स्वाधीनता आंदोलन में बैजा बाई की भूमिका/swadheenta aandolan mein Baiza Bai ki Bhumika / 1857 AD
by
स्वाधीनता आंदोलन में बैजा बाई की भूमिका
प्रस्तावना (Introduction) –
अंग्रेजों ने प्लासी के युद्ध (1757 ई.) के बाद एक शताब्दी के भीतर (1856 ई. तक) सम्पूर्ण भारत पर अपनी निष्कंटक सत्ता स्थापित कर ली। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना आर्थिक लाभ प्राप्त करने तथा साम्राज्य विस्तार के लिए की गई थी। जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजों की शक्ति बढ़ती गई, वैसे- वैसे उनकी महत्वाकांक्षा भी बढ़ती गई। उनका उद्देश्य अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करना और अधिक से अधिक अपने साम्राज्य का विस्तार करना था। अंग्रेजों के इस साम्राज्यवादी नीति के कारण एक तरफ भारतीय नरेशों को यह भय उत्पन्न हो गया कि शीघ्र ही अंग्रेज उनकी सत्ता को पूर्णत: समाप्त कर देंगे। साथ ही दूसरी तरफ भारतीय जनता में अंग्रेजों की शासन संबंधी, लगान संबंधी, धार्मिक और सामाजिक नीतियों से असंतोष व्याप्त हो गया। इसी के परिणामस्वरूप 1857 ई में अंग्रेजी सत्ता एवं उनकी दमनकारी नीतियों के खिलाफ एक क्रांति हुई। जिसे प्रथम स्वाधीनता आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह में भारत के मुख्यत: अपदस्थ राजा-महाराजाओं, जमींदारों, कृषकों, आदिवासी जनजातियों ने भाग लिया। अनेक बार उन भारतीय सैनिकों ने भी विद्रोह भारत में किए जो कंपनी की सेना में भर्ती हो गए थे और जिनकी सहायता से अंग्रेजों ने भारत पर अधिकार कर लिया था।
';
}
else
{
echo "Sorry! You are Blocked from seeing the Ads";
}
?>
तत्कालीन अंग्रेजी सत्ता के बहिष्कार के लिए अनेक भारतीयों ने अपना बलिदान दिया उसी कड़ी में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महिलाओं के योगदान का उल्लेख किए बिना अधूरा होगा। उन महान महिलाओं की सूची जिनके नाम उनके समर्पण और भारत की सेवा के प्रति समर्पण के लिए इतिहास में एक लंबी कतार है। प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन 1857 ई की इस स्वाधीनता आंदोलन में पुरुषों का ही नहीं अपितु महिलाओं का भी महान योगदान था, जिनमें झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई, रानी अवन्ती बाई और रानी बैजा बाई की अत्यंत ही सराहनीय भूमिका रही।
बैजाबाई – एक संक्षिप्त परिचय
महारानी बैजा बाई को बाइजा बाई सिंधिया के नाम से जाना जाता है। उनका जन्म 1784 ई. को महाराष्ट्र के अंतर्गत कोल्हापुर में हुआ। बैजा बाई के पिता सखाराम घटगे कोल्हापुर कागल के देशमुख थे। उनकी माता का नाम सुंदर बाई था। इनका धर्म हिन्दू था। बैजा बाई का विवाह फरवरी 1798 में 14 वर्ष की उम्र में दौलत राव सिंधिया के साथ सम्पन्न हुआ वह उनकी तीसरी पत्नी थी, दौलत राव और बैजा बाई के अनेक संताने थीं परंतु उत्तराधिकार के लिए उन्हे कोई पुत्र नहीं था। विवाहोपरांत अंग्रेज- मराठा युद्धों के दौरान वह दौलत राव के साथ युद्ध में भागीदारी बनी थी। तथा वह असाय के युद्ध में आर्थर वेलेजली, भविष्य के ड्यूक आफ वेलिंगटन के विरुद्ध लड़ी थीं। बैजा बाई की प्रशासनिक योग्यता के कारण दौलत राव ने प्रशासनिक और राज्य के मामलों में सहायता हेतु बैजा बाई को शामिल कर लिया। और वास्तव में दौलत राव की मृत्यु के पश्चात उन्होंने ग्वालियर प्रशासन में प्रवेश किया। राजा दौलत राव की प्रिय पत्नी बनने के बाद वे रियासत की महारानी और बैंकर बन गईं। 1863 ई में ग्वालियर में उनकी मृत्यु हुई।
बैजा बाई की शिक्षा- बैजा बाई मूल रूप से महाराष्ट्र के कोल्हापुर रियासत से संबंधित थीं। उनके पिता कोल्हापुर के देशमुख थे। वे अपनी पुत्री को एक राजकुमारियों की तरह शिक्षा दी थी। जिसके कारण बैजा बाई में प्रारंभ से ही उत्तम प्रशासनिक क्षमताऐं विकसित हुई।बैजा बाई एक शानदार घुड़सवार थीं। उनकी शिक्षा-दीक्षा कोल्हापुर में ही पिता के संरक्षण में हुआ। जहां उन्होंने तलवार और भाले से लड़ने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया।
बैजा बाई की विशेषताएं-
बैजाबाई को घोड़ों की अच्छी परख थी। उनकी घुड़सवारी की प्रशंसा पूरी रियासत में की जाती थी।
वह अपनी प्रजा से बेहद लगाव रखती थीं।
बैजा बाई एक बैंकर थी अत: उनके पास आय-व्यय के लेखा का अनुभव था।
लोककल्याणकारी कार्यों में रुचि रखती थी।
बैजा बाई एक समर्थ राजनैतिक व कूटनीतिक गुणों से युक्त थी।
बैजा बाई की चुनौतियाँ – तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता की नीतियों के तहत देशी रियासतों में उत्तराधिकारी न होने पर सत्ता अधिग्रहण का कार्य चरम पर पहुँच गया था। लार्ड डलहौजी की हड़प नीतियों ने भारतीय राजाओं को असन्तुष्ट कर दिया था। ग्वालियर रियासत के राजा दौलत राव सिंधिया (1827 ई ) की मृत्यु के पश्चात वहाँ की सत्ता बैजा बाई के पास आ गई। और वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रमुख प्रतिद्वंदी के रूप में उभरी जिसके कारण अंग्रेजी सरकार ने उन्हे सत्ता से बेदखल कर दिया और (चूंकि दौलतराव और बैजा बाई के कोई पुत्र न होने पर ) उन्होंने उनके दत्तक पुत्र जानकोजी राव सिंधिया को ग्वालियर रियासत का महाराजा बना दिया।
बैजा बाई का प्रशासन- बैजा बाई सिंधिया के अंदर समस्त प्रशासनिक गुण विद्यमान थे। उसने ग्वालियर रियासत के अंदर प्रशासन में अपने रिश्तेदारों को उच्च प्रशासनिक पदों पर नियुक्त कर दिया। जिनमें उनके पिता सखाराम घटगे को ग्वालियर का दीवान बनाया गया। द्वितीय आंग्ल – मराठा युद्ध में सिंधिया और मराठों की संयुक्त रूप से हार हुई तत्पश्चात अंग्रेजों और ग्वालियर से एक संधि हुई और उन्हे ग्वालियर के प्रशासन में नजरबंद किया गया। अंग्रेजों को बैजा बाई के के द्वारा उनके विरुद्ध षड्यन्त्र का पता चलने से उन्हे शासन से भी बेदखल कर दिया गया और साथ ही उन्हे 200000/ प्रति वर्ष की जागीर प्रदान कर दी गई। 1813 में उनके भाई हिंदुराव तथा 1816 में उनके चाचा बाबाजी पाटनकर को ग्वालियर रियासत का दीवान पद प्रदान किया गया।
बैजा बाई का उत्तराधिकारी – बैजा बाई का विवाह ग्वालियर रियासत के राजा दौलतराव सिंधिया से हुआ। बैजा बाई राव की तीसरी पत्नी और अत्यंत प्रिय थीं। इससे पूर्व की पत्नियों से अनेक संताने थीं परंतु पुत्र की प्राप्ति न होने से उत्तराधिकार के लिए उपयुक्त नहीं समझा जा रहा था। तब बैजा बाई ने जानको जी राव सिंधिया को दत्तक पुत्र के रूप में रियासत का उत्तराधिकार बनाया। ।
अंग्रेजों से संबंध – महारानी बैजाबाई अपने प्रारम्भिक दिनों में अपने पिता की तरह ही ब्रिटिश विरोधी रुख को अपनाया था। जब पिंडारियों के विरुद्ध अभियान चलाया था तब अंग्रेजों का साथ उनके पति दौलत राव सिंधिया ने दिया था। तब बैजा बाई ने इस फैसले पर अपने पति का विरोध करते हुए उन्हे कायर कहा था और उसकी भर्त्सना की थी।
बैजा बाई के लोकहित के कार्य- अपने ही अंदाज में जीवन जीने वाली महारानी बैजा बाई के परोपकार, कला और धर्म के संबंध उनके द्वारा किए गए कार्यों के मूर्त अवशेष आज भी विद्यमान हैं जिनमें मुख्य रूप सेमहारानी बैजा बाई ने वाराणसी में स्थित ज्ञानवापी कुएं के आसपास मंडप का निर्माण करवाया था। इसके चारों ओर एक कालोनी का भी निर्माण करवाया था। और वाराणसी में भी सिंधिया घाट के दक्षिणी बुर्ज के पास एक मंदिर का निर्माण 1830 में करवाया था। जो नदी के किनारे स्थित भव्य घाटों में से एक है।
प्रथम स्वाधीनता आंदोलन में बैजा बाई की भूमिका –
चित्र स्रोत -www.pixel.com
पूर्व विवरणों से ज्ञात होता है कि महारानी बैजाबाई अपने प्रारम्भिक दिनों से ही अपने पिता की तरह ब्रिटिश विरोधी रुख को अपनाया था। 1847 ई से 1856 ई के बीच बैजा बाई उज्जैन में थीं। वह 1856 ई में पुन: ग्वालियर लौट आईं थीं। अंग्रेजों के विरुद्ध काल्पी की लड़ाई में मिली हार के बाद राव साहेब पेशवा, बंदा के नवाब, तात्या टोपे और अन्य प्रमुख योद्धाओं ने महारानी लक्ष्मी बाई को ग्वालियर पर अधिकार प्राप्त करने का सुझाव दिया। जिससे रानी अपनी मंजिल तक पहुँचने में सफल हो सके। तब इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए बैजा बाई ने सहमति जताई थी। और स्वाधीनता संग्राम में बैजा बाई ने महारानी लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे का साथ दिया था।
आर्थिक सहायता- ग्वालियर रियासत के राजकोष के प्रधान कोषाध्यक्ष अमरचंद बांठीया द्वारा बैजा बाई के इशारे पर विद्रोही सेना को आर्थिक सहायता प्रदान की गई थी। हिस्ट्री आफ दि इंडियन मयूटिनी -भाग 2 के अनुसार 1857 की क्रांति के समय झाँसी, ग्वालियर और पेशवा की सेना संकट में थी। युद्ध की तैयारी व क्रांति ने आर्थिक स्थिति को खोखला कर दिया था। ऐसी स्थिति में रानी के इशारे पर ग्वालियर के शाही खजाने से सेना को 5-5 महीने की पगार और रसद आपूर्ति कर आर्थिक सहायता की गई जिससे विद्रोही सेना में स्फूर्ति का संचार हुआ और वे अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिए।
1857 ई के भारतीय विद्रोह के दौरान, बाइजा बाई पर ब्रिटिश ने पुन: विद्रोह करने का संदेह किया। प्रमुख रियासतों में से ग्वालियर, अंग्रेजों के खिलाफ नहीं खड़ा हुआ था । जब तात्या टोपे और झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में विद्रोहियों ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया, तो जयाजी के साथ बैजा बाई ने ब्रिटिश कंपनी की सरकार से सुरक्षा की आशा की। परंतु अंग्रेजों ने इसमें निष्क्रियता की भूमिका निभाई। तब बैजा बाई ने विद्रोह के समय सिंधिया रानियों को सुरक्षित नरवर ले जाने में सफल रही। और महारानी लक्ष्मी बाई तथा तात्या टोपे को ग्वालियर में अधिकार करने का वचन दिया। तब तात्या टोपे के साथ सेना लेकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ बैजा बाई ने रानी की सहायता की। परंतु उसी समय अंग्रेजों ने ग्वालियर पर धावा बोल दिया और ग्वालियर पर अधिकार कर लिया बाद में उसे पेशवा को सौंप दिया गया।
ऐसा माना जाता है कि 1857 ई के क्रांति के विद्रोही उसका सम्मान करते थे। तात्या टोपे ने उसके साथ एक पत्राचार किया, जिसमें उसे ग्वालियर के शासन को संभालने का आग्रह किया गया था। सद्भावना दर्शाते हुए बैजा बाई ने अंग्रेजों को पत्र सौंपे। जिसमें अंग्रेजों ने उनका साथ नहीं दिया। राजनैतिक स्तर पर कूटनीतिक पहल के साथ वह अपने परिवार, विद्रोहियों और अंग्रेजों के साथ एक ही पंक्ति पर चलने अत्यंत निपुण थीं।
सारांश – उपरोक्त विवेचन के आधार पर सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि 1857 की क्रांति प्रारंभ में सैनिक विद्रोह ही था परंतु बाद में जन आंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया। सर्वप्रथम विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 की क्रांति को एक संगठित राष्ट्रीय स्वातंत्र्य युद्ध कहा है। उसी प्रकार पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है कि यदपि यह विद्रोह सैनिक विद्रोह के रूप में प्रारंभ हुआ था, बाद में यह जनविद्रोह के रूप में परिणित हो गया। 1857 की क्रांति के पीछे राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सैनिक, धार्मिक आदि अनेक कारण देखे जा सकते हैं। अंग्रेजी शासन के प्रति भारत में आरंभ से ही विरोध का भाव था। यह असंतोष की भावना ही कभी अशान्ति, प्रतिरोध और सशस्त्र विरोध के रूप में फूट पड़ा। इस संग्राम में जहां पुरुष वर्ग जितना आगे आए उतना ही भारत की महिलाओं की भूमिका भी सशक्त रूप से रही। उन महिलाओं में ग्वालियर रियासत की महारानी बैजा बाई भी शामिल थी। जिन्होंने तत्कालीन राजनीतिक व अपनी कूटनीति चालों से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।