प्रस्तावना : पर्यावरण संरक्षण के लिए भारतीय दृष्टिकोण सतत विकास के सिद्धांतों और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करने की आवश्यकता द्वारा निर्देशित है। सरकार ने पर्यावरण की रक्षा के लिए विभिन्न कानूनों और नीतियों को लागू किया है, जैसे जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और वन (संरक्षण) अधिनियम। इसके अतिरिक्त, भारत ने अपनी जैव विविधता के संरक्षण के लिए कई राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभ्यारण्यों की स्थापना की है। देश ने पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान करने के लिए स्वच्छ भारत अभियान (स्वच्छ भारत अभियान), राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना और जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना जैसी कई पर्यावरणीय पहल भी शुरू की हैं।
कुल मिलाकर, पर्यावरण संरक्षण के लिए भारतीय दृष्टिकोण सरकार, नागरिक समाज और निजी क्षेत्र को शामिल करते हुए एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण पर जोर देता है. पर्यावरण संरक्षण के मुख्य उद्देश्य हैं:
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- प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण– वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों जैसे वायु, जल, भूमि और जैव विविधता का संरक्षण करना।
- प्रदूषण में कमी– सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा के लिए वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और मिट्टी प्रदूषण सहित पर्यावरण प्रदूषण को कम करने और रोकने के लिए।
- जलवायु परिवर्तन की रोकथाम- जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के माध्यम से कम कार्बन, मजबूत भविष्य में परिवर्तन करने के लिए।
- सतत विकास– पर्यावरण की सुरक्षा के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करके सतत विकास का समर्थन करना।
- जैव विविधता संरक्षण– वन्य जीवन, जंगलों और महासागरों सहित जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र का संरक्षण और सुरक्षा करना।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य– खतरनाक प्रदूषकों और जहरीले रसायनों के जोखिम को कम करके सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करना।
- पर्यावरण शिक्षा और जागरूकता– पर्यावरण के मुद्दों और पर्यावरण संरक्षण के महत्व के बारे में जन जागरूकता और शिक्षा बढ़ाने के लिए।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि–
भारतीय संस्कृति में प्रकृति को परमेश्वर की शक्ति के रूप में आंका गया है। प्रकृति से खिलवाड़ या उपेक्षा विनाश का कारण बनेगी। अतिभौतिकतावादी दृष्टिकोण भारत में मान्य नहीं तथापि भौतिकता की उपेक्षा भी नहीं है। देश की धरती को ‘अन्नवतां मोदनवतां’ आदि विशेषणों से संयुक्त किया गया है। ‘मोदनवतां’ कहते ही आनन्द और सुख की सामग्री की प्रचुरता की अपेक्षा है। इस हेतु पुरुषार्थ तथा प्रकृति दोनों में परस्पर श्रेष्ठता, पवित्रता तथा आत्मीयता का भाव है। ‘माता पृथ्वी पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ कहा है धरती को ‘विष्णुपत्नी’ कहा है। साथ ही ‘वीर भोग्य्रा वसुन्धरा’ भी कहा है अर्थात् अकर्मण्यता, निष्क्रियता भारतीय संस्कृति में अपेक्षित नहीं। किन्तु अतिभौतिकता की ओर मनुष्य उन्मुख न हो इसलिए ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत्, तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मा गृध: कस्यस्विद्धनम्’ भी कहा है।
यह बात सूत्रों या विद्वानों के बीच तक न रह जायें इसलिए इसे लोकव्यापी बनाया गया है। चार प्रकार के प्राणियों (जरायुज, अण्डज, स्वेदज एवं उद्भिज) में समस्त वनस्पतियाँ उद्भिज श्रेणी की हैं। इनमें प्राण है। ये अचर जीव श्रेणी में है।
वर्तमान विज्ञान में प्राणिशास्त्र और आणविक प्राणिशास्त्र (माइक्रो बायबाजी) विषय विकसित किये गये हैं। इन्हें अकारण कष्ट पहुंचाना तोड़ना आदि निषेध है। रात्रि में विशेष रूप से पेड़ों के स्पर्श का वर्जन है। लोक व्यवहार में, वे रात्रि में सोते हैं, ऐसा कहा जाता है। मनुष्य शरीर की संरचना यद्यपि ईश्वर ने मूलत: शाकाहारी बनाया है परन्तु वह अप्राकृत मांसाहार की ओर भी प्रवृत्त हो गया है। यह वैज्ञानिक शोधों से प्रमाणित हो चुका है कि मांसाहार से सैकड़ों असाध्य रोग उत्पन्न होते हैं। अण्डों का प्रयोग भी मांसाहार की श्रेणी में आता है। यह मांसाहार और अण्डों का प्रयोग अनपढ़ पिछड़े या मूर्ख ही नहीं, विद्वान और जानकार लोग, इसमें अग्रणी हैं। वैज्ञानिक और शोधकर्ता तथा ऐसे डाक्टर, जो मांसाहार तथा तम्बाखू के दुष्प्रभाव से लोगों को सचेत करते हैं, भी शामिल हैं।
भारतीय संस्कृति में अन्य उपाय भी अपनाये हैं। एक है श्रद्धा का निर्माण। वैसे तो आयुर्वेद के अनुसार एक भी वनस्पति विश्व में ऐसी नहीं है जिसका औषधीय प्रयोग न हो। जो अत्यधिक उपयोगी तथा सहज सुलभ है इन्हें देवताओं से सम्बन्धित कर दिया है ऐसे वृक्ष तथा पौधों में कुछ है-
दूर्वा घास, तुलसी, पीपल, नीम, बरगद, बेल आदि। विशेष रूप से दूर्वा को गणेश से, तुलसी विष्णु से, बेल शिव से, नीम देवी से, पीपल तथा बट (बरगद) को विष्णु से तथा उनका ही माना जाता है। पुष्पों, जड़ों, फलों के साथ भी ऐसे संबंध है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में वर्जित माना गया है –
- हरे वृक्षों को काटना,
- रात्रि के समय पेड़ों को हिलाना,
- फूल या पत्ती तोड़ना,
- आवश्यकता से अधिक या अनावश्यक रूप से लोभ के कारण पेड़ों को कष्ट पहुँचाना पाप है।
- पेड़ काटना पुत्रहत्या के समान है।
इसके साथ ही एक वृक्ष लगाना, उसका पोषण करना सौपुत्रों के समान कल्याणकारी माना गया है।तुलसी को विष्णुप्रिया ही नहीं, लक्ष्मीस्वरूपा भी कहा गया है। बेल के वृक्ष को शिवस्वरूप बताया गया है। बिल्वष्टक में कहा गया है कि ‘मूलता ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपाय अग्रत: शिवरूपाय’ गीता में ‘अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्’। पीपल में ब्रह्म का वास है तो एक श्लोक में ‘वटस्य पत्रस्य पुटेसायानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि’। सफेद आक की जड़ में गणेश की प्रतिकृतिका निर्माण आदि वृक्षों के संरक्षण की प्रेरणा देता है। वृक्षों की पत्तियों के बन्दनवार आदि का प्रयोग वनस्पतियों से निकटता बढ़ाने में सहायक होता है। इसलिए इनके पोषण और सेवा का आग्रह किया गया है। अनेक पर्वो में विशेष वृक्षों के पूजन तथा उनकी निकटता आवश्यक मानी जाती है। सोमवती अमावस्या, वट सावित्री व्रत, आवला नवमी आदि तथा सत्यनारायण कथा व्रतादि में कदली (केले) का, वन्दनवारी में आम, अशोक आदि के पत्रों का उपयोग, विजयादशमी पर शमीपत्र का बजलियां में बालों का आदान-प्रदान आदि की अपरिहार्यता के कारण वृक्षों का संरक्षण प्रत्येक भारतीय करता ही है।
औषधीय प्रयोग के लिए वनस्पतियों को विशेष नक्षत्र में निमंत्रण देकर दूसरे दिन उनको लेना चाहिए तथा उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि वे लोककल्याण के लिए प्राणियों की जीवन रक्षा में सहायक हों तभी उनसे पूर्ण लाभ प्राप्त होता है। स्पष्टत:, वनस्पतियों के संरक्षण में ये बातें सहायक होती रही हैं। वेदों में पर्यावरण संरक्षण – वेदों, प्राचीन हिंदू शास्त्रों में पर्यावरण संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के महत्व के संदर्भ हैं।
उदाहरण के लिए, “प्रकृति के साथ सद्भाव में रहने” का विचार वैदिक मंत्रों में व्यक्त किया गया है, जो स्थायी रूप से प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को प्रोत्साहित करते हैं। वेद प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने के महत्व के साथ-साथ सभी जीवित प्राणियों की अन्योन्याश्रितता पर भी जोर देते हैं। इसके अतिरिक्त, वेदों में वर्णित कुछ अनुष्ठानों और प्रथाओं, जैसे वृक्षारोपण और जल संरक्षण, का उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देना है। कुल मिलाकर, वेद पर्यावरण संरक्षण के लिए एक समग्र दृष्टिकोण पर जोर देते हैं, सभी जीवन की परस्पर संबद्धता को पहचानते हैं और भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक दुनिया को संरक्षित करने की आवश्यकता है।
अथर्ववेद के 12 वें कांड के प्रथम सूक्त में पृथ्वी का महत्व प्रदर्शित करते हुए सभी प्राणियों को पृथ्वी का पुत्र कहा गया है- ‘माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:।’ वेदों में कहा गया है कि नदी, खानों, समुद्रों तथा पर्वतों से हम उतना ही ग्रहण करें जो हमारे लिए पर्याप्त तथा सुखकारी हो क्योंकि यदि इसके विपरीत किया तो पृथ्वी कांपने लगती है- भूमिर्यामूषु रेजते ।
ऋग्वेद में उल्लेखित है कि -यह द्यलोक, पृथ्वी लोक, वनस्पतियाँ तथा जल एक बार ही उत्पन्न होता है, पुन: नही आता इसका संरक्षण आवश्यक है। (ऋग्वेद 6.48.22)। इस प्रकार वेदों में निहित भावना का अनुकरण करके पृथ्वी का संरक्षण के प्रयास हमें अवश्य करना चाहिए।
जल–मण्डल संरचना और संरक्षण प्रथाएं – सभी प्राणियों को जल की आवश्यकता होती है। इस पृथ्वी का लगभग 3 चौथाई हिस्सा जल का है। हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन की आवश्यकता पूर्ति भी जल से होती है। पृथ्वी पर 1.386 बिलियन क्यूबिक किलोलीटर जल है जिसका लगभग 97% अर्थात 1.320 बिलियन क्यूबिक किलोलीटर समुद्री जल है। जल झील, तालाब, नदी तथा नलकूपों आदि में मिलता है। जो जीव मात्र के लिए अत्यंत उपयोगी है। ऋग्वेद में (5.53.9) में कहा गया है कि पृथ्वी पर निरंतर जल बहता रहे और वर्षा द्वारा इसमें निरंतर वृद्धि होती रहे। वर्षा के लिए यज्ञ किए जाएं। यज्ञों की महत्ता का वर्णन जगह-जगह मिलता है। पृथ्वी सूक्त में कहा गया है कि वन तथा वृक्ष पृथ्वी पर वर्षा लाते हैं- वृक्ष ही मिट्टी को बहने से रोकते हैं- उसका संरक्षण करते हैं। बाढ़ और सूखे – दोनो का ही प्रतिरक्षण वृक्षों से होता है। देवों द्वारा बसाये गए नगर तथा अच्छे उद्योगों का उल्लेख भी पर्यावरण प्रदूषण से बचाए रखने की ओर एक संकेत है। यही कारण है कि पृथ्वी पर अन्याय पूर्वक वास करने वालों को खदेड़ने की बात अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त (12.1.43) में यह बात कही गई है। भूमि सूक्त शुद्ध जल की बात करता है – शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु । (अथर्ववेद 12.1. 30)।
विश्व के सबसे प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में 5 तत्वों में मुख्य जल की दैवीय रूप स्वीकार कर स्तुति की गई है। वेदों में जल प्रदूषण समस्या का व्यापक चिंतन का उल्लेख मिलता है। सभी प्राणियों के लिए शुद्ध जल जीवन का आधार है।
वैज्ञानिकों ने भी यह स्वीकार किया है कि यज्ञ द्वारा वातावरण में ऑक्सीजन तथा कॉर्बन डाइ ऑक्साइड का सही सन्तुलन स्थापित किया जा सकता है। अत: यह तथ्य भी विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है। वेदों तथा वेदांगों में अनेक स्थलों पर यज्ञ द्वारा वर्षा के उदाहरण मिलते हैं, जिनकी भारत सरकार के तत्तवावधान में 12 फरवरी, सन् 1976 को हुए भारतीय वैज्ञानिकों के सम्मेलन में पुष्टि की जा चुकी है। यही नहीं जून 2009 में भारतीय वैज्ञानिकों ने उ.प्र. के उन्नाव जिले के कुछ खेतों में वैदिक ऋचाओं के समवेत गायन के कैसेट बजाने से पैदावार में दो से तीन गुनी तक अधिक वृद्धि लक्षित की है।
यास्कीय निघण्टु में वन का अर्थ जल तथा सूर्यकिरण एवं पति का अर्थ स्वामी माना गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषि इस विज्ञानसम्मत धारणा से अवगत थे कि वन ही अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि से उनकी रक्षा कर सकते हैं। इसलिए ऋग्वेद में वनस्पतियों को लगाकर वन्य क्षेत्र को बढ़ाने की बात कही गयी है। सम्भवत: इसी कारण से उन्होंने वन्य क्षेत्र को ‘अरण्य’ अर्थात रण से मुक्त या शान्ति क्षेत्र घोषित किया होगा, ताकि वनस्पतियों को युद्ध की विभीषिका से नष्ट होने से बचाया जा सके। अथर्ववेद में जल की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जिससे बढ़ने वाली वनस्पतियाँ आदि अपना जीवन प्राप्त करती हैं, वह जीवन का सत्व पृथ्वी पर नहीं है और न द्युलोक में है, अपितु अन्तरिक्ष में है तथा अन्तरिक्ष में संचार करने वाले मेघमण्डल में तेजस्वी पवित्र और शुद्ध जल है। जिन मेघों में सूर्य दिखाई देता हो, जिनमें विद्युत रूपी अग्नि कभी व्यक्त और कभी गुप्त रूप से दिखाई देती हो, वह जल ही हमें शुद्धता, शान्ति और आरोग्य दे सकता है, जिसे विज्ञान भी स्वीकार करता है।
सुप्रसिद्ध इन्द्रवृत्र आख्यान भी जल के महत्तव को प्रतिपादित करता है। इन्द्र वर्षा के जल को बाधित करने वाले दैत्य वृत्रासुर रूपी अकाल का ऋषि दधीचि की सहायता से संहार करते हैं तथा स्वच्छ वारिधाराओं का धरती पर निर्बाध विचरण सुनिश्चित करते हैं। यही कारण है कि इन्द्र को जल के देवता की भी संज्ञा दी गई है। वैदिक ऋषि जल के औषधीय स्वरूप से भी भली-भाँति परिचित थे, सम्भवत: इसी कारण उन्होंने जल को ‘शिवतम रस’ की संज्ञा दी थी। ऋग्वेद का ऋषि प्रार्थना करते हुए कहता है कि हे सृष्टि में विद्यमान जल ! तुम हमारे शरीर के लिए औषधि का कार्य करो ताकि हम नीरोग रहकर चिर काल तक सूर्य का दर्शन करते रहें, अर्थात् दीर्घायु हों। यजुर्वैदिक ऋषि शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शन्योरभिस्त्रवन्तु न: कहकर शुद्ध जल के प्रवाहित होने की कामना करता है। अथर्ववेद में पृथिवी पर शुद्ध पेय जल के सर्वदा उपलब्ध रहने की ईश्वर से कामना की गयी है- “शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु यो न: सेदुरप्रिये तं नि दध्म:। पवित्रेण पृथिवि मोत् पुनामि॥“
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवद्गीता में स्वयं को नदियों में भागीरथि गंगा तथा जलाशयों में समुद्र बताकर (स्त्रोतसास्मि जाह्नवी सरसामस्मि सागर:) जल की महत्ताा को स्वीकृति प्रदान की है। भारतीय मनीषा की दृष्टि में जलस्त्रोत केवल निर्जीव जलाशय मात्र नहीं थे, अपितु वरुण देव तथा विभिन्न नदियों के रूप में उसने अनेक देवियों की कल्पना की थी।इसी कारण स्नान करते समय सप्तसिन्धुओं में जल के समावेश हेतु आज भी इस मंत्र द्वारा उनका आह्वान किया जाता है-
“गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिम् कुरु॥“
वैदिक काल में भी पर्यावरण के प्रदूषित होने की समस्या उपस्थित हुई थी तथा समुद्र मन्थन और कुछ नहीं, अपितु देवताओं एवं असुरों द्वारा प्रकृति का निर्दयतापूर्वक दोहन था, जिससे अमृत के साथ-साथ हलाहल के रूप में प्रदूषण ही निकला होगा। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह जहरीली फास्जीन गैस थी।
उस समय भगवान शिव ने प्रदूषण रूपी हलाहल का पान का सृष्टि को प्रदूषण मुक्त किया था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवत: भगवान शिव ने प्रदूषण फैलाने वाले स्त्रोतों को नष्ट कर धरती को प्रदूषण से रहित किया होगा।
बृहदारण्यकोपनिषद में जल को सृजन का हेतु स्वीकार किया गया है और कहा गया है कि पंचभूतों का रस पृथ्वी है, पृथ्वी का रस जल है, जल का रस औषधियाँ हैं, औषधियों का रस पुष्प हैं, पुष्पों का रस फल हैं, फल का रस पुरुष हैं तथा पुरुष का रस वीर्य है, जो सृजन का हेतु है। मत्स्य पुराण में पादप का अर्थ पैरों से जल पीने वाला बताया गया है।इस तथ्य से भी वनस्पतियों एवं जल के वैज्ञानिक सम्बन्धों की पुष्टि की गई है।
पर्यावरण और वर्तमान परिदृश्य – आज की आवश्यकता है कि हम अपनी परम्पराओं के प्रति निष्ठावान हों। उसको आज के संदर्भ के सात रहकर जब हम लोगों को बतायेंगे तब जो लोकचेतना जागृत होंगी वह अंधविश्वास की कथित दीवार को ही गिराकर मनुष्य के मन में जगी हुई भौतिकता की कामना पर भी अंकुश लगायेगी। संयम, संतुलन एवं सामंजस्य के सहारे पर्यावरण की रक्षा में प्रगति सार्थक तथा स्थायी होगी। यह ध्यान रखना होगा कि सामने वाले व्यक्ति की प्रवृत्ति तथा तथ्य को समझने की क्षमता के अनुरूप ही बात को रखा जाय। हमारी बात उसे बेझिल या परिहासपूर्ण एवं उपेक्षणीय न लगे।
ऐसे ही हमें प्रदूषण रोकने के विषय में भी सोचना चाहिए। खेतों में विभिन्न प्रकार के रासायनिक अपद्रव्य जो हानिकारक हैं उनका छिड़काव प्रतिबंधित होना चाहिए। ऐसे उद्योग जिनके रासायनिक अपद्रव्य मलामल आदि जो प्राणिमात्र के लिए हानिकारक हैं- उनका नगर, ग्राम बस्ती में उत्पेक्षण न हो और न नालों से होता हुआ नदी में जाय। अब आधुनिक रासायनिक खाद, औद्योगि केन्द्रों से निस्सारित अपद्रव्यों के कारण जल की मूल संरचना ही बदल रही है। फ्लूराइड आदि की समस्या तो अब ऐसे स्थानों में भी देखने में आ रही है। जहाँ का पानी पहिले अच्छा रहा है। इसलिये प्रत्येक स्तर पर प्रदूषण रोकने की बात चर्चा में आती है।
भारतीय जीवन पद्धति में जलाशय, नदी, तालाब, कूप, झरने आदि के निकट मल-मूत्र विसर्जन करना निषिद्ध रहता है, कम से कम 100 गज दूर करने को कहा है। हवा, वर्षा या अन्यान्य कारणों से भी ये पदार्थ तथा प्रदूषणकारी द्रव्य जलाशय में न पहुँच सकें। नदियों के प्रति पवित्र भाव, श्रद्धा एवं मोक्षदायी भावना, उनके श्रेष्ठ गुणों की रक्षा की प्रेरणा भक्ति भावना के कारण सहज उत्पन्न होती है। गंगा का जल कभी खराब नहीं होता तथा उसका कीटाणुनाशक गुण तो विलक्षण है।
अन्य पवित्र नदियों का जल वर्ष भर खराब नहीं होता, साधारण नदियों का जल सप्ताह भर खराब नहीं होता जबकि विश्व की अनेक नदियों का जल नदी से निकालने के 5-10 मिनट बाद ही खराब हो जाता है। ब्रिटिश काल में और स्वतंत्र भारत में इन नदियों की श्रेष्ठता नष्ट करने के प्रयास दूरगामी योजना से बने। नगर के नालों से मलमूत्र, चर्म तथा अन्य उद्योगों के निस्तारित पानी को, जो अत्यन्त हानिकारक हैं- सीधा ही नगर-ग्राम के पास जोड़ा गया और अब प्रदूषित गंगा जैसी बातों की चर्चा की जा रही है।
आवश्यकता है ऐसे जनमल तथा अपद्रव्यों को नदी में सीधा न मिलाया जाये। जीवन की सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं भावों की पवित्रता के लिए सभी सुविधाओं का त्याग करना उचित है। ‘जान है तो जहान है’, की उक्ति ध्यान में रखना चाहिए। निसंदेह प्राचीन ऋषि -मुनियों की धारणा मानव हित रही और उनकी यही धारणा भारतीय संस्कृति का द्योतक है। मनुष्य अपनी इच्छाओं को वश में रखकर प्रकृति से उतना ही स्वीकार करें कि उसकी पूर्णता को हानि न पहुंचे। क्योंकि यदि हम पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नही बने तो हमारी संस्कृति का विनाश अवश्यंभावी है।
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