सन 1857 ई की क्रांति के स्वरुप, प्रमुख कारण व तात्कालिक कारण- Revolution of 1857 : Nature, main causes

सन 1857 ई की क्रांति के स्वरुप, प्रमुख कारण व तात्कालिक कारण-

 भूमिका – 

सन 1857 ई. का विद्रोह भारतीय इतिहास का गौरवशाली अध्याय है। पहली बार देश के विभिन्न भागो के बीच एक ऐसे शासन के विरुध्द एकता स्थापित हुई थी, जो सबका शत्रु था। विद्रोह के दौरान ऐसे अनेक नेता और योध्दा उभरे , जिनकी वीरता व बहादुरी ने उन्हे अमर बना दिया। 

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1857ई की क्रांति के स्वरुप के सम्बंध में विद्वानो में मतभेद हैं। अनेक यूरोपीय और भारतीय लेखको ने इस विद्रोह को निंदनीय बताया। तो कुछ ने इसे संग्राम का नाम दिया। 1857 की क्रांति के सम्बंध में प्रमुख निम्न मत हैं जो इस प्रकार हैं-

1)  डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार- 

                      ”  यह विद्रोह योजनाबध्द था और विद्रोह के नेता बहुत समय से लोगो अंग्रेजी शासन के विरुध्द गांव-गांव में भावना को फैला रहे थे। वे नेता नि:स्वार्थ व देशभक थे तथा उनको अपने देश की स्वतंत्रता से अधिक प्रिय अन्य कुछ नही था।”  अत: यह कहा जा सकता है कि यह केवल सियासी विद्रोह नही था। 

2) कुछ यूरोपीय लेखको जेम्स आउट्रम  ने 1857ई की क्रांति को मुसलमानो का षड़यंत्र बतलाया है। 

3) कुछ इतिहासकारो ने इसे पुराने प्र्तिक्रियावादी, अंधविश्वासी तत्वो का षड़यंत्र कहा जो यूरोप की प्रगतिशील , कल्याणकारी और प्रबुध्द सभ्यता के शत्रु थे और उसे उखाड़ फेकना चाहते थे,अर्थात विद्रोह सभ्यता के खिलाफ बर्बरता का संघर्ष था।

4) प्रसिध्द क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर पहले लेखक थे जिन्होने- “1857 ई की क्रांति को स्वाधीनता सन्ग्राम का दर्जा दिया।”

5)  डा ताराचंद  के अनुसार –  “1857 ई क विप्लव भारत को विदेशी दासता से मुक्त करने का युध्द था।”

6) सर जान लारेंस एवम सीले के अनुसार- ”यह पूर्णत: सिपाही विद्रोह था।”

7) बेंजामिन डिजरेली के अनुसार – ” 1857 का विद्रोह एक राष्ट्रीय विद्रोह था।”

8) पी राबर्टसन के अनुसार – ”  1857 का विद्रोह केवल एक सैनिक विद्रोह था , जिसका तत्कालिक कारण चर्बी युक्त कारतूस था।” 

 1857 के विद्रोह का स्वरूप – 

आधुनिक इतिहासकारों के द्वारा 1857 ई० की क्रांति को स्वतंत्रता आन्दोलन नहीं माना गया है क्योंकि 1857 ई० के विद्रोह के अंतर्गत ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र होने का दृष्टिकोण था|

ब्रिटिश शासन की समाप्ति में स्वाधीन होने का दृष्टिकोण नीहित है किन्तु इसे स्वतंत्रता संघर्ष नही माना जा सकता क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष की भावना राष्ट्रीयता की भावना से जुड़ी है जबकि 19वीं शताब्दी के मध्य में राष्ट्रीयता की सीमाएं थीं|

भारत में राष्ट्रीयता का विकास 1857 के बाद हुआ|चूँकि 1857 ई० के क्रांति तक भारत में राष्ट्रीयता का विकास नहीं हुआ था इसलिए इसे हम राष्ट्रीय संघर्ष नहीं मान सकते हैं|

विद्रोह की शुरुआत –

               10 मई, 1857 ई० को विद्रोह की शुरुआत सैनिक विद्रोह के रूप में हुई थी|12 मई, 1857 ई० को विद्रोही सैनिकों ने मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफर को विद्रोहियों का नेता घोषित कर दिया|उस समय ब्रिटिश भारत में सेना की कुल तीन रेजिमेंट थी, किन्तु इस विद्रोह में केवल बंगाल रेजिमेंट ने ही हिस्सा लिया था और उसमे भी बंगाल रेजिमेंट के सभी सैनिकों ने हिस्सा नही लिया था|

 1857 का विद्रोह अंत में लोकप्रियस्वरुप धारण करता है|इस विद्रोह को जनता की बड़ी भागीदारी प्राप्त हुई| लेकिन फिर भी भारतीय समाज का प्रत्येक तबका इस विद्रोह में भाग नही लिया|भारत के अधिकांश राजा और बड़े जमींदार इस विद्रोह से न केवल अलग-थलग रहे, बल्कि उनमे से कुछ ने इस विद्रोह को समाप्त करने के लिए अंग्रेजों की सक्रिय सहायता भी की थी|ऐसे राजाओं में ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होलकर और हैदराबाद के निजाम नेपाल के राजा, भोपाल के राजा,पटियाला के शासकआदि थे|

अन्य मत-

——इसके अतिरिक्त मध्यम और उच्च वर्ग के अधिकांश पढ़े-लिखे भारतीय भी इस विद्रोह के आलोचक बने रहे और विद्रोहियों का साथ नही दिया|यह एक ऐसा तथ्य है जो विद्रोह के स्वतंत्रता संघर्ष होने के विचार पर प्रश्न चिह्न लगता है|

——विद्रोह के विस्तार की भी सीमाएं रहीं|विद्रोह अधिकतर उत्तरी भारत में ही सीमित रहा| इस विद्रोह मे पूरी तरह से पूर्वी भारत, दक्षिण भारत तथा पश्चिमी भारत के अधिकांश क्षेत्रों ने हिस्सा नहीं लिया था|

——विद्रोह के दौरान घटित घटनाओं का अवलोकन करने बाद पता चलता है कि विदोह के दौरान ही कहीं स्थानीय संघर्ष के मुद्दे उभर गये, कहीं वर्ग संघर्ष के मुद्दे उभर गये, तो कहीं विद्रोहियों के साथ असामाजिक तत्त्व शामिल हो गये|ग्रामीणों अथवा किसानों का निशाना अक्सर जमींदार होते थे|

——बिहार में किसानों ने जमींदारों को अपना निशाना बनाया|किसानों ने इस विद्रोह में जमींदारों का घर जला डाला, मारा-पिटा और उन्हें अपने घरों से खदेड़ दिया|इसके आलावा ग्रामीण जनता का निशाना,सूदखोर और महाजन हुआ करते थे|इस बात के साक्ष्य भी मिलते हैं किकिसानों ने कई स्थानों पर जमींदार एवं महाजन दोनों पर प्रहार किया|इसके आलावा असामाजिक तत्वोंने इन विद्रोहियों के साथ भीड़ में शामिल होकर लूट-पाट किया|

——19वीं शताब्दी के मध्य में राष्ट्रीयता के विकास की अपनी सीमाएं थीं|राष्ट्रीयता की भावना का उद्भव 1860 के वर्षों के बाद प्रारम्भ हुआ, जब पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों ने सामाजिक और धार्मिक सुधार के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का धीरे-धीरे प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया|

——-19वीं शताब्दी के मध्य में राष्ट्रीय का प्रसार भारत में नहीं हुआ था| 1857 के विद्रोह में जन सहभागिता थी|एक बहुत बड़ी जनसंख्या जिसमे किसान, मजदूर, हिदू, मुस्लिम आदि शामिल थे, ये सभी अंग्रेजों के प्रति विरोध की भावना से प्रभावित थे न की राष्ट्रीयता की भावना से|उन्हें बस इतना ही पता था कि अंग्रेज हमारे शत्रु हैं|विद्रोह की शक्ति काफी हद तक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर निर्भर थी|सभी ने सामूहिक तौर पर मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र को बादशाहनियुक्त किया और उसे अपने विद्रोह का नेता घोषित कर दिया|

——बहादुरशाह जफ़र को विद्रोह का नेता घोषित करके, उसे फिर से बादशाह घोषित कर देना; इसमें कहीं न कहीं पुरानी सामंती व्यवस्था को फिर से सुदृढ करने का दृष्टिकोण दिखाई देता है, जिस सामंती व्यवस्था को ध्वंश करने का कार्य अंग्रेजों ने प्रारम्भ किया था|

——विद्रोही यह समझ सकने में असफल रहे कि भारत की मुक्ति पुरानी सामंती व्यवस्थाओं में लौटने में नहीं है बल्कि आगे बढ़कर आधुनिक समाज, आधुनिक अर्थव्यवस्था, वैज्ञानिक शिक्षा और प्रगतिशील राजनीतिक संस्थाओं को अपनाने से संभव हो सकती है|

——वास्तव में अगर देखा जाये तो इन आन्दोलनकारियों में भारत को गुलाम बनाने वाले उपनिवेशवाद की समझ नहीं थी और न ही आधुनिक विश्व की कोई खास समझ थी|इस आन्दोलन में भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी शिकायत थी और स्वतंत्र भारत के राजनीति की अपनी धारणायें थीं|

——इसी तरह नेतृत्व के स्तर पर मुग़ल शासक के अलावा कोई प्रगतिशील नेतृत्व नहीं उभर सका|जब विद्रोह के प्रति कोई प्रगतिशील विचार ही नहीं है तो उसे फिर राष्ट्रीय कैसे कहा जा सकता है|उपरोक्त ऐसे तथ्य हैं जो 1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय कहे जाने पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं|

——-समाजवादी विचारक तो इस विद्रोह को स्वतंत्रता आन्दोलन नही मानते हैं|अंग्रेज इतिहासकार लॉरेंसऔर सीले ने इसे ‘सैनिक विद्रोह’ कहा है|भारतीयों में सर सैय्यदअहमद खान ने भी इसे एक ‘सैनिक विद्रोह’ ही कहा है|

सन 1857 ई की क्रांति के कारण –

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विस्तारपूर्वक व्याख्या

राजनैतिक कारण

सैनिक तथा प्रशासनिक कर्मचारियो में अंग्रेजो के प्रति घृणा-

ब्रिटिश शासनकाल की स्थापना से देश के अनेक राजवंश पूर्णत: नष्ट हो गए थे, फलस्वरूप लाखो सैनिक और प्रशासनिक कर्मचारी बेकार हो गए । उनके वंशजो के मन में अंग्रेजो के प्रति घृणा का होना स्वाभाविक था।  

मुगल सम्राट के प्रति घृणा-

दिल्ली में मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय था। यद्यपि उसके हाथो में कोई शक्ति नही थी ,फिर भी वह नाम मात्र के लिये सम्राट और ईस्ट इंडिया कम्पनी उसकी  प्रजा तथा सेवक थी। कम्पनी के गवर्नर जनरल उसका सम्मान करते तथा  उसे भेंट देते थे। किंतु कुछ वर्षो से कम्पनी का व्यवहार उसके प्रति बदल गया। अंग्रेज उसे नजराना देना बंद कर दिये । लार्ड डलहौजी ने तो खुलकर उसका अपमान करना आरम्भ कर दिया।कम्पनी की सरकार ने निर्णय लिया कि सम्राट को अपने उत्तराधिकारी को नामित करने का अधिकार नही होगा,उसके उत्तराधिकारी को राजा की उपाधि से वंचित कर दिया जायेगा और उसे दिल्ली का लाल किला छोड़कर अन्यत्र रहना होगा। सम्राट के प्रति इस व्यवहार से देश के हिंदू तथा मुस्लिम शासको के मन में असंतोष  व संदेह की भावना पैदा हो गई। 

लार्ड डल्हौजी की हड़प नीति –

1857 के विद्रोह का प्रमुख राजनीतिक कारण ब्रिटिश सरकार की ‘गोद निषेध प्रथा’ या ‘हड़प नीति’ थी। यह अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति थी जो ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के दिमाग की उपज थी। कंपनी के गवर्नर जनरलों ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से कई नियम बनाए। उदाहरण के लिए, किसी राजा के निःसंतान होने पर उसका राज्य ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन जाता था। राज्य हड़प नीति के कारण भारतीय राजाओं में बहुत असंतोष पैदा हुआ था। रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र को झांसी की गद्दी पर नहीं बैठने दिया गया। हड़प नीति के तहत ब्रिटिश शासन ने सतारा, नागपुर और झांसी को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। अब अन्य राजाओं को भय सताने लगा कि उनका भी विलय थोड़े दिनों की बात रह गई है। इसके अलावा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब की पेंशन रोक दी गई जिससे भारत के शासक वर्ग में विद्रोह की भावना मजबूत होने लगी।

आर्थिक कारण

देश के पुराने वर्गो पर चोट –

अंग्रेजो की आर्थिक नीति ने देश के सभी पुराने वर्गो के हितो को चोट पहुंचाई।  भारी टैक्स और राजस्व संग्रहण के कड़े नियमों के कारण किसान और जमींदार वर्गों में असंतोष था। इन सबमें से बहुत से ब्रिटिश सरकार की टैक्स मांग को पूरा करने में असक्षम थे और वे साहूकारों का कर्ज चुका नहीं पा रहे थे जिससे अंत में उनको अपनी पुश्तैनी जमीन से हाथ धोना पड़ता था। बड़ी संख्या में सिपाहियों का इन किसानों से संबंध था और इसलिए किसानों की पीड़ा से वे भी प्रभावित हुए।

किसानो की दयनीय दशा-

किसानो की दशा अत्यंत शोचनीय हो गई।गई। इसका मुख्य कारण यह था कि सारे देश में लगान की दरे बढ़ा दी गई। इससे किसानो के उपर ऋण का बोझ बढ़ता चला गया। इसके चलते बहुत से किसानो को अपनी भूमि से हाथ धोना पड़ा। कम्पनी की सरकार ने खेती की उन्नति के लिये कोई ध्यान नही दिया। फलस्वरुप अकाल पड़े , अकाल व भुखमरी से जनता की अकाल मृत्यु हो गई जिससे लोगो में असंतोष व्याप्त हो गया।

भारतीय दस्त्कारो का विनाश-

इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के बाद भारतीय बाजार ब्रिटेन में निर्मित उत्पादों से पट गए। इससे भारत का स्थानीय कपड़ा उद्योग खासतौर पर तबाह हो गया। भारत के हस्तशिल्प उद्योग ब्रिटेन के मशीन से बने सस्ते सामानों का मुकाबला नहीं कर पाए। भारत कच्ची सामग्री का सप्लायर और ब्रिटेन में बने सामानों का उपभोक्ता बन गया। जो लोग अपनी आजीविका के लिए शाही संरक्षण पर आश्रित थे, सभी बेरोजगार हो गए। इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ उनमें काफी गुस्सा भरा हुआ ।

सामाजिक धार्मिक कारण –

 ईसाई मिशनरियो का हस्तक्षेप-

अंग्रेज प्रारम्भ से ही भारतीयो के धर्म, संस्कृति तथा सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करते आये थे। भारत में तेजी से पैर पसारती पश्चिमी सभ्यता को लेकर समाज के बड़े वर्ग में आक्रोश था। 1850 में ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं के उत्तराधिकार कानून में बदलाव कर दिया और अब किस्चन धर्म अपनाने वाला हिंदू हीअपने पूर्वजों की संपत्ति में हकदार बन सकता था। इसके अलावा मिशनरियों को पूरे भारत में धर्म परिवर्तन की छूट मिल गई थी। लोगों को लगा कि ब्रिटिश सरकार भारतीय लोगों को क्रिस्चन बनाना चाहती है। भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही कुछ प्रथाओं जैसे सती प्रथा आदि को समाप्त करने पर लोगों के मन में असंतोष पैदा हुआ।

 2. सरकार की शिक्षा नीति –

कम्पनी की सरकार ने शिक्षा की जो नई प्रणाली लागू की ,उसने भी जनता के मन में असंतोष को बढ़ावा दिया। नई शिक्षा व्यवस्था में ईसाई मिशनरियो का वर्चस्व बढ जाने से पुराने मौलवी व हिंदू शिक्षको को अपनी जीविका से हाथ धोना पड़ा। जिससे समाज में संदेह व रोष की भावना फैलने लगी।  

सैनिक कारण 

1. भारतीय सैनिको के साथ अन्याय-

भारत में ब्रिटिश सेना में 87 फीसदी से ज्यादा भारतीय सैनिक थे। उनको ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में कमतर माना जाता था। एक ही रैंक के भारतीय सिपाही को यूरोपीय सिपाही के मुकाबले कम वेतन दिया जाता था। इसके अलावा भारतीय सिपाही को सूबेदार रैंक के ऊपर प्रोन्नति नहीं मिल सकती थी। इसके अलावा भारत में ब्रिटिशन शासन के विस्तार के बाद भारतीय सिपाहियों की स्थिति बुरी तरह प्रभावित हुई। उनको अपने घरों से काफी दूर-दूर सेवा देनी पड़ती थी। 1856 में लार्ड कैनिंग ने एक नियम जारी किया जिसके मुताबिक सैनिकों को भारत के बाहर भी सेवा देनी पड़ सकती थी।

 2. जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट ऐक्ट –

1836 ई में जनरल सर्विस  एनलिस्टमेंट ऐक्ट  नाम का एक कानून पास किया गया जिसका आशय था कि उस व्यक्ति को सेना में भर्ती नही किया जाएगा जो प्र्त्येक स्थान में सेवा करने को तैयार नही होगा। इससे उच्च जातियो के सैनिको में रोष फैला, क्योकि वे समुद्र पार जाना अपने धर्म के विरुध्द समझ्ते थे।बंगाल आर्मी में अवध के उच्च समुदाय के लोगों की भर्ती की गई थी। उनकी धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, उनका समुद्र (कालापानी) पार करना वर्जित था। उनलोगों को लार्ड कैनिंग के नियम से शक हुआ कि ब्रिटिश सरकार उनलोगों को किस्चन बनाने पर तुली हुई है। अवध के विलय के बाद नवाब की सेना को भंग कर दिया गया। उनके सिपाही बेरोजगार हो गए और ब्रिटिश हुकूमत के कट्टर दुश्मन बन गए।

तात्कालिक कारण –

  चर्बी वाले  कारतूस-

उसी समय सैनिको को एक विशेष प्रकार के कारतूस दिये गए। जिसमे गाय व सुअर की चर्बी लगी होती थी। जिसको काम में लाने से पहले उसे दांतो से काटना पड़ता था। यही कारण 1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारणों में यह अफवाह थी कि 1853 की राइफल के कारतूस की खोल पर सूअर और गाय की चर्बी लगी हुई है। यह अफवाह हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्म के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही थी। ये राइफलें 1853 के राइफल के जखीरे का हिस्सा थीं।

मंगल पांडे-

29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पांडे नाम के एक सैनिक ने ‘बैरकपुर छावनी’ में अपने अफसरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियन ’34 एन.आई.’ को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड मेरठ में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नए कारतूस लेने से इंकार कर दिया।

 आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुड़सवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। ‘खुला विद्रोह’ 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी ’20 एन.आई.’ में विद्रोह की शुरुआत हुई, उसके बाद ‘3 एल.सी.’ में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियां चलाई। मंगल पांडे ने ‘हियरसे’ को गोली मारी थी, जबकि ‘अफसर बाग’ की हत्या कर दी गई थी। मंगल पांडे को 8 अप्रैल को फांसी दे दी गई। 9 मई को मेरठ में 85 सैनिकों ने नई राइफल इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया जिनको नौ साल जेल की सजा सुनाई गई।

1857 की क्रांति के नायक मंगल पांडे

क्रांति का प्रसार-

—–इस घटना के बाद मेरठ छावनी में विद्रोह की आग भड़क गई। 9 मई को मेरठ विद्रोह 1857 के संग्राम की शुरुआत का प्रतीक था। मेरठ में भारतीय सिपाहियों ने ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या कर दी और जेल को तोड़ दिया। 10 मई को वे दिल्ली के लिए आगे बढ़े।

——11 मई को मेरठ के क्रांतिकारी सैनिकों ने दिल्ली पहुंचकर, 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इन सैनिकों ने मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। शीघ्र ही विद्रोह लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, बनारस, बिहार और झांसी में भी फैल गया। अंग्रेजों ने पंजाब से सेना बुलाकर सबसे पहले दिल्ली पर अधिकार किया। 

—–21 सितंबर, 1857 ई. को दिल्ली पर अंग्रेजों ने पुनः अधिकार कर लिया, परन्तु संघर्ष में ‘जॉन निकोलसन’ मारा गया और लेफ्टिनेंट ‘हडसन’ ने धोखे से बहादुरशाह द्वितीय के दो पुत्रों ‘मिर्ज मुगल’ और ‘मिर्ज ख्वाजा सुल्तान’ एवं एक पोते ‘मिर्जा अबूबक्र’ को गोली मरवा दी। 

——लखनऊ में विद्रोह की शुरुआत 4 जून, 1857 ई. को हुई। यहां के क्रांतिकारी सैनिकों द्वारा ब्रिटिश रेजिडेंसी के घेराव के बाद ब्रिटिश रेजिडेंट ‘हेनरी लॉरेन्स’ की मृत्यु हो गई। हैवलॉक और आउट्रम ने लखनऊ को दबाने का भरकस प्रयत्न किया, लेकिन वे असफल रहे। आखिर में कॉलिन कैंपवेल’ ने गोरखा रेजिमेंट के सहयोग से मार्च, 1858 ई. में शहर पर अधिकार कर लिया। 

 

 

 

 

 

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