पूर्वी समस्या – रूस -तुर्की युध्द-
आशय– 19वीं शता. के प्रारंभ में यूरोप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण तथा गम्भीर अंतर्राष्ट्रीय प्रश्न सामने आया, जिसका सम्बंध पूर्वी देशों से है। जिन देशो की आंतरिक व अभ्यांतरिक स्थिति का प्रभाव यूरोप की राजनीति से है, उसे हम पूर्वी समस्या कहते हैं।
रूसियो के अनुसार “जिसका सम्पर्क धर्म तथा राजनीति से है, उसे भी हम पूर्वी समस्या कहते हैं।”
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लार्ड मार्ले के अनुसार – “यह बदली हुई न सुलझने वाली, पेचिदा और उलझी हुई है, उसे सीधे-सादे शब्दों में पूर्वी समस्या कहते हैं, 19वीं शता. में अनेक बार प्रमुखता से आई और इन्हे ही पूर्वी समस्या के पहलू कह सकते हैं।’
आगे उन्होने व्याख्या किया है कि – “पूर्वी समस्या एक गठिया रोग की भांति है, जो कभी टांगो को और कभी हाथो को अशक्त करता है। जिसमें विभिन्न रूचि व धर्म की जातियो का प्रश्न निहित है।”
पूर्वी समस्या की वास्तविकता में बाल्कन प्रायद्वीप की जातियों की राष्ट्रीय चेतना, तुर्क साम्राज्य का पतन तथा यूरोपीयो का निजी स्वार्थ मुख्य है। तुर्क साम्राज्य के यूरोप के हट जाने पर उसके राज्य और अधीनस्थ जातियो का क्या भविष्य होगा में विभक्त किया जा सकता है। टर्की ,बाल्कन तथा यूरोप के राज्यो से सम्बंधित ‘ निकट -पूर्वी समस्या” कहलाती है।
19वीं तथा 20वीं शता. के फारस, अफगानिस्तान तथा पश्चिमी एशिया के देशों के पूर्वी देशों के सम्बंध में उत्पन्न होने वाली अंतर्राष्ट्रीय प्रश्नों का सामूहिक नाम “ मध्य -पूर्वी समस्या ” है।
इसी प्रकार चीन, जापान, तथा एशिया के अन्य पूर्वी देशो के सम्बंध में उत्पन्न होने वाली अंतर्राष्ट्रीय कठिनाईयां ‘सुदूर- पूर्वी समस्या” कहलाती है।
हम यहां निकट-पूर्वी समस्या का विवेचन करेंगे जिसके अंतर्गत टर्की की पतनोन्मुखी स्थिति, बाल्कन जातियो की राष्ट्रीय भावनाओ से प्रेरित आंदोलन तथा यूरोप की जातियो की तत्सम्बंध में सतर्कता, प्रगतिशीलता आदि आती हैं।
तुर्क साम्राज्य और निकट-पूर्वी समस्या –
क्रीमिया का युद्ध (जुलाई, 1853 – सितंबर, 1855) तक काला सागर के आसपास चला युद्ध था, जिसमें फ्रांस, ब्रिटेन, सारडीनिया, तुर्की ने एक तरफ़ तथा रूस ने दूसरी तरफ़ से लड़ा था। ‘क्रीमिया की लड़ाई’ को इतिहास के सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण तथा अनिर्णायक युद्धों में से एक माना जाता है। युद्ध का कारण स्लाववादी राष्ट्रीयता की भावना थी|
तुर्क साम्राज्य का यूरोप में प्रभुत्व प्राचीन काल से चला आ रहा है जिसकी उत्तरोत्तर वृध्दि 8वीं सदी से 18वीं सदी तक होती रही। उसके विशाल साम्राज्य की सीमा 18वीं शता. तक नीस्टर तक पहुंच गई जिसमें बाल्कन प्रायद्वीप के सभी राज्य, इजीप्सियन सागर के लगभग सभी द्वीप, मिस्र, अल्जीयर्स, एशिया माईनर, सीरिया, पैलेस्टाईन, मैसोपोटामिया, आर्मिनिया, अरब देश आदि सम्मिलित थे। भूमध्य सागर एक प्रकार से “तुर्की झील” बन गया था।
लेकिन 19वीं के आरम्भ तक आस्ट्रीया ने हंगरी से और रूस ने काला सागर के तटीय भागों से तुर्कों की सत्ता समाप्त कर दी। फिर भी 1815 ई. तक तुर्क साम्राज्य में बाल्कन प्रायद्वीप, एशिया माईनर, सीरिया, मिस्र, ट्रिपोली, ट्युनिश और अल्जीरिया रह गए थे। क्रीमिया का युध्द होने से पूर्व टर्की साम्राज्य में अनेक गतिविधियां घटित हुई जिनमें प्रमुख रूप से निम्न थे-
1. जाति, धर्म और शासन की व्यवस्था
2. राष्ट्रीय भावना का उदय
3. यूरोप के राज्यों का पूर्वी समस्या के प्रति दृष्टिकोण आदि सम्मिलित थे।
16वीं शताब्दी के आते-आते तुर्क या ऑटोमन साम्राज्य ने यूरोप के दक्षिण-पूर्व में स्थित बाल्कन प्रायद्वीप के सभी देशों पर कब्जा जमा लिया था। इसी यूरोपीय बाल्कन प्रदेश में रूमानिया, बुल्गारिया, मकदूनिया, अलबानिया तथा यूनान के प्रदेश शामिल थे और इन पर तुर्कों का आधिपत्य था। बाल्कन प्रदेश की बहुसंख्यक जनता स्लाव प्रजाति की थी जो ईसाई धर्म से सम्बन्धित थी और ग्रीक चर्च के सिद्धान्तों का पालन करती थी।
ऑटोमन साम्राज्य इन ईसाइयों पर अत्याचार करता था। 18वीं शताब्दी तक तुर्की समाज अति विशाल था और शक्तिशाली बना रहा किन्तु तुर्की सुल्तानों की विलासी प्रवृति, अत्याचार के कारण यह विशाल साम्राज्य पतन की और अग्रसर हो चला था। बाल्कन प्रदेश में रहने वाली विभिन्न जातियाँ अपनी स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन करने लगी। 19वीं शताब्दी में साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया उत्तरोत्तर बढ़ती गई। धीरे-धीरे तुर्की की हालत इतनी खराब हो गई कि उसे “यूरोप का मरीज” कहा जाने लगा। फलतः यूरोप के प्रमुख राष्ट्र जैसे रूस, फ्रांस आदि उसकी पतनोन्मुख अवस्था से लाभ उठाने का प्रयत्न करने लगे। यूरोप के प्रमुख राष्ट्रों- रूस, ब्रिटेन, आस्ट्रिया, फ्रांस की ऑटोमन साम्राज्य में विविध कारणों से रूचि थी,जिसके फलस्वरूप युध्द की स्थिति निर्मित हुई |
क्रीमिया युध्द के प्रमुख कारण –
1. रूस का स्वार्थ-
रूस के व्यापारिक हित तथा विस्तारवादी लाभ ऑटोमन साम्राज्य से जुड़े हुए थे। रूस के पास व्यापार करने के लिए समुद्री तट नहीं था। उसके उत्तरी सीमा का समुद्री तट लगभग पूरे वर्ष बर्प से जमा रहता था। अतः वहाँ नौका चालन सम्भव नहीं था। अतः रूस काला सागर पर प्रभाव जमाना चाहता था। साथ ही तुर्की साम्राज्य में स्थित डार्डेनलीज एवं बासफोसर के जलडमरूमध्य पर अधिकार चाहता था। इस कारण रूस तुर्की साम्राज्य का विघटन करना चाहता था। इसके अलावा बाल्कन क्षेत्र के स्लाव-प्रजाति के निवासी ग्रीक चर्च के अनुयायी थे और रूस का राजधर्म भी ग्रीक चर्च था और वहाँ स्लाव जाति का बाहुल्य था। इस तरह रूस का बाल्कन निवासियों के साथ गहरा प्रजाति और धार्मिक सम्बन्ध था। वह इन्हें तुर्की के विरूद्ध भड़काकर अपना प्रभाव जमाना चाहता था। 1844 में रूस के जार निकोलस प्रथम ने ब्रिटेन के विदेश मंत्री लाईएबर्डीन से कहा कि “तुर्की यूरोप का बीमार आदमी है। अतः उसके मरने से पहले सम्पत्ति का बंटवारा कर लेना चाहिए।”
2. ब्रिटेन का स्वार्थ-
तुर्की साम्राज्य को रूस के प्रभाव क्षेत्र से दूर रखना ही ब्रिटेन की प्रमुख नीति रही। अतः वह तुर्की साम्राज्य की प्रादेशिक अखंडता को बनाए रखना चाहता था। ब्रिटेन भलीभांति जानता था कि यदि रूस का प्रभाव तुर्की पर पड़ता है तो उससे ब्रिटेन के अफ्रीका स्थित उपनिवेश तथा भारतीय उपनिवेश को खतरा उत्पन्न हो सकता है। यही वजह है कि ब्रिटेन ने अधिकांश अवसरों पर रूस का विरोध किया तथा तुर्की का समर्थन किया। इंग्लैण्ड की नजर में भारतीय साम्राजय की सुरक्षा के लिए ऑटोमन साम्राज्य के अस्तित्व का बना रहना आवश्यक था। इस कारण इंग्लैण्ड किसी भी कीमत पर “यूरोप के मरीज” को जीवित रखने के लिए कटिबद्ध था।
3. ऑस्ट्रिया का स्वार्थ-
ऑस्ट्रिया पूर्वी क्षेत्र में रूस को अपना प्रतिद्वन्द्वी मानता था। ऑस्ट्रिया का साम्राज्य चारों ओर जमीन से घिरा हुआ था। समुद्री व्यापार के लिए उसके पास एड्रियाटिक सागर का छोटा-सा कोना था। रूस की तरह ऑस्ट्रिया भी डार्डेनलीज एवं बासफोरस के जलमार्गों पर अपना अधिकार चाहता था।
4. फ्रांस का स्वार्थ-
फ्रांस को दो कारणों से तुर्की साम्राज्य में दिलचस्पी थी। एक कैथोलिक धर्म का अनुयायी फ्रांस ऑटोमन तुर्की साम्राज्य में स्थित कैथोलिक धर्म केन्द्रों पर अपना नियंत्रण चाहता था। दूसरा तुर्की साम्राज्य एवं उसके अधिकार क्षेत्रों में आने वाले प्रदेशों में फ्रांस अपने व्यापार की वृद्धि चाहता था। फ्रांस मुख्यतः मिस्त्र और सीरिया में व्यापार बढ़ाने का इच्छुक था। इन प्रदेशों में तुर्की सुल्तान के प्रतिनिधि राज्य करते थे जो पाशा कहलाते थे। फ्रांस सदैव इन पाशाओं को तुर्की के खिलाफ सहायता और समर्थन देकर मजबूत करता रहता था। पाशा का साथ देने का मतलब था, तुर्की साम्राज्य के विघटन को बढ़ावा देना।
5. जर्मनी का स्वार्थ-
जर्मनी का एकीकरण 1871 में सम्पन्न हुआ। एकीकरण के पश्चात भी जर्मनी के चान्सलर बिस्मार्क ने आरंभ में पूर्वी समस्या में कोई रूचि प्रकटन नहीं की। बिस्मार्क कहता था कि तुर्की से आने वाली डाक मैं खोलता ही नहीं लेकिन 1878 में बर्लिन कांगे्रस में उसने पूर्वी समस्या का समाधान खोजने का प्रयास किया तथा कहा “मैंने इसमें ईमानदार दलाल”की भूमिका का निर्वाह किया है।
6. इटली का स्वार्थ-
इटली के कावूर ने पूर्वी समस्या में रूचि ली तथा क्रीमिया के युद्ध में फ्रांस का साथ दिया और इस तरह के एकीकरण में अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल किया।
7. यूनान की स्वतंत्रता –
प्रजातंत्र और राष्ट्रवादी की भावना से पे्ररित होकर यूनानी प्रजा ने टर्की के विरूद्ध आवाज उठायी और अपनी स्वतंत्रता की मांग की। यूनानियों ने 1821में टर्की के खिलाफ विद्रोह कर दिया। यह घटना यूनान के स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत थी। इस संग्राम में यूनानियों को इंग्लैण्ड और रूस का समर्थन मिला। 1832 में यूनान एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया।
क्रीमिया का युद्ध -(रूस- तुर्की युध्द) – 1853 – 56 ई.
स्वरूप –
-क्रीमिया का युद्ध भी पूर्वी समस्या से संबंधित था। वस्तुतः रूस, बीमार तुर्की का विघटन कर उसका एक बड़ा भाग स्वयं पाना चाहता था।
– 1740 ई. के एक समझौते के अनुसार यरूशलम के पवित्र स्थल के रोमन चर्च को फ्रांस के संरक्षण में रखा गया था। किन्तु इस समझौते का उल्लंघन कर ग्रीक चर्च के पादरियों ने रोमन पादरियों का हक छीन लिया था। ग्रीक चर्च का संरक्षक रूसी जार था।
– इस कारण नेपोलियन तृतीय ने रोमन पादरियों का पक्ष लेते हुए मामले में हस्तक्षेप किया। वस्तुतः फ्रांस के नेपोलियन तृतीय का उद्देश्य फ्रांस को यूरोप का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाकर गौरव और कीर्ति हासिल करना था।
– फ्रांस में नेपोलियन तृतीत का उद्देश्य फ्रांस को यूरोप का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र बनाकर गौरव और कीर्ति हासिल करना था।
– फ्रांस में नेपोलियन तृतीय के प्रबल समर्थक रोमन कैथोलिक चर्च के लोग थे जिन्हें वह हर कीमत पर खुश करना चाहता था। इसके अलावा नेपोलियन तृतीय अपने पूर्वज नेपोलियन प्रथम की मास्को पराजय को भूला नहीं था और वह इस पराजय का बदला लेना चाहता था। इन सभी कारणों से फ्रांस ने रूस के विरूद्ध युद्ध किया।
– इन परिस्थिति में नोपोलियन तृतीय ने रोमन पादरियों का पक्ष लेते हुए यरूशलम से उनके अतिक्रमित अधिकारियों को लौटाने की मांग की ओर तुर्की के सुल्तान पर दबाव डालने लगा कि वह इस सम्बन्ध में उचित कारवाही करें क्योंकि यरूशलम तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत पड़ता था।
– रूस ने इस मांग का विरोध किया और कहा कि ग्रीक पादरियों के अधिकारों में कोई कटौती न हो तथा तुर्की सुल्तान अपनी सारी ईसाई प्रजाओं का संरक्षक रूसी जार को मान ले।
– ब्रिटेन भी इस विवाद में शामिल हो गया। ब्रिटेन का प्रोत्साहन पाकर तुर्की ने रूसी मांगों को अस्वीकृत कर दिया। इस पर रूस ने तुर्की पर आक्रमण किया और तुर्की का पक्ष लेते हुए ब्रिटेन और फ्रांस भी युद्ध में शामिल हो गए।
– अंततः दोनों पक्षों के बीच 1856 में पेरिस की सन्धि हुई जिसके तहत टर्की साम्राज्य की प्रादेशिक अखंडता को बनाए रखने का वादा किया।
– काला सागर में रूस के युद्धपोतों को रखे जाने पर पाबन्दी लगा दी गई।
क्रीमिया युद्ध के परिणाम –
1. ब्रिटिश नेता सर राबर्ट मारिया के अनुसार यह एक ऐसा आधुनिक युद्ध था जो पूर्णतः बेकार लड़ा गया।
2. फ्रांसीसी लेखक थीए ने कहा कि “क्रीमिया का युद्ध घटिया, शोक संतप्त और मनहूस पादरियों को एक धार्मिक गुफा की चाबियाँ सौंपने का युद्ध था।”
इस युद्ध को व्यर्थ और बेकार इसलिए माना जाता है क्योंकि इससे न तो तुर्की साम्राज्य को विघटन से बचाया जा सका और न रूस की साम्राज्यवादी मंसूबे को सदा के लिए नियंत्रित किया जा सका। तुर्की साम्राज्य की ईसाई प्रजा पर अत्याचार होता रहा।
3. बाल्कन और काला सागर में रूस की दिलचस्पी में कोई कमी नहीं आई। सर्बिया को स्वशासन मिलने की बात ने इस क्षेत्र की जनता के मन में अपनी स्थिति को और अधिक बेहतर बनाने अर्थात् पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने की अभिलाषा जागृत कर दी। फलतः ऑटोमन साम्राज्य के विघटन को प्रोत्साहन मिला।
4. मुद्दों के दृष्टिकोण से यह युद्ध चाहे व्यर्थ का माना जाए किन्तु परिणामों की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा।
5. पीडमान्ट-सार्डीनिया को क्रिमिया युद्ध से लाभ हुआ। उसने फ्रांस और इंग्लैण्ड का पक्ष लेकर पेरिस शान्ति सम्मेलन में अपना स्थान सुरक्षित किया और इटली के एकीकरण के प्रश्न को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया।
6. फ्रांस की मदद से इटली ने अपने एकीकरण के चरण को पूरा किया। इतना ही नहीं क्रीमिया युद्ध ने 1815 ई. की वियना व्यवस्था की नींव को हिला दिया। युद्ध के बाद परिवर्तन का विरोध करने वाली शक्तियाँ बहुत कमजोर पड़ गई थी।.
7. इस युद्ध से रेडक्रॉस जैसी संस्थाओं का जन्म हुआ। इस सम्बन्ध में फ्लोरेंस नाइटेंगल का नाम उल्लेखनीय है। उसने घायल सैनिकों की सेवा की।
8 – यह पहला युद्ध था जिसमें महिलाओं ने युद्ध सैनिक नर्सों के रूप में स्थान पाया।
– यह पहला युद्ध था जिसमें तार तथा छापेखाने ने घटनाक्रम पर असर डाला।
– यह पहला युद्ध था जिसका पूरा लेखा-जोखा संवाददाताओं द्वारा अखबारों में प्रस्तुत किया गया।
– यह पहला युद्ध था जिसमें ब्रिटेन और फ्रांस एक साथ एक पक्ष की ओर से लड़े क्योंकि वह समझते थे कि पूर्वी भूमध्यसागर में उनके हितों को रूस से खतरा है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि इस युध्द से अस्थाई रूप से तुर्की सुल्तान को यूरोपीय राज्यो की सदस्यता प्राप्त हो गई और उसके राज्य को जीवित रहने तथा सुधार करने का अच्छा अवसर मिल गया। रूस ने, जो भूमध्यसागर तक अपना प्रभाव – क्षेत्र बनाना चाहता था,पेरिस संधि के द्वारा अवरोध उत्पन्न कर दिया। इस युध्द को विद्वानो ने 19वीं सदी का बुध्दिहीन युध्द भी कहा है।
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