मध्य कालीन भारतीय इतिहास जानने के साहित्यिक स्रोत # Source of Medieval Indian History

भूमिका – 

              प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन एवम अध्ययन के स्रोतो  की तुलना में मध्यकालीन भारतीय इतिहास लेखन से सम्बध्द इतिहासकारो ने राजनीतिक घट्नाओ का विस्तारपूर्वक विवरण दिया है। मध्यकालीन भारतीय इतिहास की शुरुआत लगभग 7-8वी शता. से आरम्भ होती है लेकिन अध्ययन सुविधा की दृष्टिकोण से इतिहासकारो ने इसे 1206 ई. से 1739 ई. तक के काल को दिल्ली सल्तनत काल तथा 1526 ई. के बाद 18वी शता. के इतिहास को मुगल काल के अन्तर्गत रखकर अध्ययन करते हैं। प्राचीन भारत के इतिहास के विषय में वैज्ञानिक तथा क्रमबध्द सामग्री का चयन करना इतिहासकारो के लिए एक समस्या रही है,इसका प्रमुख कारण प्रामाणिक प्राचीन एतिहासिक ग्रंथो का अभाव है। 

भारत में अरब आक्रमण एवम इस्लाम लेखक इस्लाम की प्रगति के साथ -साथ दरबारी मामलो में भी रुचि रखते थे ,इसलिए इंके ग्रंथो की विषय सामग्री निष्पक्ष नही कही जा सकती ।इन लेखको हम वैज्ञानिक इतिहास्कारो की श्रेणी में नही रख सकते क्योकि वे केवल तात्कालिक शासको के कार्यकलापो तक ही सीमित थे।अत: इस काल के फारसी तथा अरबी ग्रंथो में राजनैतिक घट्नाओ का वर्णन मात्र है। सभ्यता एवम संस्कृति के विषय न के बराबर हैं। इस काल में हिंदी , संस्कृत एवम स्थानीय भारतीय भाषाओ में भी साहित्य की रचना हुई है।

'; } else { echo "Sorry! You are Blocked from seeing the Ads"; } ?>

पुरातात्विक स्रोत एवम विदेशी यात्रा विवरण से भी इस काल के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।

अध्ययन की सुविधा के दृष्टिकोण से मध्यकालीन भारतीय इतिहास को निम्नलिखित भागो में विभक्त किया जा सकता है-

सल्तनत कालीन साहित्यिक स्रोत-

1. – तहकिकात-ए-हिन्द (किताब-उल-हिन्द)-

        अलबरूनी ने अपने सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘तारीख-उल-हिन्द’ में महमूद के भारत आक्रमण तथा उनके प्रभावों का वर्णन किया है। उसने हिन्दी धर्म, साहित्य तथा विज्ञान का भी सुन्दर वर्णन किया है। इस प्रकार इस ग्रंथ से महमूद के आक्रमणों तथा तत्कालीन सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। सुचारू रूप से इस ग्रंथ को अंग्रेजी में अनुवादित भी किया है।

2.- ताजुल-मासिर-

यह ग्रंथ हसन निजामी ने लिखा था। वह गौरी के साथ भारत आया था। इस ग्रंथ से 1192 ई. से 1218 ई. तक के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। इसमें विभिन्न स्थानों, मेलों व मनोरंजन का भी वर्णन है तथा सल्तनतकालीन सामाजिक व्यवस्था के बारे में जानकारी मिलती है, जो अस्पष्ट है। यू.एन. डे के अनुसार, ‘‘यद्यपि पुस्तक की शैली अत्यधिक कलात्मक और अलंकृत है, पर इसमें वर्णित सामान्य तथ्य साधारणतः सत्य है।’’

 3.- तबकात-ए-नासिरी-

इस ग्रंथ का रचयिता मिनहाज-उस-सिराज है। इसमें गोरी के आक्रमणों से लेकर 1260 ई. तक की प्रमुख राजनीतिक घटनाओं का वर्णन है। लेखक का वर्णन पक्षपातपूर्ण रहा है। उसने गोरी एवं इल्तुमिश के वंशों का निष्पक्ष वर्णन नहीं किया है तथा बलबन की आंख मूंदकर प्रशंसा की गयी है। इसके बाद भी यह ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें घटनाएं क्रमबद्ध रूप से वर्णित की गयी है तथा इनकी तिथियां सत्य हैं। यह गुलाम वंश का इतिहास जानने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। फरिश्ता ने इसे ‘एक अति उच्चकोटि का ग्रंथ’ माना है। एलफिस्टन, स्टेवार्ट तथा मार्ले ने भी इसकी काफी प्रशंसा की है। रेवर्टी ने इसे अंग्रेजी में अनुवादित किया है।

4 .- चचनामा-

यह अरबी भाषा में लिपिबद्ध है। इससे मुहम्मद-बिन-कासिम से पहले तथा बाद के सिन्ध के इतिहास का ज्ञान होता है। इसका फारसी भाषा में भी अनुवाद किया गया है। इसके लेखक अली अहमद हैं।

5.- अमीर खुसरों के ग्रंथ-

अमीर खुसरो मध्यकालीन भारत के बहुत बड़े विद्वान थे। उनका पूरा नाम अबुल हसन यामिन उद्-दीन खुसरो था। वह छह सुल्तानों के दरबार में रहे थे। उसने बलबन से लेकर मुहम्मद तुगलक तक का इतिहास लिखा है। उसने युद्ध में भी भाग लिया था। उसके ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से अमूल्य हैं, जो इस प्रकार हैं-

 किरानुस्सादेन

अमीर खुसरो ने 1289 ई. में लिखी। इस पुस्तक में कैकुबाद तथा बुगरा खां की भेंट का वर्णन किया है। इससे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इससे दिल्ली नगर की स्थिति, मुख्य भवन, दरबार का ऐश्वर्य, मद्यपान गोष्ठियों, संगीत तथा नृत्य के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है तथा कैकुबाद व बुगरा खां के चरित्र पर भी प्रकाश पड़ता है।

 मिफता-उल-फुतूह

1291 ई. में रचित यह पुस्तक अमीर खुसरो के तीसरे दीवान ‘गुर्रतुल कमाल’ का भाग है। यह साधारण शैली में लिखी गयी है। इसमें जलालुद्दीन की आरंभिक सफलताओं का वर्णन है।

 आशिका

इस ग्रंथ में खुसरो ने अलाउद्दीन के पुत्र खिज्र खां तथा गुजरात नरेश कर्ण की पुत्री देवल रानी की प्रेमकथा तथा विवाह का वर्णन किया है। इसमें खिज्र खां की हत्या, अलाउद्दीन की बीमारी एवं मलिक काफूर की विजयों का भी वर्णन है। इसमें खुसरो ने यह भी बताया है कि वह मंगोलों द्वारा किस प्रकार बंदी बनाया गया।

 खजाइनुल फुतूह अथवा तारीख-ए-अलाई

खुसरो ने यह ग्रंथ 1311 ई. में लिखा। ‘‘तारीख-ए-अलाई एक गद्यात्मक रचना है, जिसे ‘खजाइनुल फुतूह’ भी कहा जाता है। इस ग्रंथ में कृत्रिमता काफी है, लेकिन जो ठोस जानकारी उपलब्ध है, उसे देखते हुए हम कृत्रिमता को क्षमा कर सकते हैं।’’

 इस ग्रंथ में खुसरो ने अलाउद्दीन की 15 वर्ष की विजयों एवं आर्थिक सुधारों का वर्णन किया है। लेखक के वर्णन में पक्षपात की भावना दिखाई देती है। उसने अलाउद्दीन के सिर्फ गुणों पर प्रकाश डाला है, दोषों पर नहीं। उसने अलाउद्दीन के राज्यारोहण का वर्णन किया है, किन्तु जलालुद्दीन के वध का कोई उल्लेख नहीं किया है। इसके बाद भी यह महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ है तथा तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशा की जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

 तुगलकनामा

यह खुसरो की अंतिम ऐतिहासिक कविता है। इसमें खुसरो खां के शासनकाल एवं पतन का तथा तुगलक वंश की स्थापना का वर्णन है।

 6.- जियाउद्दीन बरनी के ग्रंथ-

जियाउद्दीन बरनी के प्रमुख ऐतिहासिक ग्रंथ निम्न हैं-

 तारीख-ए-फीरोजशाही-

बरनी ने इस ग्रंथ में खिलजी तथा तुगलक वंश का आंखों देखा वर्णन लिखा है। इस ग्रंथ के बारे में उसने लिखा है, ‘‘यह एक ठोस रचना है, जिसमें अनेक गुण सम्मिलित हैं। जो इसे इतिहास समझकर पढ़ेगा, उसे राजाओं और के अलावा सामाजिक, आर्थिक एवं न्यायिक सुधारों का भी वर्णन किया है। इसमें कवियों, दार्शनिकों तथा संतों की लम्बी सूची दी गयी है। बरनी ने जलालुद्दीन तथा अलाउद्दीन के पतन के कारणों का भी वर्णन किया है। बरनी इतिहास की विकृत करने के विरूद्ध था। डॉ॰ ईश्वरीप्रसाद के अनुसार, ‘‘मध्यकालीन इतिहासकारों में बरनी ही अकेला ऐसा व्यक्ति है, जो सत्य पर जोर देता है और चाटुकारिता तथा मिथ्या वर्णन से घृणा करता है।’’ इसके बाद भी इस ग्रंथ में तिथि सम्बन्धी दोष तथा धार्मिक पक्षपात देखने को मिलता है, किन्तु यह अमूल्य ऐतिहासिक कृति है। यू.एन. डे के अनुसार, ‘‘अपने दोषों के बाद भी यह पुस्तक तत्कालीन संस्थाओं के अध् ययन का मुख्य स्रोत है।’’

फतवा-ए-जहांदारी-

बरनी ने उच्च वर्ग का मार्गदर्शन करने हेतु एवं फीरोज के समक्ष आदर्श उपस्थित करने हेतु इस ग्रंथ की रचना की। इस पुस्तक में शरीयत के अनुसार सरकार के कानूनी पक्ष का वर्णन है। इसमें मुस्लिम शासकों के लिए आदर्श राजनीतिक संहिता का वर्णन है। बरनी ने महमूद गजनवी को आदर्श मुस्लिम शासक माना है तथा मुसलमान सुल्तानों को उसका अनुकरण करने के लिए कहा है। बरनी कट्टर मुसलमान था, अतः उसने काफिरों का विनाश करने वाले को आदर्श मुस्लिम शासक माना है। उसने आदर्श शासन के लिए कुशल शासन प्रबंध भी आवश्यक बताया है। यदि बरनी के आदर्श शासक सम्बन्धी विचारों में से उसकी धर्मान्धता को निकाल दिया जाये, तो यह शासन प्रबंध में आदर्श सिद्ध हो सकते हैं।

 वस्तुतः बरनी की कृतियां ऐतिहासिक दृष्टि से अमूल्य हैं तथा ये बाद के इतिहासकारों के लिए प्रेरक रही हैं। इलियट एवं डाउसन ने ‘भारत का इतिहास’ (तृतीय खण्ड) में बरनी के कई उद्धरण दिये हैं तथा डॉ॰ रिजवी ने उसकी कृति ‘तारीख-ए-फीरोजशाही’ का हिन्दी अनुवाद किया है।

7.-  तारीख-ए-फीरोजशाह- 

इस ग्रंथ का रचयिता शम्स-ए-सिराज अफीफ था। वह दीवाने वजारत में कार्यरत था। वह सुल्तान के काफी नजदीक था। जहां बरनी की तारीख-ए-फीरोजशाही समाप्त होती है, वहीं अफीफ की तारीख-ए- फीरोजशाही शुरू होती है। इसमें उसे फीरोज तुगलक का 1357 ई. से 1388 ई. तक का इतिहास लिखा है। यह ग्रंथ 90 अध्यायों में बंटा हुआ है। इसमें फीरोज के चरित्र, अभियान, शासन प्रबन्ध, धार्मिक नीति तथा उसके दरबारियों का विस्तृत वर्णन है। यह ग्रंथ पक्षपातपूर्ण है, क्योंकि उसने फीरोज की अत्यधिक प्रशंसा की है। इसके बावजूद यह हमारी जानकारी का मुख्य स्रोत है। अफीफ के इस ग्रंथ से राजनीतिक घटनाओं के अलावा सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति के बारे में भी जानकारी मिलती है। यह कृति बाद के इतिहासकारों के लिये प्रेरक रही है। डॉ॰ ईश्वरीप्रसाद के अनुसार, ‘‘अफीस में बरनी जैसी न तो बौद्धिक उपलब्धि है और न ही इतिहासकारों की योग्यता, सूझबूझ तथा पैनी दृष्टि ही। अफीफ एक घटना को तिथिक्रम से लिखने वाला सामान्य इतिहासकार है, जिसने प्रशंसात्मक दृष्टि से अपने विचार व्यक्त किये हैं। वह अत्यन्त अतिश्योक्तिपूर्ण शैली में सुल्तान की प्रशंसा करता है। उसमें इतनी अतिश्योक्ति है कि फीरोज के सत्कार्यों के वर्णन को पढ़कर सर हेनरी इलियट ने उसकी तुलना अकबर से कर डाली है।’’

 8. – फुतुहात-ए-फीरोजशाही-

इस ग्रंथ का रचयिता फीरोज तुगलक स्वयं था। इससे उसके शासन प्रबन्ध तथा धार्मिक नीति की जानकारी मिलती है।

9. -किताब-उल-रेहला-

यह ग्रंथ मोरक्को के यात्री इब्नबतूता ने लिखा है। यह उसका यात्रा-वृत्तांत है, जो अरबी भाषा में रचित है। इस ग्रंथ में उसने मुहम्मद तुगलक के दरबार, उसके नियम, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, दास प्रथा एवं स्त्रियों की दशा का सुन्दर वर्णन किया है। उसका वर्णन पक्षपात की भावना से मुक्त है।

मुगल कालीन साहित्यिक स्रोत –

तुजुक-ए-बाबरी-

            बाबर की आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी अथवा बाबरनामा अथवा बाबर के संस्मरण आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। बाबर ने इसे चगताई तुर्की भाषा में लिखा। इस ग्रंथ से बाबर के शासनकाल तथा उसके जीवन के सम्बन्ध में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। बाबरनामा का फारसी भाषा में अनुवाद 1589 ई. में अब्दुर्रहीम खानखाना ने अकबर के आदेश पर किया था। श्रीमती बैवरिज ने इसका सुन्दर अंग्रेजी अनुवाद किया है। डॉ॰ मथुरालाल शर्मा ने इसका हिन्दी में संक्षिप्त अनुवाद किया है। संसार में बहुत कम ग्रंथों को बाबरनामा के समान प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। बाबर दिन-भर थका देने वाली यात्राओं के बाद भी इसे लिखता था। यह अमूल्य ऐतिहासिक ग्रंथ है। लेनपूल के अनुसार, ‘‘तुजुक-ए-बाबरी ही केवल एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें दी गयी सामग्री की पुष्टि के लिए अन्य प्रमाणों की विशेष आवश्यकता नहीं है।’’ बाबरनामा से बाबर की विजयों, चरित्र, कार्यों एवं सफलताओं के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है।

 इस ग्रंथ में भारत की राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति के बारे में सुन्दर वर्णन मिलता है। प्रकृति-प्रेमी होने के कारण बाबर ने इसमें तत्कालीन फल-फूल, भोजन, रहन-सहन का स्तर, नदी-नालों आदि के सम्बन्ध में भी विस्तृत वर्णन किया है। इस ग्रंथ से भारत तथा मध्य एशिया के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

 हुमायूंनामा –

         इसे बाबर की पुत्री तथा हुमायूं की बहन गुलबदन बेगम ने दो भागों में लिखा है। प्रथम भाग में बाबर की दशा द्वितीय में हुमायूं का इतिहास है। इस ग्रंथ से हुमायूं के शासनकाल के इतिहास की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। मिसेज बैवरीज ने इस ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद किया है। बैवरिज के अनुसार, ‘‘हिन्दुस्तान के मुगलकाल का जिन लोगों ने इतिहास लिखा है, उन्हें साधारणतः इस बात का ज्ञान नहीं कि गुलबदन बेगम ने भी किसी ग्रंथ की रचना की। इसका ज्ञान मिस्टर अर्सकिन को भी न रहा होगा, अन्यथा वह बाबर एवं हुमायूं के वंश का इतिहास अधिक शुद्ध रूप से लिखते।’’ रशब्रुक विलियम के अनुसार, ‘‘यह ग्रंथ पक्षपात से भरा हुआ है फिर भी, लेखिका ने इसमें अपने पिता की कुछ निजी स्मृतियां दी है।’’ इस ग्रंथ की एक प्रति ब्रिटिश म्युजियम में सुरक्षित है।

 तबकात-ए-अकबरी-

           यह ग्रंथ अकबरशाही अथवा ‘तारीखे निजामी’ भी कहलाता है। निजामुद्दीन अहमद ने अकबर के समय के 27 ग्रंथों को आधार बनाकर इसे लिखा था। यह ग्रंथ नौ भागों में विभक्त है। इसके दूसरे भाग में बाबर, हुमायूं व अकबर का इतिहास है, जबकि तीसरे भाग में प्रान्तीय राज्यों का इतिहास है।

 तारीख-ए-शेरशाही-

             यह ग्रंथ अब्बास खां शेरवानी ने अकबर की आज्ञा से लिखा था। उसने इसका नाम ‘तोहफत-ए-अकबरशाही’ रखा था, किन्तु कुछ वर्षों बाद अहमद यादगार ने ‘तारीख-ए-सलातीन-ए-अफगान’ नामक ग्रंथ लिखा, उसने इस पुस्तक को ‘तारीख-ए-शेरशाही’ के नाम से संबोधित किया तथा वह इसी नाम से प्रसिद्ध है।

 इतिहासकारों ने तारीख-ए-शेरशाही को आधार बनाकर ही शेरशाह का इतिहास लिखा है। डॉ॰ निगम के अनुसार, ‘‘अब्बास खां ने अनेक घटनाओं से सम्बन्धित अपने सूचना स्रोतों का भी उल्लेख किया है। अतः इस पुस्तक के तथ्यों में कोई संदेह नहीं है। बड़ी-बड़ी घटनाओं की पुष्टि हुमायूं से सम्बन्धित अन्य इतिहासों से भी होती है। शेरशाह का सम्पूर्ण विवरण जितना विस्तारपूर्वक इस ग्रंथ में मिलता है, उतना किसी अन्य में नहीं।’’ अब्बास खां ने इस ग्रंथ को बड़ी बुद्धिमत्ता तथा सावधानी से लिखा है। उसने लिखा है कि, ‘‘जो कुछ इन विश्वसनीय पठानों के मुख से, जो साहित्य तथा इतिहास में निपुण थे और उनके राज्य के प्रारम्भ से अंत तक उनके साथ थे तथा विशेष सेवा के कारण विभूषित एवं सम्मानित थे, सुना था। अन्य मनुष्यों से जो कुछ छानबीन कर प्राप्त किया था, उसको मैंने लिखा। जो कुछ उनके विरूद्ध सुना था और जांच की कसौटी पर नहीं उतरा था, उसे त्याग दिया।’’

 इस ग्रंथ से शेरशाह के शासनकाल का विस्तृत इतिहास पता चलता है। इस ग्रंथ से शेरशाह के शासन- सुधारों, फरीद के जागीर-प्रबंध की बाबर से मुलाकात, हुमायूं से संघर्ष एवं हुमायूं की असफलता के कारणों का वर्णन है। अब्बास खां ने शेरशाह की राजस्व-प्रणाली, सैन्य-संगठन तथा न्याय-प्रबंध पर अच्छा प्रकाश डाला है तथा उसे जन हितैषी शासक बताया है।

 इस ग्रंथ की बड़ी त्रुटि यह है कि इसमें घटनाओं की तिथियां नहीं दी गई हैं। इसके बाद भी यह अमूल्य ऐतिहासिक ग्रंथ है। इलियट तथा डाउसन ने उसके विवरण को भारत का इतिहास (चतुर्थ भाग) में व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया है।

 अकबरनामा-

             यह ग्रंथ अकबर के वजीर अबुल फजल ने लिखा था। वह 1575 ई. के लगभग अकबर के सम्पर्क में आया एवं उसका विश्वासपात्र बन गया। 1602 ई. में सलीम ने वीरसिंह बुन्देला द्वारा उसकी हत्या करवा दी। अबुल फजल बहुत बड़ा विद्वान था। अबुल फजल का ‘अकबरनामा’ तीन जिल्दों में है। प्रथम जिल्द में अकबर के पूर्वजों, उसके आरंभिक जीवन एवं उसके शासनकाल के 17 वर्ष तक का वर्णन है। द्वितीय जिल्द में 17 से 46वें वर्ष तक का इतिहास है। तीसरी जिल्द आइने-अकबरी है, जो पृथक ग्रंथ माना जाता है।

 अबुल फजल ने अकबर की अत्यधिक प्रशंसा की है। उसके ग्रंथ से तत्कालीन राजनीतिक घटनाओं के साथ सांस्कृतिक दशा का भी पता चलता है। उसने प्रत्येक महत्त्वपूर्ण घटना से पहले उसकी प्रस्तावना लिखी है। उसके विवरण से तत्कालीन धार्मिक स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है। वह अकबर की धार्मिक उदारता से अत्यधिक प्रभावित था। अतः उसने अकबर को ‘इंसाने-कामिल’ एवं ‘देवी प्रकाश’ की संज्ञा दी है। उसने अकबर की अत्यधिक प्रशंसा की है। अतः यह ग्रंथ निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता। इस ग्रंथ की भाषा जटिल, आडम्बरपूर्ण एवं अलंकारिक है, किन्तु फिर भी यह अमूल्य ऐतिहासिक ग्रंथ है। एच.बैवरिज ने इस ग्रंथ का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। सैय्यद अतहर अब्बास रिजवी तथा डॉ॰ मथुरालाल शर्मा ने भी इसका अनुवाद दिया है। इलियट तथा डाउसन ने भारत का इतिहास (छठा भाग) में इसका अनुवाद दिया है।

 आईने-अकबरी-

यद्यपि यह अकबरनामा का तृतीय भाग है, तथापि इसे पृथक् ग्रंथ माना जाता है। इसमें अकबर के शासनकाल से सम्बन्धित आंकड़े तथा शासन-व्यवस्था सम्बन्धी अन्य नियमों का विस्तृत वर्णन है। अबुल फजल के इस ग्रंथ का ब्लोचमेन तथा गैरेट ने अंग्रेजी अनुवाद किया है। इससे तत्कालीन समय की राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा आर्थिक स्थिति के बारे में विश्वसनीय जानकारी मिलती है।

 आईने-अकबरी के बारे में डॉ॰ अवधबिहारी पाण्डेय ने लिखा है, ‘‘एशिया अथवा यूरोप में कहीं भी ऐसी पुस्तक की रचना नहीं हुई है।’’ जे.एन. सरकार के अनुसार, ‘‘भारत में यह अपनी कोटि का प्रथम ग्रंथ है और इसकी रचना उस समय हुई थी, जिस समय नवनिर्मित मुगल शासन अर्द्ध-तरलावस्था में था।’’ के.एम. अशरफ ने लिखा है, ‘‘आईने अकबरी सामाजिक इतिहास का प्रतीक है।’’ ब्लोचमेन के अनुसार, ‘‘यह भिन्न-भिन्न प्रकार के अध्ययन का खजाना है।’’

 मुन्तखाब-उत-तवारीख-

           इस ग्रंथ का लेखक अब्दुल कादिर बदायूंनी था। वह अकबर के दरबार में इमाम था। बदायूंनी अरबी, फारसी एवं संस्कृत भाषा का पूर्ण ज्ञाता था। बदायूंनी एक कट्टर मुसलमान था, अतः उसने अकबर की उदार धार्मिक नीति की आलोचना की। उसने सम्राट के प्रशंसक अबुल फजल को चापलूस की संज्ञा दी। बदायूंनी ने अकबर की अतिश्योतिक्तपूर्ण आलोचना की। मुन्तखाब-उत-तवारीख तीन भागों में विभक्त है। पहले भाग में सुबुक्तगीन से हुमायूं तक का इतिहास है। दूसरे भाग में अकबर के शासनकाल की 1595-96 ई. तक की घटनाओं का वर्णन है। तीसरे भाग में तत्कालीन सूफियों, विद्वानों, हकीमों एवं कवियों की जीवनियां हैं। यह ग्रंथ ‘तारीखे-मुबारकशाही’ तथा ‘तबकाते अकबरी’ को आधार बनाकर लिखा गया है। इसका महत्त्व इसलिए है, क्योंकि इससे अकबर के शासनकाल के दूसरे पहलू का ज्ञान होता है।

 तुजुक-ए-जहांगीरी-

           इसका रचयिता स्वयं जहांगीर था। इसे ‘इकबालनामा’, ‘तारीख-ए-सलीमशाही’ अथवा ‘जहांगीरनामा’ भी कहा जाता है। इसमें जहांगीर के आरंभिक 17 वर्षों के शासन की घटनाओं का वर्णन है। उसकी बीमारी के कारण मोतमिद खां ने इसे पूरा किया। इस ग्रंथ में हमें राजनीतिक घटनाओं के साथ-साथ तत्कालीन संगीत, साहित्य, चित्रकला तथा ललितकला के सम्बन्ध में भी जानकारी मिलती है। यह ग्रंथ जहांगीर के शासनकाल के इतिहास की जानकारी का मूल्यवान तथा विश्वसनीय स्रोत है।

 नुश्खा-ए-दिलकुशा-

                इस ग्रंथ की रचना कायस्थ जाति के भीमसेन ने फारसी भाषा में की। वह औरंगजेब की सेना में क्लर्क था। उसने उसकी सेना के साथ कई युद्धों में भाग लिया था। मुगल सेना द्वारा पनहाला का दुर्ग घेरे जाने पर उसने सैनिक सेवा छोड़ दी तथा इस ग्रंथ की रचना शुरू की। इस ग्रंथ में वर्णित घटनाएं सत्य हैं। लेखक ने ऐतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र का यथार्थता में चित्रण किया है। इस ग्रंथ में चापलूसी देखने को नहीं मिलती। अतः जे.एन. सरकार ने उसे महान संस्मरण लेखक माना है।

 

        

     

 

 
Share with friends !

Leave a Reply

error: Content is protected !!