फारस के माध्यम से।
- बॉस्फोरस जल संधि के सामने खड़े इस्तांबुल के प्रसिद्ध सोफिया मस्जिद के गुंबद भी बहुत हद तक बौद्ध स्तूप के सदृश हैं। वास्तव में मस्जिद की मीनारें तब बनायी गयी थीं, जब 15वीं शताब्दी ईस्वी में ओटोमन तुर्क ने बिजेंटाइन साम्राज्य से इस्तांबुल (फिर कोन्स्टेंटीनोपल कहलाया) पर कब्जा कर लिया था।
- भारतीय महाकाव्यों का वैश्विक प्रभाव वायुग नामक एक छाया खेल में, जिसमें विषय मुख्य रूप से रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों से व्युत्पन्न हैं, दक्षिण-पूर्व एशिया में बहुत लोकप्रिय हैं।
- आईलैंड में राजाराम, राजा-रानी. महाजया और चक्रवंश जैसे सड़कों के नाम भारतीय महाकाव्य रामायण की लोकप्रियता दर्शाती हैं।
- शिव, विष्णु, बुद्ध और भारतीय महाकाव्य और पुराणों के अन्य देवताओं का कबोडिया के लोगों पर काफी प्रभाव है। रामायण और महाभारत के दृश्यों को अंगकोरवाट मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण किया गया है।
- बफ़ून मंदिर में, राम और रावण के बीच की लड़ाई, पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर शिव और कामदेव का विनाश, जैसे महाकाव्यों के दृश्य दीवारों पर उत्कीर्ण हैं।
- रामायण, जातक कहानियाँ, मिलिंदपन्हों, शिलप्पदीकारम, रघुवंश आदि कई अन्य कृतियों में मलेशिया का संदर्भ हैं।
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