जैन धर्म के प्रमुख सिध्दांत- Principles of Jainism – बी.ए. प्रथम वर्ष- सारगर्भित नोट्स

जैन धर्म के प्रमुख सिध्दांत- Principles of Jainism –

महावीर स्वामी :

भूमिका –

         जैन धर्म का उद्बभव छ्ठी शता0 ई. पू. से पहले हो चुका था । जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव को माना जाता है। किंतु जैन धर्म का सर्वाधिक प्रचार -प्रसार इसके 24वें  व अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के काल में हुआ। यही कारण है कि महावीर स्वामी ने जिन सिध्दांतो का निर्धारण जैन धर्म के अनुयायियो के लिए किया वे ही सबसे ज्यादा माने गए । उनकी  मूल सिध्दांत व शिक्षाएंं निम्नवत हैं-

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मूलभूत सिध्दांत –

1.अहिंसा

2. अमृषा

3. अचौर्य

4. अपरिग्रह

5. ब्रह्मचर्य

उपरोक्त सिध्दांतो के आधार पर महावीर स्वामी ने जैन मतावलम्बियो को निम्न शिक्षाएं दी जो इस प्रकार है- 

  1. अनिश्वरवादिता- महावीर स्वामी का ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नही था। उन्होने ईश्वर को संसार का रचीयता नही माना। महावीर स्वामी ने जिन सिध्दांतो का प्रचार किया वे ही जैन धर्म के सिध्दांंत हैं। वे मानते थे कि सृष्टि का निर्माण द्र्व्यों- आकाश, काल, धर्म, अधर्म, पुदगल व जीव से हुआ है।   
  2. अनेकात्मवादिता- जिस प्रकार ब्राह्मण धर्म में आत्मा की अमरता को स्वीकार किया गया है ,उसी प्रकार जैन धर्म में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। महावीर स्वामी के अनुसार -आत्मा सुख-दुख का अनुभव करती है। तथा प्रकाश के समान अस्तिव किंतु आत्मा का कोई आकार नही होता है। प्र्त्येक जीव में अलग -अलग आत्मा होती है।उनके अनुसार आत्मा स्वभाव से निर्विकार व सर्वदृष्टा है।
  3. निवृति की प्रधानता- जैन धर्म निवृति की प्रधानता पर बल दिया गया है। यह संसार दु:खो से परिपूर्ण हैऔर दु:ख का कारण तृष्णा है। तृष्णा का नाश निवृति से सम्भव है। इसके मार्ग से ही मानव जाति का कल्याण सम्भव है।
  4. कर्म की प्रधानता व पुनर्जन्म में विश्वास- जैैैन धर्म में कर्म को प्रधानता दी गई है तथा पुनर्जन्म में विश्वास व्यक्त किया गया है।उनका मानना है कि कर्मानुसार ही मनुष्य की अगले जम्न में आयु निर्धारित होती है,अत: मनुष्य  को सदैव सत्कर्म करने चाहिए जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो सके।
  5. मोक्ष अथवा निर्वाण- हिंदू व बौध्द धर्म की तरह जैन धर्म में भी मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्ति को जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है। कर्म बंधन से मुक्ति पाने के लिये मनुष्य को ज्ञान को अनंत ,असीम व विशुद्ग करना चाहिए जिससे उसे भौतिक तत्वो से छुट्कारा मिल जाता है ।जीवन के इसी अवस्था को निर्वाण कहा जाता है। निर्वाण प्राप्ति के लिये जैन धर्म में ”त्रिरत्न ” को आवश्यक बताया गया है।
  6. तप एवं व्रत – जैन धर्म के अनुसार सभी दुखो से छुटकारा पाने के लिए तृष्णा का नाश आवश्यक है। तृष्णा का नाश कठोर तप और व्रत के द्वारा किया जा सकता है।
  7. अहिंसा-  जैन धर्म में अहिंसा पर विशेष बल दिया गया है। जैन धर्म के अनुसार संसार के प्र्त्येक जीव में जड़ व चेतन अवस्था में  जीवन का अस्तित्व माना गया है। अत: मनुष्य को कोई भी ऐसा कार्य नही करना चाहिए जिससे जीव की हिंसा हो । यहाँ तक कि हिंसा के विषय में सोचना भी नही चाहिए । अहिंसा का पालन मन, कर्म और कर्म से करना चाहिए।
  8. 18 पाप- जैन धर्म में 18 पापो का उल्लेख किया गया है। इन पापो से मनुष्य कर्म बंधन में फंसता है। ये पाप हैं –झूठ , चोरी, मैथुन, क्रोध, हिंसा, द्र्व्य मुर्छा, लोभ, माया, मान, मोह, कलह, द्वेष, दोषारोपण, चुगली, निंदा, असंयम, माया मृशा, तथा मिथ्या दर्शन ।
  9. पंच अणुव्रत –पंच अणुव्रत केवल गृहस्थो के लिए होता था – अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य  । अन्य नियमो की तुलना में यह सरल था अत: इन्हे गृहस्थो के लिए पालन करना अनिवार्य था ।
  10. जातिप्रथा तथा लिंग -भेद का विरोध –महावीर स्वामी जाति प्रथा का घोर विरोध करते हैंं। उनका मानना था कि मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य व शूद्र बनते हैंं, जन्म से नहीं।   साथ ही स्त्री- पुरुष को समान दर्जा देते थे ,उन्होने लिंग भेद का विरोध भी किया और सभी जातियो के लिये मोक्ष का द्वार खुला है , इस बात पर जोर दिया है।
  11. पंच महाव्रत —महावीर स्वामी ने भिक्षु-भिक्षुणियो के लिए पंच महाव्रत का उल्लेख किया है। जैसे- अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रम्ह्चर्य का पालन करना अनिवार्य माना गया है। इनमे से प्रथम चार व्रत 23वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ के द्वारा  तथा पांचवे व्रत ब्रम्ह्चर्य महावीर स्वामी के द्वारा लागू किया गया। 
  12. वेदो में अविश्वास—जैन धर्म वेदों को ईश्वरी ज्ञान नही मानते ,बल्कि इन्हे वे मनुष्य द्वारा रचित मानते हैं। यही कारण है कि जैन मतावलम्बी वेदो पर विश्वास नही करते ।
  13. यज्ञ, पशु-बलि तथा कर्मकांडो में अविश्वास —जैन धर्म अहिंसा पर बल देने के कारण पशु बलि , यज्ञ  तथा कर्मकांडो में अविश्वास पर अविश्वास करते थे।
  14. गुणव्रत—जैन धर्म के अनुसार तीन गुणवॖत हैं- 1. दिग्व्रत- जिसका अर्थ- पॖत्येक दिशा में निर्धारित दूरी से आगे भ्रमण न करना। 2. अनर्थ द्ण्डव्रत  – प्रयोजन हीन वस्तु जो पाप में वृध्दि करे उनका त्याग करना। 3. देशव्रत- सम्यानुकूल भ्रमण की दूरी में और कमी करना। इनका पालन करना आवश्यक बताया गया है।
  15. शिक्षाव्रत –जैन धर्म में चार शिक्षाव्रत को बताया गया है- 1. अतिथि सम्बिभाग , 2. सामयिक, प्रोषोधोपवास 3. भोगोधोपयोग , 4. भोगोपभोग परिमाण व्रत । 
  16. तीर्थंकरो में विश्वास —जैन धर्म 24 तीर्थंकर में अटूट विश्वास रखते हैं , वे इन्हे सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान मानते है। तीर्थंकरो में 24वे महावीर स्वामी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। 
  17.  त्रिरत्न –कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए तथा निर्वाण हेतु जैन धर्म में त्रिरत्न को आवश्यक बताया गया है। यदि मनुष्य इनका पालन करता है तो मोक्ष की प्राप्ति हो जाति है। ये तीन रत्न निम्न प्रकार हैं-
  • सम्यक ज्ञान- सच्चा और पूर्ण ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है।
  • सम्यक दर्शन-यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रध्दा को ही सम्यक दर्शन कहा गया है।
  • सम्यक आचरण-  मनुष्य को इंद्रियो के वशीभूत न होकर सदाचारी जीवन व्यतीत करना चाहिए इसके लिये आवश्यक है कि वह सत्य, अहिंसा तथा ब्रम्हाचर्य का पालन करे। यही सम्यक आचरण है।

 

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