प्रस्तर युग –(पाषाण काल) मानव की उत्पति एवं विकास / Stone Age / Prehistoric Period
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प्रस्तर युग –(पाषाण काल)मानव की उत्पति एवं विकास
मानव धरती पर संभवत: अतीनूतन युग के आरंभ में पैदा हुआ। इसी समय गाय, हाथी और घोड़ा आदि का उद्भव भी हुआ। अधिकांश विद्वानों का मत है कि आज से लगभग 50 हजार से 1 लाख वर्ष पूर्व या इससे भी पहले primates (नर वानर) से ऐसे प्राणी का जन्म हुआ जो मानव के समान था। धीरे-धीरे ये प्राणी वृक्षों से उतरकर अपने पिछले पैरों पर खड़े होकर चलना सीख गए और पृथ्वी पर ही रहने लगे।
प्राईमेटस का अर्थ – मनुष्य सदृश्य वानर
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इसके अंतर्गत बंदरों, लंगूरों, वनमानुषों तथा इस तरह के स्तनधारी जीवों को शामिल किया जाता है। प्राईमेटस से ही आधुनिक मानव का विकास हुआ है। ये प्राणी आज से लगभग 80 लाख वर्ष पूर्व पूर्वी आफ़्रीका में निवास करते थे।
आदि मानव का मूल निवास स्थान –
आस्ट्रेलोपिथेकस
नर वानर दक्षिण अफ़्रीका
जिन्जनथरोपस
नर वानर पूर्वी अफ्रीका
जावा मानव
जावा
पेकिंग मानव
चीन
निएन्डरथल मानव
जर्मनी
पिल्टडाउन मानव
इंग्लैंड
क्रोमोगनन मानव
फ्रांस
होमोसेपिएन्स मानव
पामीर
प्रागैतिहासिक काल –
मानव और उसकी विभिन्न उपलब्धियों का सम्पूर्ण लेखा जोखा या दस्तावेज इतिहास कहलाता है। इन दस्तावेजों के कुछ भाग साहित्यिक अथवा लिखित रूप में मिलते हैं जिन्हे हम इतिहास कहते हैं। यह जानकारी मानव जाति की उपलब्धियों के केवल पिछले 5000 वर्ष तक की जानकारी देते है। इसके अतिरिक्त कुछ अलिखित स्रोत हैं जैसे अस्थि -पंजर, औजार, खंडहर, स्मारक, चित्रकारी, बर्तन आदि जिनसे हमें प्रागैतिहासिक काल के विषय में जानकारी मिलती है। यह युग कई वर्षों पूर्व का हो सकता है जिसे हम प्रागैतिहासिक काल के नाम से जानते हैं।
मानव के विकास का प्राचीन इतिहास 6 युगों में विभाजित किया गया है जिसका आधार विभिन्न प्रकार के पदार्थों का उपयोग है । जो निम्नवत है-
पुरापाषण काल (Paleolithic Age)
मध्य पाषाण काल (Mesolithic Age)
नव पाषाण काल (Neolithic Age)
ताम्र काल
कांस्य काल
लौह काल
भारत का प्राचीन मानव अन्य स्थानों की भांति इन विभिन्न युगों से गुजरा। फिर भी कुछ क्षेत्रों में ऐसा प्रतीत होता है कि वह कांस्य युग से नहीं गुजरा। भारत में आदिमानव पत्थर के अनगढ़ और अपरिष्कृत औजारों का प्रयोग करता था। मानव की विभिन्न युगों की स्थिति को जानने के लिए प्रत्येक युग के विषय में विस्तृत जानना आवश्यक है।
पुरापाषाण युग की अवस्थाएं –
भारतीय पुरापाषाण काल को तीन भागों में बांटा गया है-
1.1
पूर्व या निम्न पुरापाषण काल
5,00000 ई. पू. से 50,000 ई. पु. के मध्यप्रमुख विशेषताएं –इस काल में मानव मूलत: क्वार्टजाईट पत्थर का उपयोग करते थे । उपकरणों को 2 भागों में बांटा जा सकता है –1 चापर – चापिंग (पेबुल संस्कृति)इस संस्कृति से संबंधित उपकरण सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी से प्राप्त हुए हैं। इसी कारण इसे सोहन संस्कृति भी कहा जाता है।2 हैंड – एक्स संस्कृति –इसके उपकरण सर्व प्रथम मद्रास (आधुनिक चेन्नई) के समीप बादामदुराई तथा अतिरम्मपक्कम से प्राप्त हुए हैं। इसे मद्रास संस्कृति भी कहते हैं।उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के बेलन घाटी में इस काल के औजार पाए गए। मध्य प्रदेश के भोपाल के पास भीमबेटका की गुफाओं और शैलआश्रयों में लगभग 1,00000 ई. पू. के औजार प्राप्त हुए है।मध्यप्रदेश के मध्य नर्मदा घाटी (होशंगाबाद) ,हथनौरा से एक मानव की खोपड़ी ( भारत का एक मात्र मानव जीवाश्म ) प्राप्त हुआ है।
1.2
मध्य पुरा पाषाण काल
50,000 ई. पू. से 40,000 ई. पू. के मध्यप्रमुख विशेषताएं –क्वार्टजाईट पत्थरों के स्थान पर जैस्पर, चर्ट, फ्लिंट आदि का प्रयोग होने लगा।फलक उपकरण की प्रधानता के कारण इस काल को फलक संस्कृति की संज्ञा दे गई। फलक एक प्रकार का पत्थर होता था जिसे तोड़कर बनाया जाता था। मध्य पुरा पाषाण काल में मुख्यत: पत्थर की पपड़ी से बनी वस्तुओं का उपयोग होता था। इस युग के मुख्य औजार पपड़ियों के बने विविध प्रकार के फलक, वेधनी, छेदनी और खुरचनी हैं। इस काल में कुत्ते को पालतू बनाया गया तथा शृंगार साधनों का प्रयोग होने लगा था। शल्क संस्कृति
1.3
उच्च पुरा पाषाण काल
40,000 ई. पू. से 10,000 ई. पू. के मध्य तकइस युग के उपकरण ब्लेड की तरह पतले व धारयुक्त होते थे। उच्च पुरा पाषाण अवस्था के विश्व व्यापी संदर्भ में दो विशेषताएं हैं – 1. नए चकमक उद्योग की स्थापना 2. आधुनिक मानव (होमोसेपिएन्स) का उदय। शल्क-फलक संस्कृति
2. मध्य पाषाण काल – ( आखेटक और पशुपालक) – समय – 9,000 ई. पू. के आसपास –
विशेषताएं –
भारत में मध्य पाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम सी. एल. कारलाईल द्वारा सन 1867 ई. में विंध्य क्षेत्र से लघु पाषाण उपकरण खोजे जाने से हुई।
मध्य पाषाण युग के लोग शिकार कर, मछली पकड़कर और खाद्य वस्तुओं का संग्रह कर जीवन-यापन करते थे। मध्य पाषाण युग के विशिष्ट औजारों में सूक्ष्म -पाषाण के बहुत छोटे औजार ( माईक्रोलिथ) प्रमुख हैं।
मध्य पाषाण स्थल राजस्थान, दक्षिण उत्तर प्रदेश, मध्य और पूर्वी भारत में अत्यधिक मात्रा में पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थल दक्षिण में कृष्णा नदी के दक्षिण में भी पाए गए हैं।
भारत में मानव अस्थिपंजर मध्य पाषाण काल से ही प्राप्त हुए हैं।
भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के तट पर स्थित बागोर भारत का सबसे बड़ा मध्यपाषाणिक स्थल है।
मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान में बागोर पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
इसका समय लगभग 5,000 ई. पू. का हो सकता है।
संभवत: इस काल में मानव मिट्टी के बर्तन बनाने की कला से परिचित हो गए थे।
3. नव पाषाण काल – (नियोलिथिक एज ) – खाद्य -उत्पादक –
समय बीतने के साथ ही मानव ने बुद्धि का विकास किया और प्रकृति की शक्तियों पर अधिक विजय प्राप्त की और एक नई सभ्यता का विकास किया जिसे नवीन पाषाण युग कहा गया। प्राचीन पाषाण युग की तुलना में अधिक परिष्कृत औजार थे। जो कि काले रंग के चट्टानों से बनाए जाते थे। जो क्वार्टजाईट की तुलना में अधिक मजबूत थे।
भारत में नवपाषाण काल के स्थल झीलों,नदियों, समुद्रों के किनारे, खनिज स्थलों के किनारे पाए गए हैं।
इस काल के औजार अनेक प्रकार के हैं – ब्रूसफ्रूट ने इन्हे 78 किस्मों में बांटा है जिसमें 41 पालिश वाले तथा 37 बिना पालिश के हैं।
नव पाषाण काल को खोजने का श्रेय डा प्राईमरोज को जाता है। जिन्होंने 1842 ई में कर्नाटक के लिंगसुगुर नामक स्थल से उपकरण खोजे थे।
सर्वप्रथम 1880 ई में ला मसूरिए ने इस काल के प्रथम प्रस्तर उपकरण उत्तरप्रदेश की टोंस नदी घाटी में प्राप्त किए।
नवपाषाण काल की एक ऐसी बस्ती मिली है, जिसका समय लगभग 7,000 ई. पू. बताया जाता है। इस काल के प्राचीनतम बस्ती बलूचिस्तान के मेहरगढ़ में है।
मेहरगढ़ में कृषि के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं।
इलाहाबाद में स्थित कोलडिहवा एकमात्र ऐसा नवपाषाणकालिक पुरास्थल है, जहां से चावल या धान के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
नव पाषाण युग के निवासी सबसे पुराने कृषक समुदाय थे जो स्थाई रूप से घर बनाकर रहते थे।
इस काल में कृषि व पशु पालने के साथ ही मिट्टी के बर्तन उपयोग में लाने लगे थे।
बुर्ज होम (कश्मीर) के लोग खुरदुरे धूसर मृदभांड प्रयोग करते थे।
पहिये का आविष्कार इसी काल की देन है।
तांबे का आविष्कार संभवत: इसी काल में लगभग 5,000 ई. पू. में किया गया।
ताम्र युगीन संस्कृति ने ही सबसे पहले ग्रामीण सभ्यता का विकास भारत में किया था।
नवपाषाण काल में लोग पत्थर के पालिशदार औजारों और हथियारों का प्रयोग में विशेषत: कुल्हाड़ी का प्रयोग करते थे।
इस का मे बुर्जहोम में जोड़े में शवदाह का प्रमाण मिलता है।
कुम्हार की गुफा के साक्ष्य । इस काल के लोग ग्रेनाईट की चटटानों में रहते थे।
भोजन के रूप में फल, सब्जियां, मछली, कंदमूल, बीज, जंगली डालें तथा अनाज लेते थे।
प्रमुख व्यवसाय शिकार करना तथा मछली पकड़ना था।
कुत्ता, गए, बिल और बकरी आदि पशु पाले जाते थे।
इस काल में कपास व ऊन का आविष्कार कर लिया गया था।
मानव ने इस काल में मृतक के अंतिम संस्कार दाह संस्कार तथा राख को नदियों में विसर्जन करना सीख लिया था।
डा आर सी मजूमदार के अनुसार – ‘ यद्यपि भारत में प्रारम्भिक युग के कांस्य के औजार, तांबे के औजारों के साथ मिले हैं, परंतु ऐसे संकेत नहीं मिलते कि तांबे से अलग केवल कांस्य का प्रयोग होता था। वास्तव में भारत में कोई कांस्य युग एक पृथक युग नहीं था। ’’
धातुओं की खोज से एक नए युग का सूत्रपात हुआ। सबसे पहली धातु जिसकी खोज हुई ,सोना था जिसका प्रयोग आभूषण बनाने के लिए नवपाषाण युग के लोगों के द्वारा भी होता था। भारत में सबसे पहले दक्षिण भारत में सोने की खोज हुई और मिस्र, मैसोपोटामिया और सिंधु घाटी के लोगों ने इसे यहाँ से आयात किया। मैसोपोटामियाके एक चाल्डियान स्तम्भ लेख से पता चलता है कि शहर से जहाज दूर-दूर जाते थे और भारत से सोना ले जाते थे जिसका प्रयोग सजावट के लिए किया जाता था।
दूसरी धातु जिसका प्रयोग होने लगा, तांबा थी। इसका प्रयोग औजार बनाने के लिए पत्थरों की कैंची के रूप में होता था। इसकी खोज पहले कहाँ हुई, इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। शायद इसकी खोज अनेक देशों में अलग-अलग हुई।
भारत में विभिन्न भागों में धातुओं का प्रयोग एक समान नहीं था। उत्तरी भारत में पत्थरों के स्थान पर औजार बनाने के लिए तांबे का प्रयोग होने लगा। कई शताब्दियों बाद उत्तरी भारत में लोहे के विषय में जाना गया और तांबे के स्थान पर लोहे का प्रयोग किया जाने लगा।
दक्षिण भारत में लौह युग पाषाण युग के तुरंत बाद आरंभ हो गया और इसके मध्य में ताम्र युग नहीं आया। ताम्र और लौह युग की एक प्रमुख विशेषता थी कि लोगों ने शिकार करना तथा चारागाही जीवन छोड़कर कृषि करना आरंभ कर दिया।
फिर भी यह याद रखना चाहिए कि भारत में सिंध के अतिरिक्त ऐसे चिन्ह और कहीं नहीं मिलते, जहां पाषाण युग और लौह युग के बीच में कांस्य युग आया।
तांबे का आविष्कार संभवत: इसी काल में लगभग 5,000 ई. पू. में किया गया।
ताम्र युगीन संस्कृति ने ही सबसे पहले ग्रामीण सभ्यता का विकास भारत में किया था।
हड़प्पा की कांस्य युगीन संस्कृति से पहले की है, परंतु कालानुक्रमानुसार भारत में हड़प्पा की कांस्य संस्कृति पहले और ताम्र पाषाण संस्कृति बाद में आती है।
मालवा ताम्र पाषाण संस्कृति के मृदभांड उत्तम कोटी के है।
जोरवे संस्कृति ग्रामीण थी, लेकिन उसकी कई बस्तियां जैसे डैमाबाद, और इनामगांव में नगरीकरण की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी।
सर्व प्रथम चित्रित मृदभांड़ों का प्रयोग जिसमें काले व लाल मृदभांड मुख्य थे।
इनामगॉव में बड़ी मात्रा में मातृदेवी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
इस काल में कच्ची ईंटों के मकानों में रहते थे।
ताम्र और लौह युग के आरंभ से प्रागैतिहासिक काल का अंत होता है। और यही से इतिहास की सीमाएं आरंभ होती है। आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि जब ऋग्वेद की रचना हुई तो लौह युग आरंभ हो चुका था। वास्तव में अब हमारे सामने एक अन्य सभ्यता का उदाहरण है, जो ताम्र युग में फली -फूली, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाता है जिसके विषय में हम विस्तार से आगे के अध्याय में अध्ययन करेंगे।