प्राचीन भारत में विज्ञान (Science in Ancient India)
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प्राचीन भारत में विज्ञान (Science in Ancient India)
ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में विज्ञान का विकास तब हो चुका था जब विश्व के अन्य देशों में विकास का क्रम शैशवावस्था में था। प्राचीन भारत के लोगो में विज्ञान के प्रति गहरी रुचि थी। यद्यपि प्राचीन भारत में लोग माध्यमिक ज्ञान पर अधिक जोर देते थे परंतु सांसारिक ज्ञान को भी वे अनदेखा नहीं करते थे और उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में भी बहुत उन्नति की। उपनिषद में उल्लेख है कि प्राचीन भारतीय लोग ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे अर्थात
वायु स्थिर क्यों नहीं रह सकती। मनुष्य का मतिष्क विश्राम क्यों नहीं करता है। पानी क्यों और किसकी खोज में बहता है और इसके बहाव को एक मिनट के लिए भी क्यों नहीं रोका जा सकता। इन सब वैज्ञानिक जिज्ञासाओं के कारण ही प्राचीन समय में भारत के लोगों ने काफी उन्नति किया।
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प्राचीन भारत में विज्ञान की प्रगति को निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है –
नक्षत्र विज्ञान
चिकित्सा विज्ञान
रसायन विज्ञान
गणित शास्त्र
भौतिक शास्त्र
नक्षत्र विज्ञान – वैदिक साहित्यों में ऋतुओं को प्रमुख रूप से 5 भागों में बांटा गया है- बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमंत शिशिर। प्राचीन भारत में पाँच ग्रहों तथा 27 नक्षत्रों के विषय में भी जानते थे। यद्यपि अथर्ववेद ने ग्रहण का धार्मिक रूप में वर्णन किया है, परंतु ऋग्वेद यह बताता है कि चंद्रमा सूर्य के बीच में आ जाता है तब यह स्थिति भी बनती है। लाग्धा जो कि वृद्धा गर्ग के समकालीन थे जिन्होंने याजमा, ज्योतिषा और पाराशर लिखी। उल्लेखनीय है कि वृद्धा गर्ग का नाम महाभारत में दो बार आता है। ऐसा माना जाता है कि वह मुखती में एक स्थान पर रहते थे और समय और गति का ज्ञान प्राप्त करते थे। चारों ओर नक्षत्र का भी अध्ययन करते थे। ऋषि विभिन्न स्थानों से इस नए विज्ञान को सीखने के लिए आते थे। लागधा ने यह जानकारी दी कि ग्रीष्म ऋतु का सोलह स्टाईस, अंतकेसबा नक्षत्र के बीच से गुजरता है और ठंड का नक्षत्र धानिसाया नक्षत्र से पहले बिन्दु से गुजरता है। दूसरे नक्षत्र विद्या के ज्ञाता जैसे पाराशरा और गर्ग ने भी नक्षत्र विज्ञान में काफी योगदान दिया और पहले विद्वानों के रीति-रिवाजों को आगे बढ़ाया इन विद्वानों के अतिरिक्त एक -दूसरे नक्षत्र ज्ञाताओं के विषय में भी जानते हैं, जैसे ऋषि पूज्य, कश्यप, दिवाला आदि।
476 ई पैदा हुए नक्षत्र विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान आर्यभट्ट प्राचीन भारत में नक्षत्र विद्या में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। उनकी रचना आर्यभट्टीन है जिसमें उन्होंने पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने का सिद्धांत का प्रतिपादन किया। आगे वे अपने ग्रंथ में में सूर्य और चंद्रमा की गति के बारे में भी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। उन्होंने बताया कि पृथ्वी की धुरी स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों ओर चक्कर है और ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रह और तारे उदय हो रहे हैं और छिप रहे हैं इसी प्रकार के विचार छन्दोग्य उपनिषद में वर्णित किए गए हैं। परंतु आर्यभट्ट ने सिध्द किया कि वह कभी नहीं छिपता है।
आर्यभट्ट के बाद भी नक्षत्र विज्ञान काफी उन्नत हुआ। आर्यभट्ट के शिष्य लतादेव भास्कर प्रथम ने भी इस क्षेत्र में योगदान दिया। भास्कर प्रथम के द्वारा रचित ग्रंथ लघुभास्कर्य एवं महाभास्कर्य में खगोलविज्ञान के विषय में अनेक जानकारी प्रस्तुत की हैं। इसके अलावा वराहमिहिर एक अन्य खगोलशास्त्री थे, जो महान प्राकृतिक विज्ञान के विषय में खोज की। उनकी सर्वप्रसिध्द रचना पंचसिध्दांत अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। इन्होंने पुराने आर्यसिद्धांत को आधुनिक बनाया।
इसके पश्चात 528 ई में ब्रम्हागुप्त ने जन्म लिया, उसने उज्जैन में एक वेधशाला खोली। ब्रम्हगुप्त की प्रमुख कृति ब्रम्हास्तूप सिद्धांत एवं खंडखाद्य हैं। उज्जैन में स्थित वेधशाला में वराहमिहिर ने भी लंबे समय अपना योगदान दिया। भारत के ये महानतम वैज्ञानिकों ने न केवल वास्तविकता से दुनिया को परिचित कराया अपितु अनेक वैज्ञानिक विधियों का भी प्रतिपादन किया।
चिकित्सा विज्ञान – यूं तो वैदिक काल से ही भारतीय चिकित्सा पध्दती अपनाई गई थी परंतु उसका वास्तविक विकास चरक एवं सुश्रुत के द्वारा संभव हुआ। उन्होंने चिकित्सा विज्ञान पर महत्वपूर्ण दो ग्रंथ लिखीं। पहला चरक संहिता तथा दूसरा सुश्रुत संहिता। ये ग्रंथ अथर्ववेद के 1000 वर्ष बाद रची गई। चरक संहिता बौद्धकाल से भी पूर्व की है। चरक संहिता के महत्व को दर्शाते हुए पी. सी. राय ने कहा है कि – “ चरक की पुस्तकें पढ़ने से ऐसा लगता है कि वह संसार के चिकित्सा विज्ञान विशेषज्ञों की सभा में बैठे हों जो हिमालय क्षेत्र में की जा रही हो क्योंकि जो कृति उन्होंने लिखी हैं वो इस प्रकार की है कि जैसे चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञों की कोई सभा चल रही हो।’
वहीं दूसरी ओर सुश्रुत संहिता चरक संहिता की अपेक्षा अधिक नियमबद्ध और वैज्ञानिक है। इसे आधुनिक माना जाता है। चरक संहिता ने दवाओं के विषय में ज्ञान दिया गया है। जबकि सुश्रुत संहिता में शल्य क्रिया के विषय में जानकारी दी गई है। आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त और कफ जैसे विकारों पर केंद्रित उपचार बताया गया है।
शल्य क्रिया की जानकारी प्राचीन भारत में प्रचलित थी। वे लोग हाथ-पैर काटना, पेट की चीर-फाड़ करके आंतों की परेशानी देखना, पथरी निकालना और खोपड़ी के विषय में उल्लेख मिलते हैं । जब जवान लड़की बकिसपाला की एक टांग नहीं होने पर चिकित्सकों ने उसकी लोहे की टाँग लगाई। सुश्रुत और बंगभट्ट एक बहुत अच्छा चीरफाड़ करने के नियम प्रस्तुत करते हैं। जिसमें इसके उपयोग के लिए मुख्य रूप से चाकू, सुई,कैंची, चिमटी, सीरिन्ज आदि थे।
शरीर में रक्त संचार की जानकारी भारतीय चिकित्सक प्राचीन काल से ही जानते थे, जबकि यूरोपीय विलियम हार्ले ने 17 वीं शताब्दी में इसकी खोज की थी। मनुष्य के बुखार, चेचक, क्षयरोग आदि के विषय में जानकारी व उपचार भारत में पूर्व से ही परिचित थे।
बौद्ध वैज्ञानिक नागार्जुन प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने शीशे से कज्जली में दवाई तैयार की। चीनी यात्री हवेनसांग ने अपनी यात्रा के दौरान नागार्जुन की औषधियों के विषय में प्रशंसा की है। और कहा है कि नागार्जुन बौद्ध ऐसे औषध विज्ञानी हैं जिनकी बनाई एक गोली खाकर मनुष्य सैकड़ों वर्ष तक जीवित रहा और न तो उसके मस्तिष्क का कुछ हुआ और न ही उसके चेहरे पर कोई परिवर्तन दिखाई दिया।
प्राचीन भारत नें बीमार व्यक्ति की सेवा निस्वार्थ भाव से की जाने की सलाह इन चिकित्सा संहिताओं में उल्लेखित किया गया है। इसके साथ-साथ वैद्य लोग पशुओं की भी चिकित्सा में पारंगत थे। रोगी व बूढ़े पशुओं की उचित देखभाल का प्रावधान भी चिकित्सा शास्त्रों में वर्णन किया गया है।
रसायनशास्त्र –भारत के सबसे बड़े रसायन शास्त्रियों में पातंजली सबसे महान जो कि बौद्ध भिक्षु पाणिनी और नागार्जुन के समालोचक माने जाते हैं। नागार्जुन कीमियागिरी के दूसरे महान रसायन शास्त्री हुए हैं। नागार्जुन जो कि पहले रसायनशास्त्री थे जिन्होंने पारे का प्रयोग दस औषधी में कज्जली बनाने का प्रयोग किया। उन्होंने आसव बनाने की और भस्म बनाने की कला खोज निकाली। चीनी यात्री ह्वेनसांग बताते हैं कि नागार्जुन औषधी तैयार करने में विशेष योग्यता रखते थे। जिससे उसके सेवन से मनुष्य लंबा जीवन व्यतीत कर सकता था। यजुर्वेद में भी लोहे, टिन और रांगा का वर्णन आता है। छन्दोग्य उपनिषद में उल्लेखित है कि प्राचीन भारतीय मिश्र धातु बनाना भी जानते थे। फारस के लोगों के अनुसार भारत की तलवार प्रसिध्द थी जो कि स्टील आदि से बनाई जाती थी। भारतीयों के धातु विज्ञान की उन्नति का उदाहरण दिल्ली की लोहे की लाट है जो 25 फिट ऊंची है जिसका भार 61/2 टन है। ये स्तम्भ 1500 वर्ष से भी अधिक पुराना है ,इस स्तम्भ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस पर अब तक जंग नही लगा है। इसी बात पर आश्चर्य प्रकट करते हुए फर्गयुसन कहते हैं कि- हवा और पानी के चौदह वर्ष बाद भी इस पर जंग नहीं लगा है और अक्षर और खुदाई इसी प्रकार साफ और तेज हैं जैसे 14 सौ वर्ष पूर्व थे। यह हमारी आँखें खोलने योग्य बात है कि हिन्दू उस समय भी इतने उन्नतशील थे जीतने यूरोप वाले आज भी नहीं हैं।
इसके अलावा तेज रंग तैयार करने और रंगने की कला जानते थे। साबुन बनाना और बंदूक का पाउडर बनाना भी जानते थे। प्रसिद्ध यात्री अल्बरूनी ने भी बहुत सराहा है। वे लिखते हैं कि भारतीय एक प्रकार का विज्ञान जानते थे जो कीमियागीरी के समान ही थी। इसे वे रसायन नाम से पुकारते थे। प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन भारत में रसायन शास्त्र एवं उसका उपयोग अत्यंत ही उन्नतशील था।
गणित शास्त्र – सबसे पहला महान गणितज्ञ आर्यभट्ट हैं जिनकी कृति के विषय में हम पूर्व में परिचित हो चुके हैं, आर्यभट्टीयम खगोलशास्त्र पर एक महान कृति होने के अतिरिक्त अंकगणित की भी महान कृति थी, इस ग्रंथ में उन्होंने अंकगणित और रेखागणित का उल्लेख किया है। छंदोग्य उपनिषद के अनुसार जिस प्रकार से मोर के सिर पर चंद्रिकाएं होतीं हैं, सांप के फन पर मणि होती है, उसे प्रकार से सब विज्ञानों में गणित विज्ञान है। यज्ञ आदि करने में गणित का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। प्रत्येक यज्ञ की वेदी का आकार व उसका माप निर्धारित होता है।
ब्रम्हगुप्त दूसरे खगोलशास्त्री थे जिन्होंने गणित पर अपना योगदान दिया। गुणन खंड, साधारण ब्याज और दूसरे गणित के नियमों, बीजगणित में ऋणात्मक संख्या और समीकरण को लिपिबद्ध किया है।
अन्य गणित आचार्य थे महावीराचार्य। वे राष्ट्रकूट वंश के राजा अमोघवर्ष (9वीं शता.) के दरबार में रहते थे। उनकी रचना गणितसारसंग्रह थी, जिसमें उन्होंने मूलकों, समीकरणों आदि के बारे में बताया।
प्राचीन भारत के आखिरी गणितज्ञ थे भास्कराचार्य जो 12 वी शताब्दी में उज्जैन में रहे। उन्होंने अंकगणित, ठोस ज्यामिति और बीजगणित के विषय में विस्तारपूर्वक लिखा है। उन्हे न्यूटन के सिद्धांत जो डिफ़रंसीयल कैलक्लस के बारे में बनाए गये नियम को अपनाया और खगोलशास्त्र संबंधी समस्याओं में उनका प्रयोग किया, इस बात का श्रेय दिया जाता है। और साथ ही यह सिद्ध किया कि अनंत चाहे जो भी हो उसे विभाजित कर दिया जाए तो, अनंत ही रहता है।
गणित के क्षेत्र में एक और योगदान आँकलन के संबंध में था। जिसको भारतीय वैदिक काल में ही सीख चुके थे। जैसे- शून्य, अंबार, अनंत आदि संख्या का वर्णन किया गया है। इसके अलावा स्थानीयमान को दस के साथ विचार करना , बड़ी संख्या छोटी संख्या की बायीं ओर लिखी जाती थी। पातंजली के योग सूत्र में एक इकाई के स्थान पर दहाई के स्थान पर और सैकड़ा के स्थान पर स्थापित किए गए। शंकराचार्य भी इस विषय पर आगे लिखते हैं- यद्यपि संख्या एक ही है लेकिन स्थान परिवर्तन से इसका मूल्य एक, 1, 10, 100 और 1000 आदि हो जाते हैं। लाप्लेस व डानजिंग ने भी इस खोज की प्रशंसा की है।
प्राचीन भारत में शून्य की खोज गणित शास्त्र में एक क्रांतिकारी योगदान था। इस खोज के बिना स्थानीयमान संभव ही नहीं था। शून्य का नियम प्राचीन गणितज्ञों के अनुसार – “शून्य जोड़ने से जोड़ एक जोड़ने पर बराबर हो जाता है। जब शून्य को घटाया जाता है(एक संख्या से) तो संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता। गुणा में किसी भी संख्या से गुणा करने पर परिणाम शून्य होता है।’
हाल्सटिड के अनुसार – “ शून्य लगाने पर जो संख्या बनती है उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। हिन्दू धर्म में शून्य का महत्व है यह निर्वाण प्राप्त करने के समान है।’
इसके अलावा दशमलव, त्रिकोणमिति में भी भारतीयों का अभूतपूर्व योगदान रहा।
प्रो बाशम कहते हैं कि अधिकतर अन्वेषण जो यूरोप ने किए और उस पर वह गर्व करता है असंभव होते, अगर वह गणित का ज्ञान प्राप्त नहीं करते और रोमन संख्याओं के प्रयोग का ज्ञान प्राप्त न करते, वह अज्ञात व्यक्ति जिसने गणित का नया नियम निकाला बुद्ध के बाद में हुआ और वह भारत का सबसे महत्वपूर्ण पुत्र था, उसकी प्राप्तियाँ जो लोगों ने साधारण रूप से प्राप्त कर ली उसके लिए उससे कहीं अधिक आदर सम्मान दिया जाना चाहिए जो कि अब तक उसे मिला है।
भौतिक शास्त्र – प्राचीन भारत में अधिकांश अध्यात्मवाद के विभिन्न विद्यालयों में परमाणु विचारधारा में विश्वास रखते थे। प्रो. ए एल बाशम बताते हैं कि भारतीय परमाणु विचार यूनान के प्रभाव से मुक्त था। परमाणु की एक विचारधारा की शिक्षा या कूफा कल्वपाना ने दी जो कि युध्द का समकालीन था इस प्रकार भारतीयों की परमाणु की विचारधारा यूनानी विचारधारा से भी पहले की थी।
बुद्ध काल से ही भारतवासी विश्व को 4 तत्वों में बांटा था अर्थात पृथ्वी, हवा, अग्नि और जल।
रूढ़िवादी हिन्दू और जैन मतावलंबी एक और तंत्र आकाश को भी इसमें जोड़ते हैं। ये पाँच तत्व पाँच इंद्रियों से संबंधित थे। पृथ्वी से सूंघना, हवा से अनुभव करना, अग्नि से दृष्टि, पानी से स्वाद और आकाश का संबंध आवाज से था।
भौतिक शास्त्र के संबंध में सबसे प्राचीन विचारधारा कपिल की थी जो सांख्य दर्शन के रचीयता हैं, और दूसरे कनाद जो कि वैशेषिक दर्शन के रचनाकार। उनके अनुसार प्रत्येक परमाणु में कोई विशेष गुण नहीं होता वरन उर्जा होती है। यह ऊर्जा उस समय अपना कार्य करती है जब परमाणु आपस में मिलती हैं।
प्राचीन काल की विचारधारा पर प्रो बाशम कहते हैं कि यह परीक्षण के आधार पर नहीं थी अपितु ज्ञान और तर्क के आधार पर थी। परंतु प्राचीनकाल की विचारधारा अत्यंत बुध्दिमता पूर्ण है और संसार की प्राकृतिक संरचना की कल्पना के अनुरूप है परंतु यह आज की भौतिक विज्ञान के विचार उन प्राचीन विचारों से बहुत कम मिलते हैं परंतु वे प्राचीन भारतीय विचारकों के बहुत प्रशंसनीय व उत्तम विचार हैं।
प्राचीन भारत में गुरुत्वाकर्षण के सिध्दांत, पहिया गोगुन की तरंग ध्वनि गणना आदि से भलीभाँति परिचित थे। इसके साथ ही ऊर्जा, प्रकाश और किरणों पर रासायनिक प्रभाव चुंबकीय शक्तियों के विषय में भी ज्ञान रखते थे। भारतीयों ने समुद्रीय दिशा ज्ञात करने का यंत्र की खोज कर ली थी। इस यंत्र का नाम उन्होंने मत्स्य यंत्र रखा था। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यूरोप में इसका आविष्कार बाद में हुआ। चुंबकीय चट्टान के कारण लोहे की जहाज डूब न जाए इसके लिए भोज जैसे लेखकों ने लोहे का जहाज बनाने में इसका प्रयोग न करने का विचार दिया।