आंग्ल – फ्रांसीसी संघर्ष, स्वरुप , कारण एवम प्रभाव – (Anglo -French conflict/ War)-
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आंग्ल – फ्रांसीसी संघर्ष एवम उसके कारण- (Anglo -French conflict/ War)-
भूमिका- सन 1707 ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात भारत की अस्थिर एवम आपसी लड़ाईयो में व्यस्त विभिन्न रियासतो को अपने वश में लेकर अपनी कम्पनी और व्यापार को बढाने के लिये ब्रिटिश एवम फ्रांसीसी कम्पनिया अब खुले आम निर्णायक युध्द लड़ने के लिये मैदान में उतर आई। भारत में आंग्ल- फ्रांसीसी शत्रुता मुख्यत: 18वी के 4थे दशक के बाद प्रारम्भ हुई।
आंग्ल- फ्रांसीसी संघर्ष अपने पूर्ववर्ती आंग्ल – पुर्तगाली अथवा आंग्ल- डच संघर्ष से अधिक गम्भीर था क्योंकि पुर्तगाल एवम हालैंड यूरोप में अपनी शक्ति खो चुके थे और समुद्रपारीय व्यापारी एकाधिपत्य के लिए अब केवल फ्रांस एवम इंग्लैंड पराकाष्ठा की लड़ाई लड़ने को उद्यत थे।
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आंग्ल- फ्रांसीसी संघर्ष का मुख्य क्षेत्र कर्नाटक था, जहाँ ये दोनो कंपनियो के मध्य प्रमुख तीन युध्द हुए थे ,इसलिए इसे कर्नाटक युध्द के नाम से भी जाना जाता है-
आंग्ल – फ्रांसीसी संघर्ष एवम उसके कारण-
व्यापारिक प्रतिस्पर्धा- अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के मध्य । संघर्ष का प्रमुख कारण उनकी आपसी व्यापारिक स्पर्धा थी। दोनों ही कम्पनियों की आकांक्षा थी कि वे भारत के विदेशी व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लें।
डूप्ले की साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा- अंग्रेजों और फ्रांसीसियों, दोनों का उद्देश्य एक-दूसरे को भारत से निकालकर अपनी-अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी करना था। भारत की राजनीतिक स्थिति से अंग्रेज और फ्रांसीसी, दोनों अधिकाधिक लाभ उठाना चाहते थे। जिसमें डुप्ले सबसे ज्यादा साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा रखता था।
यूरोप में संघर्ष-भारत में अंग्रेज और फ्रांसीसियो के बीच व्यापारिक प्रतिस्पर्धा तो चल रही ही रही थी, तभी 1740 ई. में आस्ट्रीया की राजगद्दी के उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर अंग्रेज और फ्रांसीसीयो के मध्य यूरोप में भी संघर्ष छिड़ गया, इस संघर्ष ने भारत में भी दोनो शक्तियो को प्रभावित किया । भारत में भी दोनो के बीच 1744 में युध्द आरम्भ हो गया।
भारत की राजनीतिक दशा-अंग्रेजों और फ्रांसीसियों, दोनों का उद्देश्य एक-दूसरे को भारत से निकालकर अपनी-अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी करना था। भारत की राजनीतिक स्थिति से अंग्रेज और फ्रांसीसी, दोनों अधिकाधिक लाभ उठाना चाहते थे। फूट डालो और राज्य करो की नीति यूरोपीय शक्तियो के अपनाया जाने लगा।
उत्तराधिकार के संघर्ष में कम्पनी की भागीदारी-उत्तराधिकार के युद्ध में फ्रांस और इंग्लैंड दोनों संघर्षरत थे| परिणाम स्वरुप यूरोप का प्रतिद्वंदिता ही भारत में दोनों कंपनियों को आमने सामने ला दिया| अब वे खुल कर भारत की राजनीति में हिस्सेदारी देने लगे ,फलस्वरूप आंग्ल -फ्रांसीसी सघर्ष के रूप स्थितिया बदल गई।
कर्नाटक की राजनैतिक दशा
आगे पढ़ें….
1. प्रथम कर्नाटक युध्द ( 1746 – 48)
2. द्वितीय कर्नाटक युध्द ( 1748 -54 )
3. तृतीय कर्नाटक युध्द (1756 )
1. प्रथम कर्नाटक युध्द ( 1746 – 48)-
कारण- यूरोप में आस्ट्रीया के उत्तराधिकार के मामले में फ्रांस और इंग्लैंड 1744 ई.से लड़ रहे थे।
स्वरूप-
इंग्लैंड ने फ्रांस के कुछ जहाजो पर कब्जा कर लिया।
बदले में डुप्ले ने मारीशस के गवर्नर लो बोंडो की नौसेना की सहायता ली । सितम्बर 1746 में मद्रास पर अधिकार कर लिया।
अंग्रेजो ने इस घटना की जानकारी कर्नाटक के नवाब अनवर उद्दीन को दी ।
नवाब ने महफूज खान को फ्रांसीसी के विरूध्द भेजा। दोनो पक्षो के मध्य अडवार नदी के तट पर सेंट टोमे नामक स्थान पर युध्द हुआ । इसलिये इसे सेंट टोमे का युध्द के नाम से जाना जाता है।
उधर यूरोप में ए-ला शापल (एक्स ला शापेल) की संधि से युध्द समाप्त हुआ।
संधि की शर्तो के अनुसार फ्रांसीसियो ने मद्रास अंग्रेजो को लौटा दिया।
प्रभाव-
उत्तराधिकार के युद्ध में फ्रांस और इंग्लैंड दोनों संघर्षरत थे| परिणाम स्वरुप यूरोप का प्रतिद्वंदिता ही भारत में दोनों कंपनियों को आमने सामने ला दिया|
1. एक्स ला चैपल संधि ने डूप्ले (Joseph François Dupleix) की आशा पर पानी फेर दिया.
2. भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य साम्राज्य की स्थापना का स्वप्न पूरा नहीं हो सका.
3. अंग्रेजों की शक्ति नष्ट नहीं हुई. अंग्रेजों की शक्ति नष्ट नहीं हुई. विजय अथवा पराजय का निर्णय नहीं हो सका. बाह्य दृष्टि से कर्नाटक के प्रथम युद्ध (First Carnatic War) का परिणाम भारतीय राजनीति की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं था|
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4. मुख्यरूप से यह उदध अंग्रेज़ और फ्रांसीसी कंपनियों के बीच हुआ था. युद्ध यूरोपीय राजनीतिक घटनाचक्र का परिणाम था| अंग्रेज़ और फ्रांसीसी कंपनियाँ पूर्ववत कायम रहीं. दोनों के अधिकार और सीमाओं में कोई परविर्तन नहीं हुआ. परन्तु कर्नाटक का प्रथम युद्ध (First Carnatic War) आंतरिक दृष्टि से भारतीय इतिहास की एक युगांतकारी घटना माना जाता है|
5. इस युद्ध ने भारतीय राजनीति के खोखलेपन को पूर्णतया स्पष्ट कर दिया. अंग्रेज़ और फ्रांसीसी भारतीय नरेशों की युद्ध-पद्धति और सैनिक दुर्बलता से परिचित हो गए|
6. अबतक अंग्रेज़ और फ्रांसीसी केवल सामुद्रिक शक्ति के विकास पर ही बल दे रहे थे. परन्तु भारतीय नरेशों की कमजोरी को दखते हुए उनमें राजनीतिक प्रभुत्व कायम करने का हौसला बढ़ा दिया|
7. कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (Anwaruddin) ने युद्ध रोकने का प्रयास किया था. परन्तु नवाब की विशाल सेना फ्रांसीसियों से युद्ध में पराजित हुई. फ्रांसीसियों की विजय से यह स्पष्ट हो गया कि थोड़ी-सी प्रशिक्षित यूरोपीय सेना बड़ी से बड़ी भारतीय सेना को आसानी से मात दे सकती है|
8. इस विजय से फ्रांसीसियों की केवल प्रतिष्ठा ही नहीं बढ़ी, बल्कि कूटनीति में भी फ्रांसीसियों से कर्नाटक का नवाब मात खा गया. भारतीय नरेशों का आपसी संघर्ष, उनकी सैनिक कमजोरी, नौसेना का अभाव, इन सब तत्वों ने मिलकर विदेशियों को भारत में साम्राज्य कायम करने की प्रेरणा दी|
फ्रांसीसीयो के असफलता के कारण-
1) व्यापार की दयनीय स्थिति–
अंग्रेजों की तुलना में फ्रांसीसी व्यापार की स्थिति बहुत दुर्बल थी। अंग्रेजों का अकेले बम्बई में ही इतना विस्तृत व्यापार था कि कई फ्रांसीसी बस्तियों का व्यापार मिलकर भी उसका मुकाबला नहीं कर सकता था। अंग्रेजों ने कभी व्यापार की उपेक्षा नहीं की। ।
(2) सामुद्रिक शक्ति-
अंग्रेजों की सेना जहाजी बेड़े से सुसज्जित थी। अत: फ्रांसीसी सेना उसका मुकाबला नहीं कर सकी।
(3) कम्पनी पर सरकारी नियन्त्रण-
अंग्रेजी कम्पनी व्यक्तिगत व्यापारिक कम्पनी थी, जबकि फ्रांसीसी सरकारी व्यापारिक कम्पनी। इस कारण अपनी आर्थिक सहायता के लिए उसे फ्रांसीसी सरकार पर आश्रित रहना पड़ता था।.
(4) फ्रांसीसियों में एकता की भावना का न होना-
प्राय: भारत में अंग्रेज अफसर और सेनापति सदैव ही पारस्परिक विश्वास और एकता के साथ कार्य करते थे। इसके विपरीत फ्रांसीसी अफसरों में बहुधा द्वेष भाव व स्वार्थपरता रहती थी।
(5) योग्य सेनापतियों का अभाव-
फ्रांसीसी सेना में योग्य सेनापतियों का अभाव था। सेनापति अयोग्य एवं रण कौशल में कुशल नहीं थे, जबकि अंग्रेजों का सैन्य संगठन उच्च कोटि का था। सभी सैनिक अनुशासित एवं रण विद्या में कुशल थे।
(6) डूप्ले का फ्रांस वापस बुलाया जाना –
यह फ्रांसीसी सरकार का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि उसने डूप्ले के विचारों को जानने या सम्मान देने की आवश्यकता महसूस नहीं की और उसे फ्रांस ऐसे समय बुला लिया जबकि भारत में उसकी आवश्यकता थी।
(7) भारतीय नरेशों की मित्रता से हानि –
डूप्ले को चान्दा साहब की मित्रता से धोखा मिला। चान्दा साहब ने उसकी इच्छा के विरुद्ध त्रिचनापल्ली पर चढ़ाई विजय के लिए नहीं, वरन् तंजौर की धनराशि प्राप्त करने के लिए कर दी। इससे त्रिचनापल्ली पर शीघ्र विजय प्राप्त नहीं की जा सकी। जब चान्दा साहब ने त्रिचनापल्ली का घेरा डाला, तो उसने डूप्ले की इच्छा के विरुद्ध आधी सेना अर्काट भेज दी, जिसका सन्तोषजनक फल नहीं मिला।