भारत का संवैधानिक विकास/Constitutional Development Of India

भारत का संवैधानिक विकास

Constitutional Development Of India

        (1773 ई. से 1947 ई. तक)

'; } else { echo "Sorry! You are Blocked from seeing the Ads"; } ?>

भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना का कार्य प्लासी युद्ध से आरंभ हुआ। बक्सर की विजय अर्थात 1764 के उपरांत की गई इलाहाबाद की संधि ने उन्हें बंगाल के शासन में भागीदार बना दिया, तत्पश्चात 1772 में द्वैध शासन को समाप्त कर ब्रिटिश कंपनी बंगाल की शासक बन गई और उसके बाद 1773 में ब्रिटिश संसद ने यह आवश्यक समझा कि एक कानून बनाकर भारत में अंग्रेजी शासन को व्यवस्थित किया जाए। इस तरह व्यावहारिक तौर पर भारत के संवैधानिक विकास का इतिहास रेगुलेटिंग एक्ट के तहत आरंभ होता है। 1773 से 1858 ई तक का यह विकास संसद द्वारा पारित कानून तथा सम्राट अथवा साम्राज्ञी द्वारा प्रदत चार्टर एक्ट के माध्यम से होता रहा। उसके पश्चात द्वितीय चरण 1858 से लेकर 1947 तक का ब्रिटिश शासन के द्वारा संवैधानिक रूप से विकास होता रहा, जिसका निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर विवेचन किया गया है। भारत में संवैधानिक विकास के अंतर्गत हम प्रमुख चार्टर एक्ट एवं उसके प्रमुख प्रावधानों की चर्चा करेंगे।

 1. रेगुलेटिंग एक्ट 1773-

प्रावधान-

1. बंगाल के गवर्नर को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया तथा मद्रास और मुंबई के गवर्नर उसके अधीन कर दिए गए

 2. गवर्नर जनरल की सहायता के लिए 4 सदस्यों की एक परिषद नियुक्त की गई जिसमें निर्णय बहुमत से होता था गवर्नर जनरल केवल उसी समय निर्णायक मत दे सकता था जब परिषद के सदस्यों के बराबर संख्या में विभाजित हो जाएं अन्य सदस्य  फ्रांसिस, क्लेवरिंग, मैनसन व बारवैल थे।

3. कोलकाता में एक उच्च न्यायालय की स्थापना की।

4. प्रोपराइटर की मत देने की योग्यता 500 पौंड से बढ़ाकर 1000 पौंड कर दी गई तथा मत देने का अधिकार केवल उन्हीं को दिया गया जो इस धनराशि को कम से कम 1 वर्ष तक जमा रख सकते थे।

5. डायरेक्टर 4 वर्ष के लिए चुने जाएंगे जिनमें से एक चौथाई सदस्य प्रत्येक वर्ग त्यागपत्र देते रहेंगे और कम से कम अगले 1 वर्ष तक डायरेक्टर नहीं बनेंगे। डायरेक्टरों को कंपनी की धन संबंधी रिपोर्ट ब्रिटिश अर्थमंत्री को तथा सैनिक और राजनीतिक कार्यों की रिपोर्ट अंग्रेज विदेश मंत्री को देनी होगी।

       उपरोक्त पांच बिंदुओं के आधार पर रेगुलेटिंग एक्ट 1773 ई का प्रावधान ब्रिटिश भारत में रखा गया जो कि भारत में संवैधानिक विकास का प्रथम चरण माना जाता है।

2. पिट्स इंडिया एक्ट 1784 ई-

 प्रावधान –

1. भारत में कंपनी के शासन की देखभाल के लिए 6 सदस्यों की एक अधिकार सभा स्थापित की गई जिससे बोर्ड ऑफ कंट्रोल के नाम से जाना जाता है। इसके सदस्यों की नियुक्ति और पदच्युति का अधिकार ब्रिटेन के राजा कौन था ब्रिटेन का अर्थ मंत्री तथा विदेश मंत्री इसके सदस्य थे।

2. कंपनी के डायरेक्टर को कि एक गुप्त सभा बनाई गई जो अधिकार सभा के आदेशों को भारत भेजती थी।  कंपनी के प्रोपराइटरों को डायरेक्टरों की उन आदेशों को स्थगित करने का अधिकार ना रहा, जिन्हें अधिकार सभा स्वीकृत कर चुकी होती थी।

3. भारत के गवर्नर जनरल की परिषद के सदस्यों की संख्या 4 से घटाकर  3  कर दी गई। मद्रास और मुंबई के गवर्नर पूर्णता गवर्नर जनरल के अधीन कर दिए गए।

3. 1793 ई का आदेश पत्र-

प्रावधान-

1. इस आदेश पत्र द्वारा विशेष परिस्थितियों में गवर्नर को भी अपनी परिषदों की राय के विरुद्ध काम करने का अधिकार दिया गया तथा कंपनी का अगले 20 वर्षों के लिए पूर्वी देशों से व्यापार करने का एक आधिपत्य सुरक्षित हो गया।

4.   1813 ईस्वी का आदेश पत्र- 

प्रावधान –

1.यह निश्चित कर दिया गया कि भारतीय अंग्रेजी राज्य की संप्रभुता ब्रिटेन के सम्राट में निहित है।

2.  भारत से व्यापार करने का कंपनी का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और सभी अंग्रेज व्यापारियों को भारत से व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई।

3. कंपनी का चीन से अफीम और चाय के व्यापार का एक आधिपत्य सुरक्षित रहा ।

4. ईसाई धर्म प्रचारकों को आज्ञा प्राप्त करके भारत में धर्म प्रचार के लिए आने की सुविधा प्राप्त हो गई।

5. कंपनी की आय में से भारतीयों की शिक्षा के लिए प्रति वर्ष ₹100000(एक लाख)   व्यय करने की व्यवस्था की गई।

5.    1833 ई का आदेश पत्र-

प्रावधान-

1. चीन से व्यापार करने का कंपनी का एकाधिपत्य समाप्त कर दिया ।

2. गया गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को संपूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया जिससे प्रांतों के हाथों से विधि निर्माण की शक्ति जाती रही।

3. गवर्नर जनरल की परिषद अर्थात काउंसिल में एक चौथा सदस्य विधि विशेषज्ञ के रूप में बढ़ा दिया गया ।

4.अंग्रेजों को भारत में भूमि खरीदने का अधिकार दिया गया।

5. यह घोषणा की गई कि सरकारी सेवाओं में प्रत्येक व्यक्ति योग्यता अनुसार स्थान प्राप्त कर सकेगा।

6. आगरा व पश्चिमी अवध को सम्मिलित करके एक नवीन प्रांत उत्तर पश्चिम प्रांत की स्थापना की गई।

7. इस आदेश पत्र द्वारा केंद्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाया गया तथा अंग्रेजों को भारत आने और यहां बसने की आज्ञा प्रदान की गई ।

8.दास प्रथा पर पाबंदी लगी।

6. 1853 ई का आदेश पत्र- 

प्रावधान- 

1. ब्रिटिश संसद को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह किसी भी समय अपनी इच्छा अनुसार कंपनी से भारत का शासन अपने हाथों में ले सकता है ।

2.कंपनी के डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई जिनमें से 6 की नियुक्ति ब्रिटेन के राजा अर्थात crownद्वारा होती थी।  गवर्नर जनरल और गवर्नरों की  परिषद या काउंसिल के सदस्यों की नियुक्ति भी बिना ब्रिटिश क्राउन की  सहमति के नहीं हो सकती थी।

3. सरकारी सेवाओं के लिए परीक्षा की व्यवस्था की गई।

4.  बंगाल के लिए प्रथक लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति की गई थी ।

5. गवर्नर जनरल की परिषद या काउंसिल में कानून निर्माण में सहायता देने के लिए कुछ नवीन सदस्यों की नियुक्ति की गई यद्यपि गवर्नर जनरल उन सभी की राय को ठुकराने का अधिकार रखता था।

7 .  1858 ई का एक्ट-

प्रमुख प्रावधान-

1. इस एक्ट के द्वारा भारत का शासन ब्रिटेन की संसद को दे दिया गया ।

2. डायरेक्टरों की सभा (कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर) और अधिकार सभा अर्थात (बोर्ड ऑफ कंट्रोल )को समाप्त कर दिया गया तथा उसके समस्त अधिकार भारत सचिव अर्थात (सेक्रेट्री आफ स्टेट फॉर इंडिया) को दे दिए गए । भारत सचिव अनिवार्यत: ब्रिटिश संसद और ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होता था।

3. भारत -सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक सभा भारत परिषद अर्थात (इंडिया काउंसिल) की स्थापना की गई। इसके साथ सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार ब्रिटेन के क्राउन को तथा शेष सदस्यों के चयन का अधिकार कंपनी के डायरेक्टरों को दिया गया । परंतु प्रत्येक स्थिति में यह आवश्यक था कि इसके आधे सदस्य ऐसे हैं जो कम से कम 10 वर्ष तक भारत में सेवा कार्य कर चुके हैं । शासन के इस भाग को भारत सचिव और भारत परिषद को सम्मिलित करके ग्रह सरकार अर्थात (होम गवर्नमेंट ) का नाम दिया गया।

4. अर्थव्यवस्था और अखिल भारतीय सेवाओं के विषय में भारत सचिव भारत परिषद की राय को मानने के लिए बाध्य था। अन्य सभी विषयों पर वह उसकी राय को ठुकरा सकता था। उसे अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ती थी।

5. भारतीय गवर्नर जनरल को भारत सचिव की आज्ञा अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया गया गवर्नर जनरल भारत में ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने लगा और इस कारण उसे वायसराय(Viceroy) भी कहा गया।

6. इस कानून ने भारत के शासन में कोई परिवर्तन नहीं किया इसके द्वारा केवल ग्रह शासन में परिवर्तन किए गए थे। थोड़े समय पश्चात 1858 ईस्वी में ही महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणा (क्वीन प्रोक्लेमेशन ) की, जिसके द्वारा भारतीय नरेशों और नागरिकों को उनके सम्मान, सुरक्षा, धर्म और सरकारी सेवाओं आदि के विषय में आश्वासन दिया गया।

8. महारानी विक्टोरिया की घोषणा- 

( नवंबर 1858 ईसवी)-

प्रमुख प्रावधान-

1. इसके द्वारा घोषित किया गया कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा प्रशासित क्षेत्रों का शासन अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन के क्राउन द्वारा किया जाएगा।

2.  इसके द्वारा गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को वायसराय अर्थात क्राउन प्रतिनिधित्व का पद भी प्रदान किया गया।

3.  इस घोषणापत्र के द्वारा कंपनी के सभी सैनिक और सैनिक पदाधिकारियों को ब्रिटिश क्रॉउन की सेवा में ले लिया गया तथा उनके संबंध में बने हुए सभी नियमों को स्वीकार किया गया।

4. इस घोषणा पत्र के द्वारा भारतीय नरेश ओ के साथ कंपनी द्वारा की गई सभी संधियों और समझौतों को ब्रिटिश क्रॉउन के द्वारा यथावत शिकार कर लिया गया । भारतीय राजाओं को बच्चा गोद लेने का अधिकार दिया गया तथा उन्हें यह आश्वासन भी दिया गया कि ब्रिटिश क्रॉउन अब भारत में राज्य विस्तार की आकांक्षा नहीं करता और भारतीय नरेशो के अधिकारों, गौरव एवं सम्मान का उतना ही आदर करेगा जितना कि वह स्वयं का करता है ।

5.इसके द्वारा महारानी विक्टोरिया ने अपनी भारतीय प्रजा को आश्वासन दिया कि उनके धार्मिक विश्वासों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा बल्कि उनके प्राचीन विश्वासों, आस्थाओं और परंपराओं का सम्मान किया जाएगा।

6. इस घोषणापत्र के द्वारा भारतीयों को जाति तथा धर्म के भेदभाव के बिना उनकी योग्यता, शिक्षा, निष्ठा और क्षमता के आधार पर सरकारी पदों पर नियुक्त किए जाने का समान अवसर प्रदान करने का आश्वासन दिया गया।

7. इस पत्र के द्वारा यह भी आश्वासन दिया गया कि रानी की सरकार सार्वजनिक भलाई लाभ और उन्नति के प्रयत्न करेगी तथा शासन इस प्रकार चलाएगी जिससे उसकी समस्त प्रजा का हित साधन हो।

8  1857 ई के विद्रोह में भाग लेने वाले अपराधियों में से केवल उनको छोड़कर जिन पर अंग्रेजों की हत्या का आरोप था बाकी सभी को क्षमा प्रदान कर दी जाएगी।

9. 1861 ई  का भारतीय काउसिल एक्ट-

प्रमुख प्रावधान- 

1. गवर्नर जनरल को अपनी परिषद अर्थात काउंसिल में 6 से 12 तक सदस्यों की वृद्धि करने का अधिकार दिया गया। यह सदस्य उसे कानून निर्माण में सहायता करने के लिए थे। इनमें से कम से कम आदि सदस्यों का गैर सरकारी होना आवश्यक था और इनका कार्यकाल 2 वर्ष था इन सदस्यों को कार्यपालिका पर नियंत्रण रखने का कोई अधिकार नहीं था। गवर्नर जनरल को इनकी राय को ठुकराने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था ।

2. गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में 15 वे सदस्य अर्थमंत्री की नियुक्ति की गई ।

3.गवर्नर जनरल को आवश्यकता पड़ने पर अध्यादेश अर्थात ऑर्डिनेंस जारी करने का अधिकार दिया गया। जो व्यवस्थापिका सभा या भारत सचिव द्वारा समाप्त ना किए जाने की दशा में 6 माह तक लागू रह सकता था।

4.  प्रांतों को स्थानीय प्रांतीय विषयों के संबंध में कानून निर्माण का अधिकार दिया गया और इस कार्य के लिए गवर्नर को अधिकार दिया गया कि वह अपनी परिषद में चार से आठ सदस्यों तक की नियुक्ति कर सकता है । परंतु इनमें से कम से कम आधे सदस्यों का गैर सरकारी होना आवश्यक था । प्रांतों द्वारा पारित प्रत्येक कानून पर गवर्नर जनरल की स्वीकृति आवश्यक थी।

10. 1892 ई का भारतीय काउंसिल  एक्ट- 

प्रमुख प्रावधान- 

1. केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों की संख्या कम से कम 10 और अधिक से अधिक 16 निश्चित की गई इनमें से 10 सदस्यों का गैर सरकारी होना आवश्यक था।

2. प्रांतों में भी व्यवस्थापिका सभा के गैर सरकारी तथा कुल सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गई । उत्तर प्रदेश में यह संख्या 15 और मुंबई व मद्रास में 20 निश्चित की गई ।

3. उस समय तक व्यवस्थापिका प्रभाव के सभी सदस्य गवर्नर जनरल और गवर्नर के द्वारा नियुक्त किए जाते थे । क्योंकि भारत में निर्वाचन पद्धति आरंभ नहीं हुई थी । परंतु इस एक्ट के द्वारा इन सदस्यों की नियुक्ति कुछ प्रभावशाली संस्थाओं जैसे कोलकाता चेंबर ऑफ कॉमर्स या केंद्र में प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के गैर सरकारी सदस्यों की सलाह से किए जाने की व्यवस्था की गई।

4.  व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों को वार्षिक बजट के आर्थिक प्रस्ताव पर बहस करने का अधिकार दिया गया। यद्यपि वे उन पर मतदान नहीं कर सकते थे। सार्वजनिक प्रश्नों के विषय में इन्हें कार्यकारिणी के सदस्यों से प्रश्न पूछने का अधिकार प्राप्त हुआ यद्यपि इसके लिए उन्हें 6 दिन पूर्व सूचना देनी पड़ती थी।

11. भारतीय कौंसिल एक्ट 1909 ई –

प्रमुख प्रावधान-

1.  केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई प्रांतों में भी व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई यथा बंगाल मद्रास और मुंबई में 50 सदस्य तथा अन्य प्रांत में 30 सदस्य।

2.  इस एक्ट के अनुसार व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्य चार प्रकार के होने लगे-

 1;  पदेन सदस्य अर्थात एक्स ऑफिशियो मेंबर जैसे केंद्र में गवर्नर जनरल और उनकी कार्यकारिणी के सदस्य तथा प्रांतों में गवर्नर और उनकी कार्यकारिणी के सदस्य।

 2; मनोनीत सरकारी अधिकारी अर्थात नॉमिनेटेड ऑफिशियल।

 3;  मनोनीत गैर सरकारी सदस्य अर्थात नॉमिनेटेड नॉन ऑफिसियल और

4;  निर्वाचित सदस्य अर्थात इलेक्टेड मेम्बर्स।

4. इन सुधारों द्वारा भारत में प्रादेशिक चुनाव पद्धति को आरंभ नहीं किया गया वरन व्यवसायिक और सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अर्थात प्रोफेशनल एंड कम्युनल रिप्रेजेंटेशन ऑफ सेपरेट इलेक्ट्रोल सिस्टम को अपनाया गया । चुनाव क्षेत्र प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं, जमीदार, व्यापारी वर्ग, जिला परिषद और मुसलमान आदि के आधार पर बनाए गए उदाहरण के लिए-  केंद्र के 27 निर्वाचित सदस्यों में से 5 मुसलमानों द्वारा, 6 जमीदारों द्वारा, 1 मुसलमान जमीदार द्वारा, 1 मुंबई की व्यापारी सभा द्वारा,  1 बंगाल की व्यापारी सभा द्वारा और 13 प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं की गैर सरकारी सदस्यों द्वारा चुने जाते थे।  इसी प्रकार की व्यवस्था प्रांतों में भी की गई ।

5. केंद्र में सरकारी सदस्यों का बहुमत बहुमत रखा गया था परंतु प्रांतों में गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत रहा। परंतु यह बहुमत केवल निर्वाचित सदस्यों का ही नहीं था इनमें मनोनीत गैर सरकारी सदस्य भी सम्मिलित थे।

 6. व्यवस्थापिका सभाओं के अधिकारों में वृद्धि की गई। सदस्यों को आर्थिक प्रस्ताव पर वाद-विवाद करने, उनके विषय में संशोधन प्रस्ताव रखने और उनके कुछ विषयों पर मतदान करने तथा अन्य साधारण प्रस्ताव के बारे में विवाद करने, प्रश्न पूछने, सहायक प्रश्न पूछने और मतदान करने एवं सार्वजनिक हित के लिए प्रस्ताव को प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया। यद्यपि प्रत्येक स्थिति में गवर्नर और गवर्नर जनरल को उनकी सलाह को ठुकराने का अधिकार था।

7. भारत सचिव के मद्रास और मुंबई की कार्यकारिणी के सदस्यों की संख्या को 2 से बढ़ाकर, 4 कर देने का अधिकार दिया गया। गवर्नर जनरल भारत सचिव से स्वीकृति लेकर यही व्यवस्था बंगाल और अन्य प्रांतों में भी कर सकता था।

8.  भारत सरकार की परिषद अर्थात काउंसिल में दो भारतीयों की नियुक्ति 1907 ईस्वी में की जा चुकी थी, 1909 ई में गवर्नर जनरल को अपनी कार्यकारिणी मैं एक भारतीय सदस्य को लेने का भी अधिकार मिल गया। इसके प्रथम भारतीय सदस्य श्री  एस .पी. सिन्हा थे, जिन्हें बाद में लॉर्ड की उपाधि से विभूषित किया गया।

12. भारत सरकार कानून 1919 ई – 

प्रमुख प्रावधान-

1. भारत सचिव कि भारत परिषद अर्थात इंडिया काउंसिल के सदस्यों की संख्या 8 से 12 तक निश्चित कर दी गई। इनमें से तीन सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था और कुल सदस्यों में से आधे ऐसे होने चाहिए थे जिन्होंने कम से कम 10 वर्ष तक भारत में निवास किया हो। इन सदस्यों की अवधि 5 वर्ष निश्चित की गई।

2. भारत सचिव का वेतन भारत की बजाय ब्रिटेन के राजकोष से दिया जाने लगा ।

3. भारत संबंधी कुछ कार्यों जैसे – (व्यापार, ब्रिटेन में भारतीयों की शिक्षा) के लिए एक नवीन अधिकारी भारतीय( हाई कमिश्नर) अर्थात इंडियन हाई कमिश्नर की नियुक्ति की गई।

4.  भारत सचिव के अधिकारों में कुछ कमी की गई। प्रांत के हस्तांतरित विषयों के बारे में उससे कम हस्तक्षेप की आशा की जाती थी । और जिन विषयों में गवर्नर जनरल और भारतीय व्यवस्थापिका सभा एकमत हों उसमें भी उसे हस्तक्षेप करने का अधिकार ना रहा।

5.  उपर्युक्त परिवर्तन ग्रह सरकार में किए गए भारत के शासन में निम्नलिखित परिवर्तन किए गए-

 केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा को दो सदनों में विभाजित कर दिया गया।

१.  भारतीय विधानसभा में कुल 144 सदस्य रखे गए इनमें 103 सदस्य निर्वाचित और शेष 41 सदस्य गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत अर्थात नियुक्त होंगे।

 २.  भारतीय राज्य परिषद के कुल सदस्यों की संख्या साठ रखी गई। जिनमें 33 सदस्य निर्वाचित और 27 सदस्य गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किए जाएंगे।

 दोनों सदनों को समान अधिकार दिए गए। दोनों सदन स्वयं अपने अध्यक्ष चुनते थे। यद्यपि गवर्नर जनरल, व्यवस्थापिका सभा की सलाह को ठुकरा सकता था और केंद्रीय कार्यकारिणी भी किसी प्रकार से व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदाई नहीं थी। परंतु फिर भी सदस्यों के प्रश्न पूछने, मत देने और प्रस्ताव को आरंभ करने आदि के अधिकारों में वृद्धि कर दी गई।

6.  गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्यों की संख्या आठ निश्चित की गई जिसमें से कम से कम 2 का भारतीय होना आवश्यक था।

7.  प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि की गई। इनमें से 70% सदस्य निर्वाचित और 30% सदस्य गवर्नर द्वारा मनोनीत किए जाने थे। इनके अधिकारों में भी कुछ वृद्धि की गई। यद्यपि गवर्नरों को इनकी सलाह को ठुकराने और अध्यादेश अर्थात और ऑर्डिनेंस जारी करने का अधिकार दिया गया

8. गवर्नरों  को प्रांतों में किस प्रकार शासन करना था और नवीन व्यवस्था का किस प्रकार व्यवहारिक प्रयोग करना था इसके लिए उन्हें कुछ आदेश अर्थात इंस्ट्रूमेंट ऑफ इंस्ट्रक्शन दिए गए।

9.  1919 ई  के एक्ट की मुख्य विशेषता प्रांतों में द्वैध शासन (Dyarchy) स्थापना थी । इसके लिए केंद्रीय और प्रांतीय विषयों को पृथक किया गया था । इसके पश्चात प्रांतीय विषयों को दो भागों में बांटा गया –

१.  सुरक्षित विषय अर्थात रिजर्व सब्जेक्ट जैसे अर्थव्यवस्था, शांति व्यवस्था, पुलिस आदि और.

 २.  हस्तांतरित विषय अर्थात ट्रांसफरड सब्जेक्ट जैसे-  स्थानीय स्वशासन,  शिक्षा आदि । सुरक्षित विषयों का शासन गवर्नर अपनी परिषद अर्थात एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्यों की सलाह से करता था। और हस्तांतरित विषयों का शासन गवर्नर भारतीय मंत्रियों की सलाह से करता था। यह मंत्री व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों में से लिए जाते थे और इन से आशा की जाती थी कि वह उसी के प्रति उत्तरदाई भी होंगे। यद्यपि कानूनी तौर पर उनकी नियुक्ति और पद से हटाने का अधिकार गवर्नर का था। इस व्यवस्था से गवर्नर की कार्यकारिणी भी दो भागों में बट गई –

१. गवर्नर और उसकी परिषद अर्थात काउंसिल तथा.

 २.  गवर्नर और भारतीय मंत्री।

 इससे प्रांतिय शासन के दो भाग हो गए –

पहला-  शासन का वह भाग जिस के अधिकार में सुरक्षित विषय थे । अर्थात् गवर्नर और उसकी परिषद जो शासन का उत्तरदायित्व हीन भाग था ।और

दूसरा – शासन का वह भाग जिसके अधिकार में हस्तांतरित विषय थे । अर्थात गवर्नर और भारतीय मंत्री को शासन का उत्तरदायित्व पूर्ण भाग माना जा सकता था। पहले भाग का व्यवस्थापिका सभा के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं था। परंतु दूसरे भाग से आशा की जाती थी कि वह व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदाई होगा। शासन के इसी विभाजन के कारण इस व्यवस्था को द्वैध शासन के नाम से जाना जाता था।

10.  केंद्र की कार्यकारिणी उस समय व्यवस्थापिका सभा के प्रति किसी भी प्रकार उत्तरदाई नहीं थी।

11.  चुनाव पद्धति सांप्रदायिक आधार पर ही होती थी , बल्कि इस एक्ट के द्वारा सिखों, एंग्लो इंडियनों, ईसाईयो, यूरोपियन को  भी पृथक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। यद्यपि केंद्र और प्रांत दोनों ही स्थानों पर सदस्यों और मतदाताओं की योग्यता में कमी कर दी गई थी।

13. 1935 ई का भारत सरकार अधिनियम- 

 प्रमुख प्रावधान –

१.एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की गई जिसमें ब्रिटिश भारत के प्रांतों के अतिरिक्त देसी नरेश हो कि राज्य भी सम्मिलित होंगे।

२. प्रांतों को स्वशासन का अधिकार दिया जाएगा शासन के समस्त विशेष विषयों को तीन भागों में बांटा गया-

 एक-  संघीय विषय जो केंद्र के अधीन थे ।

दो –  प्रांतीय विषय जो पूर्णता प्रांतों के अधीन थे तथा

तीन-  समवर्ती विषय जो केंद्र और प्रांत के अधीन थे।

          परंतु यह निश्चित किया गया कि केंद्र और प्रांतों में विरोध होने पर केंद्र का ही कानून मान्य होगा। प्रांतीय विषयों में प्रांतों को स्वशासन का अधिकार था और प्रांतों में उत्तरदाई शासन की स्थापना की गई थी। अर्थात गवर्नर व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदाई भारतीय मंत्रियों की स्थापना की गई थी। अर्थात गवर्नर व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदाई भारतीय मंत्रियों की सलाह से कार्य करेंगे ।इसी कारण यह कहा जाता है कि इस कानून द्वारा प्रांतीय स्वशासन अर्थात प्रोविंशियल ऑटोनॉमी की स्थापना की गई ।

3. केंद्र या संघ सरकार के लिए द्वैध शासन की व्यवस्था की गई। जैसी 1919 के कानून के अंतर्गत प्रांतों में की गई थी।

4. एक संघीय न्यायालय अर्थात फेडरल कोर्ट की स्थापना की गई ।

5. एक केंद्रीय बैंक अर्थात रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई।

6. बर्मा तथा अदन को भारत के शासन से पृथक कर दिया गया।

 7. सिंध और उड़ीसा के दो नवीन प्रांत बनाए गए।  उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत को  गवर्नर के अधीन रखा गया।

8.गवर्नर जरनल और गवर्नर उनको कुछ विशेष दायित्व जैसे भारत में अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा शांति ब्रिटिश सम्राट और देसी राजाओं के सम्मान की रक्षा विदेशी आक्रमण से रक्षा आदि प्रदान किए गए ।

9.इस कानून के द्वारा भी निर्वाचन में सांप्रदायिकता प्रणाली का ही उपयोग किया गया। परंतु केंद्र और प्रांत दोनों के लिए मत देने की योग्यता में कमी कर दी गई। जिसके परिणाम स्वरुप मतदाताओं की संख्या बढ़कर 13% हो गई ,जबकि 1919 ईस्वी के कानून के अंतर्गत यह केवल 3% थी।

 इस कानून के कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तनों पर विस्तार पूर्वक विचार करना आवश्यक है क्योंकि भारत के नवीन संविधान की रूपरेखा का निर्माण बहुत कुछ इसी कानून ने किया।

अ – गृह सरकार-

1. इसके द्वारा भारत परिषद को समाप्त कर दिया गया। इसके स्थान पर भारत सचिव तथा सेक्रेट्री आफ स्टेट फॉर इंडिया के लिए कुछ सलाहकारों की व्यवस्था की गई। इनकी संख्या 3 से 6 तक हो सकती थी। इनमें आधे सदस्य ऐसे होने आवश्यक थे जिन्होंने कम से कम 10 वर्ष भारत में सेवा कार्य किया हो और 2 वर्ष से अधिक उन्हें भारत छोड़े हुए ना हो। उनका कार्यकाल 5 वर्ष सुनिश्चित किया गया। भारत सचिव को कुछ मामलों में जैसे सार्वजनिक सेवाओं के संबंध में उनकी सलाह मानना अनिवार्य था ।

2.  भारत सचिव उन कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, जिन्हें गवर्नर भारतीय मंत्रियों की सलाह से करता था।

3.  भारतीय हाई कमिश्नर की नियुक्ति का अधिकार गवर्नर जनरल को दिया गया उसका कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित हुआ। उसका कार्य भारतीय विद्यार्थियों को इंग्लैंड में सुविधा प्रदान कर आना और भारत व इंग्लैंड के व्यापार के विषय में परामर्श देना था

ब . संघीय शासन – 

1. गवर्नर जनरल संघ शासन का प्रधान था।  उसके प्रशासनिक,  आर्थिक और व्यवस्थापिका संबंधी अधिकार विस्तृत थे। आर्थिक प्रस्ताव बिना उसकी अनुमति के व्यवस्थापिका सभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था । उसे विस्तृत विशेषाधिकार प्राप्त थी। उसे अध्यादेश अर्थात ऑर्डिनेंस जारी करने और स्वेच्छा से कानून बनाने का भी अधिकार था। इस एक्ट के द्वारा केंद्र में द्वैध शासन की स्थापना की गई थी संघीय विषयों को दो भागों में बांटा गया था –

1. सुरक्षित विषय अर्थात रिजर्व सब्जेक्ट जिनका शासन गवर्नर जनरल अपनी काउंसिल के सदस्यों की सलाह से करता था और

2 . हस्तांतरित विषय अर्थात ट्रांसफर सब्जेक्ट जिनका शासन गवर्नर जनरल व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदाई और उसी में से चुने हुए भारतीय मंत्रियों की सलाह से करता था ।

इस प्रकार संघीय कार्यकारिणी दो भागों में विभक्त की गई थी – गवर्नर जनरल और उसकी काउंसिल के सदस्य तथा गवर्नर जनरल और उसके भारतीय मंत्री ।

2. संघीय व्यवस्थापिका सभा में दो सदनों की व्यवस्था की गई थी ।

१. राज्य परिषद अर्थात काउंसिल ऑफ स्टेट और

२. संघ सभा अर्थात फेडरल असेंबली ।

राज्य परिषद के सदस्यों की संख्या 260 निश्चित की गई थी। जिनमें से 156 सदस्य ब्रिटिश भारतीय प्रांतों से और 104 सदस्य भारतीय नरेशों के राज्यों से आने की व्यवस्था थी ।ब्रिटिश भारत के सदस्यों के लिए निर्वाचन प्रणाली अपनाई गई जबकि नरेश राज्यों के सदस्यों के लिए वहां के नरेशो द्वारा मनोनीत किए जाने की व्यवस्था थी। संघ सभा के लिए 375 सदस्यों की व्यवस्था की गई जिनमें से 250 सदस्य ब्रिटिश भारत के और 125 सदस्य नरेश राज्यों के होने थे। इनमें ब्रिटिश भारत के सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाना था जबकि देसी राज्यों के सदस्यों की नियुक्ति राज्यों के नरेशो द्वारा किए जाने की व्यवस्था थी । राज्य -परिषद स्थाई सभा थी जिसके एक तिहाई सदस्यों को प्रतिवर्ष अपना पद छोड़ना पड़ता था। संघ सभा की अवधि 5 वर्ष निश्चित की गई थी । केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा नाम के लिए तो संपूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार रखती थी। परंतु वास्तव में उसकी शक्ति नाम मात्र की थी क्योंकि गवर्नर जनरल उसकी सलाह को ठुकरा सकता था, स्वयं अध्यादेश जारी कर सकता था। और उसके विशेष अधिक अधिकार भी विस्तृत थे संघीय वार्षिक बजट के तीन चौथाई भाग पर व्यवस्थापिका सभा को कोई अधिकार नहीं था।

स- प्रांतीय शासन- 

1.  प्रांतीय शासन का प्रधान गवर्नर था। जो अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति व्यवस्थापिका- सभा में चुने हुए और उसी के प्रति उत्तरदाई भारतीय मंत्रियों के परामर्श से करता था।  इस एक्ट के द्वारा शासन के समस्त विषय भारतीय मंत्रियों के अधीन कर दिए गए इसी कारण इस व्यवस्था को प्रांतीय स्वशासन अर्थात प्रोविंशियल ऑटोनॉमी के नाम से पुकारा जाता है । परंतु वास्तव में ऐसी कोई बात नहीं थी गवर्नरों  के अधिकार विस्तृत थे। विशेष उत्तरदायित्व के अतिरिक्त वे अनेक समस्याओं का निर्णय स्वविवेक से कर सकते थे । वैधानिक संकट उपस्थित होने पर वे संपूर्ण प्रांत के शासन को स्वयं अपने हाथों में ले सकते थे।

2.  कुछ प्रांतों में व्यवस्थापिका – सभा के लिए द्विसदनीय व्यवस्था की गई थी जैसे – उत्तर प्रदेश और बंगाल में अन्य प्रांतों में एक सदनीय व्यवस्था की गई। प्रथम सदन का नाम विधानसभा अर्थात लेजिसलेटिव असेंबली और द्वितीय सदन का नाम विधान परिषद अर्थात लेजिसलेटिव काउंसिल रखा गया। विधानसभा के सभी सदस्य निर्वाचित होते थे। परंतु विधान परिषद के कुछ सदस्यों को गवर्नर मनोनीत भी करता था। व्यवस्थापिका -सभा वार्षिक बजट में परिवर्तन कर सकती थी, यद्यपि गवर्नर उसे पुनः यथावत कर सकता था । अन्य प्रांतीय विषयों के बारे में कानून निर्माण करने, मंत्रियों से प्रश्न पूछने और अविश्वास पत्र स्वीकार करके उन्हें उनके पद से हटाने का अधिकार व्यवस्थापिका – सभा को था । परंतु उसके यह अधिकार वास्तव में गवर्नर के अध्यादेश बनाने और विशेष अधिकारों के प्रयोग के कारण बहुत सीमित थे।

14.  1947 ई का भारतीय स्वतंत्रता कानून –

प्रमुख प्रावधान-

1. 15 अगस्त 1947 ई को भारत का विभाजन करके भारत और पाकिस्तान नामक दो स्वतंत्र राज्य होंगे इसका निर्णय लिया गया ।

2.ये दोनों राज्य स्वेच्छा से निर्णय करेंगे कि उन्हें ब्रिटिश राष्ट्रमंडल अर्थात ब्रिटिश कॉमनवेल्थ आफ नेशंस का सदस्य बनना है अथवा नहीं ।

3.  जिस समय तक दोनों राज्यों में संविधान का निर्माण नहीं हो जाता दोनों राज्यों की विधानसभाओं को 1935 ईस्वी के कानून के अनुसार विधि निर्माण के अधिकार होंगे।

4.  ब्रिटिश सम्राट दोनों के लिए पृथक-पृथक वायसराय नियुक्त करेगा परंतु यदि दोनों एक ही वायसराय रखना चाहे तो रख सकेंगे ।

5 ब्रिटिश सम्राट की भारतीय नरेशो पर से सर्वोच्च सत्ता अर्थात पैरामाउंटसी समाप्त हो जाएगी।

 6. जब तक नवीन संविधान का निर्माण नहीं हो जाता, तब तक 1935 ईस्वी के कानून के आधार पर शासन चलाया जाएगा। परंतु गवर्नर जनरल और गवर्नर पूर्णता संवैधानिक प्रधान होंगे। मंत्रिमंडल पूर्णता स्वतंत्र होंगे वह केवल व्यवस्थापिका -सभाओं के प्रति उत्तरदाई होंगे।

7.भारत -सचिव तथा उसके सहयोगी समाप्त कर दिए गए। भारत और पाकिस्तान से संबंध स्थापित रखने के लिए कॉमनवेल्थ -सचिव को अधिकार दिए गए।

8. ब्रिटिश सम्राट की, भारत सम्राट की उपाधि समाप्त कर दी गई।

Share with friends !

1 thought on “भारत का संवैधानिक विकास/Constitutional Development Of India”

Leave a Reply

error: Content is protected !!