अभिलेख शास्त्र का परिचय-प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के पुरातात्विक स्रोत / Introduction of Epigraphy
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पुरातात्विक स्रोत – अभिलेख शास्त्र का परिचय / Introduction of Epigraphy:
प्रस्तावना- इतिहास को जानने के प्रमुख साधनों में मुख्य रूप से साहित्यिक तथा पुरातात्विक स्रोत महत्वपूर्ण हैं, इसमें साहित्यिक स्रोतों से ज़्यादा तथ्यपरक व विश्वसनीय पुरातात्विक स्रोतों को माना जाता है। मानव इतिहास का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह है जब मानव को लिपि का ज्ञान नहीं था, ऐसे काल के मानव के अतीत के विभिन्न चरणों के विकास का वैज्ञानिक अध्ययन पुरातत्व के माध्यम से ही संभव है। भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना सन 1861 में ऐलेग्जेंडर कनिंघम ने की थी। वर्ष 1906 में इसे स्थाई संस्था बनाया गया। इसका प्रमुख कार्य राष्ट्रीय महत्व के प्राचीन स्मारकों तथा पुरातात्वीय स्थलों और अवशेषों का रखरखाव तथा वैज्ञानिक सर्वेक्षण करना शामिल है।
पुरातात्विक अवशेष अभिलेख, मुद्राएं, स्मारक, मृदभांड, अस्थि-पंजर आदि शामिल हैं। जिनमें पुरातात्विक स्रोतों के अंतर्गत अभिलेख अत्यंत महत्वपूर्ण एवं विश्वसनीय हैं। अभिलेखों की विभिन्न श्रेणियाँ पाई गई हैं जिनमें मुख्यत: शिलालेख, स्तंभ लेख, ताम्रपत्र लेख, मूर्ति लेख, गुहा लेख, मुद्रा लेख आदि सम्मिलित है।
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अभिलेखों के विकासक्रम के अध्ययन को अभिलेख शास्त्र कहा गया है। अभिलेखन का कार्य प्रस्तर, धातु, ईंट, दीवार, काष्ठ, ताड़पत्र आदि के ऊपर उत्कीर्ण किए जाते थे। इन अभिलेखों में चित्राक्षर, ब्राम्ही, खरोष्ठी, आरमाईक, प्राकृत, संस्कृत, पाली आदि भाषाओं के लिपियों का प्रयोग किया जाता था। इन अभिलेखों से तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, और आर्थिक स्थिति के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
अभिलेख शास्त्र का अर्थ –किसी विशेष महत्व अथवा प्रयोजन के लिए लिखे गए लेख को अभिलेख कहा जाता है। प्राचीन काल में राजाओं के द्वारा प्रस्तर, धातु अथवा किसी कठोर व स्थाई पदार्थ पर राजादेश, स्मृति, प्रशस्ति, विज्ञप्ति आदि को लिपि के माध्यम से लेखन में उत्कीर्ण कराया जाता था, इन लेखों की गणना अभिलेख के अंतर्गत किया जाता है। इसकी संरचना सामान्य लेखों से भिन्न होती है। इन अभिलेखों के अंतर्गत किए जाने वाले समस्त अध्ययन को अभिलेख शास्त्र (Epigraphy) कहा जाता है।
अभिलेख का महत्व- अभिलेखों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए इतिहासकार फ्लीट ने लिखा है –
“प्राचीन भारत के राजनीतिक इतिहास का ज्ञान हमें केवल अभिलेखों के गहन अध्ययन से प्राप्त होता है, इसके बिना कोई निश्चित तिथि तथा एकरूपता स्थापित नहीं की जा सकती है।’’
दूसरे अर्थों में कहा जा सकता है कि जो इतिहास साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर मौन है वहीं अभिलेखों से इतिहास लेखन में सत्यता की पुष्टि होती है।
अभिलेखों से न केवल तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं साहित्यिक प्रगति पर ही प्रकाश नहीं पड़ता, अपितु तिथि निर्धारण का भी बोध होता है।
अभिलेखों से तत्कालीन राजाओं के चरित्र, व्यक्तित्व व उनकी व्यक्तिगत रचियों पर प्रकाश पड़ता है।
तत्कालीन राज्यों की सीमा निर्धारण में सहायता मिलती है।
अभिलेखों से राज वंशावली की जानकारी प्राप्त होती है। जिससे कालक्रम निर्धारण में मदद मिलती है।
राजशासन व्यवस्था, पदाधिकारियों व कर व्यवस्था की भी जानकारी प्राप्त होती है।
अभिलेखों से मूर्तिकला, वास्तुकला, धार्मिक स्थिति आदि पर प्रकाश पड़ता है।
अभिलेख हमें बताते हैं कि किस काल में कौन सी भाषा, लिपि आदि के बारे में जानकारी रखते थे।
दक्षिण भारत में पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट, पाण्डय, चेर और चोल वंशों का इतिहास लेखन में इन शासकों के अभिलेख बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
अभिलेखों से भारतीय राज्यों के विदेशों से संबंध तथा व्यापार वाणिज्य के बारे भी पता चलता है।
अभिलेखों से सामाजिक प्रथा, दान, शिक्षा, साहित्यिक योगदान के विषय में भी जानकारी मिलती है।
अभिलेख सिध्दांत– अभिलेख तैयार करने के लिए कुछ नियम व सिध्दांत प्रचलित थे। अभिलेख का प्रारंभ किसी धार्मिक अथवा मांगलिक चिन्ह या शब्द से किया जाता था। इसके पश्चात किसी इष्ट देवता की स्तुति अथवा आमंत्रण होता था। तत्पश्चात आशिवार्दात्मक वाक्य आता था। पुन: दान अथवा कीर्ति विशेष की प्रशंसा होती थी। अंत में उपसंहार तथा लेखक और उत्कीर्ण करने वाले का नाम और मांगलिक चिन्ह होता था। भारत में यह सिद्धांत सर्व प्रचलित था। इसके पश्चात ..
अभिलेखों में प्रयुक्त लिपि–
प्राकृत- आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं तथा ये ईसा पूर्व तीसरी सदी के हैं।
संस्कृत-अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगी तथा चौथी-पाँचवी सदी में इसका सर्वत्र व्यापक प्रयोग होने लगा।
ब्राम्ही लिपि-अशोक के अधिकतर शिलालेख ब्राम्ही लिपि में हैं। यह लिपि बाएं से दाएं लिखी जाती थी।
खरोष्ठी लिपि–अशोक के कुछ शिलालेख खरोष्ठी लिपि में भी हैं, जो दाएं से बाएं लिखी जाती थी।
यूनानी एवं आरमाईक लिपि– पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अशोक के शिलालेख में इन लिपियों का प्रयोग हुआ है।
भारत में अभिलेखों को उत्कीर्ण करने की परंपरा अशोक– काल से प्रचलित मानी जाती है। पत्थर और धातु के अतिरिक्त अभिलेख मुहरों, मुद्राओं, मूर्तियों, गुफाओं तथा पात्रों पर भी खुदे हुए मिलते हैं। चलिए आगे बढ़ते हैं .. अभिलेख शास्त्र अध्ययन क्षेत्र के अंतर्गत उसके विषय- वस्तु के आधार पर अभिलेखों को अनेक भागों में बांटा जा सकता है ..
अभिलेख शास्त्र अध्ययन के अंतर्गत अभिलेखों को निम्नलिखित वर्गों में बांटा गया है-
शिलालेख – शिलालेख का अर्थ होता है पत्थर पर लिखा हुआ। किसी चट्टान या पत्थर पर किसी विशेष प्रयोजन से उत्कीर्ण लिखित रचना को शिलालेख कहा जाता है। सर्वप्रथम अभिलेखों में 1400 ई.पू. के एशिया माइनर से प्राप्त सबसे प्राचीन अभिलेख महत्वपूर्ण हैं जिसमें हिन्दू देवताओं इन्द्र, वरुण,मित्र व नासत्य का उल्लेख मिलता है। भारत में प्रथम ज्ञात व पठित अभिलेख मौर्य काल में अशोक के द्वारा लिखवाए गए शिलालेखों का उल्लेख मिलता है।अशोक के 14 शिलालेखों को बनवाने की प्रेरणा ईरानी शासक डोरीयस प्रथम से मिली थी। जो कि इतिहास निर्माण की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं। इसे सर्वप्रथम 1837 ई. में प्रिंस जिंसेप ने पढ़ा था। इसके अलावा पुष्यमित्र शुंग का अयोध्या अभिलेख, खारवेल का हाथीगुफा अभिलेख, रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, पुलकेशीन द्वितीय का एहोल अभिलेख, भानुगुप्त का एरण अभिलेख आदि का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है।
Source –www. Wikipedia.org.com
स्तंभलेख – सपाट स्तम्भ के ऊपर गोलाकार चौकी होती है और इस चौकी के नीचे अधोमुखी कमल होता है, ऊपर वाले हिस्से पर किसी पशु मूर्ति का अंकन मिलता है। सपाट हिस्से पर कुछ पंक्ति उत्कीर्ण कर दी जाती है, इसे ही स्तंभ लेख कहा जाता है। ये स्तम्भ चुनार के पत्थर से निर्मित हैं।
स्तम्भ लेखों में प्रमुख रूप से अशोक, समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय आदि के स्तंभलेखों के महत्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इनके अभाव में हमारी इतिहास विषयक जानकारी अधूरी रह जाती है। स्तम्भ लेखों में हेलियाडोरस का विदिशा स्तम्भ लेख, समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति, चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तम्भ लेख तथा स्कंदगुप्त का भीतरी स्तंभलेख ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण जानकारियों से परिपूर्ण है।
गुहालेख – प्राचीनकालीन भारत में भिक्षु तथा साधु संत जो गुफाओं में निवास करते थे इन गुफाओं के मुख्य द्वार के अगले हिस्से को सपाट करवाकर समय-समय पर राजाओं के द्वारा अति महत्वपूर्ण लेख उत्कीर्ण किए गए हैं। गुहा लेखों की संख्या 7 हैं। अशोक के द्वारा तीन गुहा लेख बनवाए गए थे। तथा अशोक के पोते दशरथ के द्वारा 3 गुहालेख बनवाए गए थे। गुहा लेखों में अशोक के बाराबर गुहा लेख, दशरथ के नागार्जुनी गुहालेख, सातवाहनों के नासिक, नानाघाट आदि गुहा लेख उल्लेखनीय
है।
Source-www.dreamstime.com/www.wikipedia.org.com
ताम्रपत्र लेख – ताम्रपत्र लेखों में दान अथवा पारितोषिक देने वाले राजा का नाम, वंश तथा उसकी अनेक उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। प्राचीनकालीन भारत में जब राजा द्वारा किसी व्यक्ति को भूमि दान अथवा पारितोषिक देने की घोषणा की जाती थी तो इसका विवरण ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण कर संबंधित व्यक्ति को दे दिया जाता था। इन ताम्रपत्रों का प्रयोग प्रमाण-पत्रों के रूप में होता था।
ताम्रपत्र लेखों से गुप्तकालीन इतिहास के विषय में अति महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं। भारी संख्या में उपलब्ध हुए पूर्व मध्यकालीन भूमिदान पत्रों से इतिहासकारों द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया कि भारत में पूर्व मध्यकाल अथवा 600 से 1200 ई. के बीच सामंतवादी व्यवस्था अस्तित्व में आ गई थी।
मूर्तिलेख– मूर्तिलेख में मूर्तियों के शीर्ष अथवा अधोभाग पर कभी-कभी कुछ लेख मिलते हैं। मूर्तियों पर अंकित तिथियों से मूर्ति प्रतिष्ठा के समय के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। जिससे मूर्तिकला के विकास पर यथोचित प्रकाश पड़ता है। गुप्तवंशीय रामगुप्त की ऐतिहासिकता का निर्विवाद साक्ष्य दुर्जनपुर (मध्यप्रदेश) से प्राप्त जैनमूर्ति लेखों से मिलता है, जिसमें उसे “महाराजाधिराज’’ कहा गया है। पुरातात्विक स्रोतों के अंतर्गत मूर्तिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं।
अभिलेखों में प्रयुक्त लिपियों का अध्ययन –
अभिलेखों की विषय-वस्तु–
धार्मिक अभिलेख- ऐसे अभिलेखों में बहुधा धार्मिक चर्चा की गई है। प्रसंगवश अन्य बातों का उल्लेख मिल जाता है। उसका उद्देश्य धार्मिक कार्य का प्रसार माना जा सकता है, जैसे अशोक का धम्म लेख।
प्रशंसामय अभिलेख– शासक की प्रशंसा ही इसका उद्देश्य होता है। घटनाओं का उल्लेख इस तरह किया जाता है कि उससे शासक के जीवन पर प्रकाश पड़ता है। यशोधर्मन का मंदसोर लेख समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ-लेख, हरहा तथा ऐहोल की प्रशस्ति इसके उदाहरण हैं।
स्मारक लेख– अशोक का लुम्बिनी लेख, शासक द्वारा किसी घटना की स्मृति स्वरूप स्मारक में अभिलेख खुदवाया हो।
आज्ञापत्र–दामोदरपुर (उत्तरी बंगाल) तथा नालंदा के ताम्रपत्र।
दानपत्र – बाराबर का गुहा लेख।
7 वीं सदी से 90 फीसदी तामपत्र दानपत्र के रूप में उत्कीर्ण हैं।
सारांश–सम्पूर्ण व्याख्यान का सारांश यह कि प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी मुख्यत: तीन स्रोतों से मिलती है यथा पुरातात्विक स्रोत, साहित्यिक स्रोत व विदेशी विवरण। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्रोत हैं। इसके अंतर्गत अभिलेख सबसे ज्यादा विश्वसनीय माने जाते है। अभिलेख अधिकांशत: शिलाओं, स्तंभों, ताम्रपत्रों,मुद्राओं, पात्रों, मूर्तियों, एवं गुहाओं में खुदे हुए मिलते है जो प्राचीन काल में राजाओं द्वारा किसी विशेष प्रयोजन के लिए लिखवाए जाते थे। इन अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेख शास्त्रके नाम से जाना जाता है।
मध्य एशिया के बोगजकोई से सबसे प्राचीन अभिलेख प्राप्त होते हैं, वहीं भारत में सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के हैं जो तीसरी शताब्दी के हैं। इसके बाद गुप्त काल, खारवेल, रुद्रदामन, यशोवर्मन, पुलकेशीन द्वितीय, हेलियोडोरस, सातवाहन, मैसूर आदि अनेक अभिलेखों की विशाल श्रंखला प्राप्त होती हैं जो भारत के इतिहास निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सर्वप्रथम अशोक के अभिलेखों को पढ़ने का श्रेय जेम्स प्रिंसेप (1837 में) को जाता है।
याद रखने योग्य बिन्दु :
अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेखशास्त्र के नाम से जाना जाता है।
बोगजकोई से सबसे प्राचीन अभिलेख प्राप्त होते हैं।
सिंधु -सरस्वती सभ्यता के चित्राक्षार लिपि को अब तक पढ़ा नहीं जा सका।
भारत में ब्राम्ही तथा भारत के बाहर खरोष्ठी तथा आरमाईक लिपि पाई गई।
ब्राम्ही लिपि से ही भारत के अन्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई।
सर्वप्रथम अशोक के अभिलेखों को पढ़ने का श्रेय जेम्स प्रिंसेप (1837 में) को जाता है।
इसके बाद गुप्त काल, खारवेल, रुद्रदामन, यशोवर्मन,पुलकेशीन द्वितीय, हेलियोडोरस, इतिहास निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।